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भारत का ख़तरनाक भूस्खलन

अमेरिकी अख़बार वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा है कि हालाँकि नरेंद्र मोदी के दुबारा प्रधानमंत्री चुने जाने की संभावना पहले से ही थी, लेकिन यह जीत इतनी बड़ी थी कि जब गुरुवार को इसकी घोषणा हुई, कुछ लोगों ने कहा कि यह तो चमत्कार हो गया। पिछली आधा सदी में ऐसा पहली बार हुआ कि सत्तारूढ़ दल ने संसद के नीचले सदन में लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया। 
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मोदी की भारतीय जनता पार्टी ने 543 सदस्यों के सदन में 303 सीटें जीत लीं, यह 2014 के चुनाव में मिली सीटों से भी ज़्यादा है। इसकी वजह मतदाताओं की उदासीनता नहीं है, 67 प्रतिशत मतदान हुआ, छह हफ़्तों तक चले मतदान में लगभग 60 करोड़ लोगों ने हिस्सा लिया, इनमें 8.40 करोड़ वे लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने पहली बार अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया।
लेकिन यदि भारत के लोकतंत्र को मजबूत होना है तो मोदी की जीत उसके लिए शुभ संकेत नहीं है। पाँच साल पहले अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का प्रचार करने के बाद इस बार करिश्माई प्रधानमंत्री ने राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद को चुना।

राष्ट्रवाद

अख़बार का कहना है कि मोदी ने कश्मीर में हुए आतंकवादी हमले का मुँहतोड़ जवाब देने की डींग हाँकी, हालाँकि यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने पाकिस्तान स्थित कथित आतंकवादी शिविर पर बम गिराने के लिए जो जहाज़ भेजे थे, उनका निशाना  कितना अचूक था, लेकिन मोदी ने इसके ज़रिए हिन्दुत्व को श्रेष्ठतम समझने वालों को अपील ज़रूर किया। बीजेपी ने ऐसे कदम उठाने की कसमें खाईं, जिनसे देश के 18 करोड़ मुसलमानों को बुरा लगा, मसलन ढहाई गई मसजिद की जगह हिन्दू मंदिर का निर्माण करना। बीजेपी के निर्वाचित सांसदों में से एक पर आतंकवादी हमले में शामिल होने का आरोप है जिसमें मुसलमान मारे गए थे, उन्होंने महात्मा गाँधी के हत्यारे की तारीफ़ भी की थी।
India’s dangerous landslide, writes Washington Post on Modi victory - Satya Hindi
वाशिंगटन पोस्ट के मुताबिक़, मोदी की लोकप्रियता के केंद्र में अर्थव्यवस्था की दिशा में उनके उठाए गए कदमों की मिलीजुली प्रतिक्रिया रही है। उन्होंने दो महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार पेश किए, एक दिवालियपन क़ानून है और दूसरा राष्ट्रीय बिक्री कर से जुड़ा हुआ है। पर उन्होंने दूसरे मामलों में कोताही बरती, जिनमें भूमि और रोज़गार सुधार हैं। उन्होंने हर साल एक करोड़ रोज़गार सृजित करने का वायदा तो किया, पर वे उसके आस पास भी नहीं पहुँच सके, विकास की दर धीमी हो गई और बेरोज़गारी की दर बीते साल बढ़ कर 6.1 प्रतिशत हो गई, यह 45 साल में सबसे ऊँचाई पर था।

उदारवाद-विरोधी

अख़बार का कहना है कि इस दौरान सरकार ने साफ़ रूप से उदारवाद-विरोधी अजेंडा अपनाया। मोदी ने भारतीय मीडिया की उपेक्षा की और पाँच साल में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। आलोचना करने वाले कुछ पत्रकारों और ग़ैर-सरकारी संगठनों पर दबाव बढ़ाया गया और उन्हें डराया गया। मुसलमानों पर हिन्दू अतिवादियों के हमले बढ़े और बिरले मामले में ही किसी को सज़ा मिली।

चिंता इस बात की है कि मोदी इस ज़बरदस्त जीत को हिन्दू राष्ट्रवाद पर मिला जनादेश समझेंगे न कि आर्थिक सुधारों को, जिसकी बहुत ही अधिक ज़रूरत है।
वह अमेरिका के कुछ दोस्ताना सुझावों को मान सकते हैं जिसके साथ उन्होंने साफ़ गठजोड़ तो नही, पर नज़दीकी का रिश्ता क़ायम कर लिया है।

दुर्भाग्यवश दबंगों और लोकलुभावन नारों के प्रशंसक डोनल्ड ट्रंप ने मोदी की तारीफ़ ही की। चुनाव के नतीजे निकलने के बाद उन्होंने मोदी को फ़ोन कर बधाई दी। भारतीयों के लिए संकेत साफ़ है-धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने का जहाँ तक सवाल है, वे अमेरिकी राष्ट्रपति से किसी तरह की मदद की उम्मीद न करें।

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क़मर वहीद नक़वी
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