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कश्मीर में पुलवामा शहीद स्थल पर राहुल गांधी। फाइल फोटो।

भारत जोड़ो यात्राः एक ‘निर्भय भारत’ जो टी शर्ट के लाल होने से नहीं डरता!

“ मुझसे कहा गया कि जम्मू-कश्मीर में आप पैदल नहीं गाड़ी से चलिए। प्रशासन ने डराने के लिए कहा कि पैदल चलेंगे तो आपके ऊपर ग्रेनेड फेंका जाएगा।....मैंने सोचा कि जो मुझसे नफ़रत करते हैं, उनको क्यों न एक मौका दूँ कि मेरी सफेद शर्ट का रंग बदल दें, लाल कर दें...क्योंकि मेरे परिवार ने मुझे सिखाया है, गाँधी जी ने सिखाया है कि अगर जीना है तो डरे बिना जीना है, नहीं तो जीना नहीं है। तो मैंने मौका दिया, बदल दो टीशर्ट का रंग। मगर जो मैंने सोचा था, वही हुआ, जम्मू-कश्मीर के लोगों ने हैंड ग्रेनेड नहीं दिया, दिल खोलकर प्यार दिया, गले लगे और मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि उन सबने मुझे अपना माना और सबने आँसुओं से मेरा स्वागत किया।”

महात्मा गाँधी के शहादत दिवस 30 जनवरी को श्रीनगर के शेरे कश्मीर स्टेडियम के मंच से बर्फबारी के बीच जब राहुल गाँधी ने कुछ भावुक होते हुए यह बयान दिया तो सुनने वालों का दिल काँप गया। इस बयान मे इंदिरा गाँधी से लेकर राजीव गाँधी तक की शहादत की गूँज थी। राहुल सत्ता नहीं ‘शहादत के वंशवाद’ के जीते-जागते प्रतीक की तरह उस मंच पर जगमगा रहे थे।

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और 135 दिन और लगभग 4000 किलोमीटर की पदयात्रा का सबसे बड़ा हासिल यही है कि देश को एक ऐसा नेता मिल गया है जो संविधान के बुनियादी ढाँचे को बचाने के लिए कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार है। जिसने एक तानाशाही निज़ाम का सामना करते हुए निर्भयता का मंत्र दिया। राहुल गाँधी ने ‘नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान खोलने’ की जो बड़ी रेखा खींची है वह किसी राजनीतिक दल और नेता की ओर से किया ऐसा ऐतिहासिक हस्तक्षेप है जिसकी गूँज अरसे तक सुनाई देगी। इतिहास में इस यात्रा का पाठ होना तय है और इतिहास का सबक़ भी यही है कि किसी देश के हालात बदलने की ताक़त वही रखता है जो अपने कपड़े को सफेद से लाल हो जाने की आशंकाओं से घबराए नहीं। राष्ट्रपिता की शहादत भी इसी की मिसाल है।

इस यात्रा के बढ़ने के साथ ही देश का माहौल बदलने की सुगबुगाहट नज़र आने लगी थी। ग़ौर से देखें तो इसके अंत के साथ आज एक निर्भय भारत सामने खड़ा दिखाई देता है। चाहे मामला बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री पर बैन का हो या फिर शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्म के बॉयकाट के ख़िलाफ़ दर्शकों की उमड़ी भीड़। हर तरफ़ एक स्वत:स्फूर्त हलचल दिख रही है।

केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को नज़र नहीं आया लेकिन राहुल गाँधी ने यह यात्रा कन्याकुमारी में योद्धा संन्यासी विवेकानंद को नमन करके शुरू की थी जिन्होंने ‘इस्लामी शरीर और वेदांती मस्तिष्क’ के मेल में भारत का भविष्य देखा था। और यह यात्रा जिस कश्मीर तक पहुँची वहाँ कभी आदि शंकराचार्य ‘अद्वैत’ का सिद्धांत लेकर इसी तरह दक्षिण से चलकर पहुँचे थे। शंकराचार्य ने जीव और ब्रह्म में अद्वैत की बात कही थी यानी दोनों में कोई भेद नहीं है। ऐसे में जीव और जीव में कैसे भेद हो सकता है चाहे उनका धर्म अलग क्यों न हो। राहुल गाँधी ने यात्रा के ज़रिये विवेकानंद से लेकर शंकराचार्य की शिक्षा का ही प्रचार किया। इस तरह उन्होंने धर्म के हिंसक प्रयोग के दौर में उसके उस कल्याणकारी रूप को सामने रखा जिसके केंद्र में मनुष्य और मनुष्यता है।
राहुल ने अपने समापन भाषण में देश के हर कोने के उन संतों-महात्माओं का ज़िक़्र किया जिन्होंने समता और समानता की अलख जगाई थी और इस तरह उन्होंने ख़ुद को एक महान दार्शनिक परंपरा से ख़ुद को जोड़ा। इस यात्रा के ज़रिये वे भारत को भारत की आत्मा से रूबरू कराने में सफल रहे जिस पर बड़े जतन से उठाई गई नफ़रती आँधी ने बड़ी धूल डाल दी थी।
यात्रा के दौरान राहुल गाँधी लगातार महंगाई, बेरोज़गारी और कॉरपोरेट लूट का सवाल उठाते रहे। और आख़िरकार हिंडनबर्ग रिसर्च का रहस्योद्घाटन सामने है जिसने अडानी के साम्राज्य की हेराफेरी और लूट को उजागर कर दिया है। भारतीय मीडिया की तमाम चुप्पियों के बावजूद कॉरपोरेट लूट के मामले में भी राहुल गाँधी उसी तरह एक बार फिर सही साबित हुए हैं जैसा कि वो नोटबंदी से लेकर कोरोना तक के मसलों पर हुए थे।

राहुल गाँधी ने इस यात्रा के ज़रिये कांग्रेस में नई ऊर्जा भरी है। आज कांग्रेस के पास ऐसे हज़ारों कार्यकर्ता और नेता हैं जिनके पास उस भारत को निकट से देखने का अनुभव है जो आमतौर पर अदृश्य रहता है। इस यात्रा ने इन कांग्रेसजनों का जैसा कायांतरण किया है वह कांग्रेस को एक नई पहचान देंगा। एक नई पीढ़ी तमाम स्तरों पर कांग्रेस का नेतृत्व थामने के लिए उभर कर आई है।
इस यात्रा ने यह भी साबित किया है कि लोकतंत्र के चौथे खंभे के बतौर बार-बार चिन्हित किये जाने वाले मीडिया को विपक्ष के परिसर में ग़ैरज़रूरी मान लिया गया है। मीडिया के सहयोग के बिना भी यात्रा का संदेश देश भर में गया है, और काफ़ी प्रभावी ढंग से गया है। विपक्ष ने मीडिया के बगैर जीना सीख लिया है, सवाल तो मीडिया से है कि विपक्ष की अपनी भूमिका त्यागकर वह कितने दिनों तक जीवित रह पाएगा।

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राहुल गाँधी ने भारतीय राजनीति में पैदा हुए एक नैतिक शून्य को भरा है। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक को प्रेम के सूत्र में बाँधा है। विपक्ष की आशा बने हैं। इमेज के खेल में आज नरेंद्र मोदी के चेहरे के सामने उनका चेहरा डटकर खड़ा है चाहे सर्वेक्षणों की आड़ में कुछ टीवी चैनल इसे उलटने की जितनी कोशिश कर रहे हों। शेरे कश्मीर स्टेडियम की जनसभा में शामिल हुए विपक्षी दलों की तादाद, आने वाले दिनों में एक बड़ी विपक्षी गोलबंदी के लिए लगातार बढ़ेगी, इसमें कोई शक़ नहीं है।

भारत की जनता अब न्याय और अन्याय, हिंसा और अहिंसा, घृणा और प्रेम के बीच जारी एक युद्ध की साक्षी है और ‘रावण रथ-विरथ रघुवीरा’ वाला दृश्य सामने है।

(लेखक कांग्रेस से जुड़े है)

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पंकज श्रीवास्तव
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