अरावली को लेकर जिस 100 मीटर नियम की मंजूरी से तबाही की आशंका जताई जा रही है, उसपर फ़ैसले से पहले ही काफी विरोध हुआ था। यह विरोध भी सुप्रीम कोर्ट की ही एक कमेटी ने किया था जिसपर यह निगरानी करने का ज़िम्मा है कि पर्यावरण और जंगल से जुड़े मामलों में निमयों को लागू किया जा रहा है या नहीं। यानी सुप्रीम कोर्ट की अपनी कमेटी ने सरकार के जिन नियमों या प्रस्ताव का विरोध किया उसको सुप्रीम कोर्ट ने मंजूरी दे दी। तो सवाल है कि यह कैसे हुआ?

दरअसल, भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक अरावली की सुरक्षा को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2025 में पर्यावरण मंत्रालय की सिफारिश को स्वीकार कर लिया, जिसमें अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा दी गई है। इसके अनुसार, अब केवल वे जमीन के हिस्से अरावली माने जाएंगे जो अपने आसपास की जमीन से 100 मीटर या उससे ज्यादा ऊंचे हों। इस फैसले से पर्यावरण विशेषज्ञ चिंतित हैं कि अरावली के बड़े हिस्से की सुरक्षा खत्म हो जाएगी और खनन बढ़ सकता है। इस वजह से इस नियम का विरोध हो रहा है और 'अरावली बचाओ' अभियान शुरू किया गया है।
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अरावली की नयी परिभाषा क्यों?

यह मामला सालों से कोर्ट में चल रहा था। अरावली में अवैध खनन रोकने और पहाड़ियों की रक्षा के लिए अलग-अलग राज्यों में अलग नियम थे। मई 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय को एक कमेटी बनाने को कहा, ताकि अरावली की एक समान परिभाषा बनाई जाए। इस कमेटी में दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के अधिकारी, फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया यानी एफएसआई, जियोलॉजिकल सर्वे और कोर्ट की सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी यानी सीईसी के सदस्य शामिल थे।

सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने क्या किया?

13 अक्टूबर 2025 को मंत्रालय ने कोर्ट में 100 मीटर ऊंचाई वाली परिभाषा पेश की। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार लेकिन अगले ही दिन, 14 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट की कमेटी सीईसी ने कोर्ट की मदद करने वाले वकील को पत्र लिखकर कहा कि उन्होंने न तो इस प्रस्ताव की जाँच की है और न ही मंजूरी दी है। अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार सीईसी के चेयरमैन सिद्धांत दास ने लिखा कि एफएसआई की पुरानी परिभाषा ही अपनाई जानी चाहिए, जिसमें कम से कम 3 डिग्री ढलान वाले इलाक़े को अरावली माना जाता है। इससे छोटी पहाड़ियां भी सुरक्षित रहती हैं। 

सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने 100 मीटर वाली परिभाषा को सीधे-सीधे खारिज कर दिया था और एफएसआई की उस परिभाषा को माना था जिसमें 20 मीटर से ऊँची पहाड़ियाँ अरावली में आती हैं।

एफएसआई ने क्या दी थी परिभाषा?

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एफएसआई ने 2010 में राजस्थान के 15 जिलों में अरावली के 40481 वर्ग किमी क्षेत्र की मैपिंग की थी। इसमें न्यूनतम ऊँचाई वाली वे पहाड़ियां भी शामिल थीं जिसका ढलान कम से कम 3 डिग्री था। लेकिन माना जा रहा है कि नई 100 मीटर परिभाषा से राजस्थान में ही 20 मीटर या उससे ऊंची 12,081 में से 91.3 फीसदी पहाड़ियां बाहर हो जाएंगी। सभी पहाड़ियों को मिलाकर 99 फीसदी से ज्यादा बाहर हो सकती हैं। इससे थार मरुस्थल का पूर्व की ओर फैलना तेज हो सकता है, दिल्ली-एनसीआर में धूल भरी आंधियां बढ़ सकती हैं और पानी का स्तर गिर सकता है।
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द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार अदालत को सहायता देने वाले वकील के. परमेश्वर ने कोर्ट में पावरपॉइंट प्रेजेंटेशन देकर 100 मीटर नियम का विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि इससे अरावली की इंटेग्रिटी खत्म हो जाएगी और छोटी पहाड़ियां खनन के लिए खुल जाएंगी। लेकिन 20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने मंत्रालय की सिफारिश मान ली। कोर्ट ने नई खनन लीज पर रोक लगा दी और सस्टेनेबल माइनिंग प्लान बनाने को कहा।

पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा कि अरावली के कुल 1.44 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में सिर्फ 0.19 फीसदी (278 वर्ग किमी) में ही खनन हो सकता है, 90 फीसदी से ज्यादा क्षेत्र सुरक्षित रहेगा और दिल्ली में कोई खनन नहीं होगा। लेकिन स्थिति यह है कि मौजूदा समय में ही 278 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में खनन किया जा रहा है। लेकिन आलोचक कहते हैं कि छोटी पहाड़ियां बाहर होने से भविष्य में खनन और निर्माण बढ़ सकता है।
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बहरहाल, अदालत के इस फ़ैसले के बाद राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। पर्यावरण कार्यकर्ता कहते हैं कि अरावली दिल्ली की हवा साफ रखने और मरुस्थल रोकने में बड़ी भूमिका निभाती है। अगर छोटी पहाड़ियाँ तबाह हुईं तो पर्यावरण को बड़ा नुकसान होगा।