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इंसाफ मी लार्डः अंडर ट्रायल से बजबजा रही हैं जेलें, यूपी टॉप पर -1 लाख पर 1 जज

भारत की जेलें अंडर ट्रायल (विचाराधीन) कैदियों से बजबजा रही हैं। ये कैदी ऐसे आरोपी हैं, जिन पर छोटे-मोटे अपराध का आरोप है। देश की अदालतों में 5 वर्षों से भी ज्यादा समय से 1 करोड़ मामले सुनवाई के लिए पेंडिंग हैं। इनमें से 76 फीसदी अंडर ट्रायल हैं, जिनके मुकदमे पेंडिंग हैं। मात्र इस आंकड़े से अंडर ट्रायल आरोपियों की भयावह स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।

आधे से ज्यादा पेंडिंग मामले उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और पश्चिम बंगाल की निचली अदालतों में दायर किए गए थे। यहां पर कैदियों की संख्या जेलों की क्षमता से ऊपर चली गई हैं। यानी जितना डिमांड नहीं, सप्लाई उससे ज्यादा है। हाई प्रोफाइल पुलिस अधिकारी अपनी भाषा में इसे डिमांड-सप्लाई टर्म में बात करते हैं। यह उनके लिए मजाक का विषय हो सकता है लेकिन अदालतों के लिए नहीं।
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यूपी, बिहार, एमपी, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, असम आदि राज्यों में छोटे-छोटे आरोपों में अंधाधुंध गिरफ्तारियां हो रही हैं। यह मामला इतना गंभीर है कि अभी चार दिन पहले सुप्रीम कोर्ट को इस पर टिप्पणी करना पड़ी। सु्प्रीम कोर्ट ने कहा था कि सीआरपीसी 41 और 41 ए के तहत की जा रही अंधाधुंध गिरफ्तारियां चिन्ता का विषय हैं। कोर्ट ने कहा था कि हम भारत को पुलिस स्टेट नहीं बनने देंगे। पुलिस अधिकारी इसमें नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 2014 के अर्नेश कुमार मामले का हवाला देते हुए कहा था कि ऐसे मामलों में जिसमें सजा का प्रावधान 7 वर्षों से कम है, उनमें पुलिस अधिकारी को लिख कर देना होगा कि वो कोर्ट के तमाम कानूनों का पालन कर रहा है या नहीं। अदालत ने कहा था कि ऐसे पुलिस अफसरों पर कार्रवाई होगी जो गैर जरूरी गिरफ्तारियां कर रहे हैं।
हाल ही में यूपी में कई गिरफ्तारियां इसी तरह छोटे-छोटे मामलों में की गईं। उन आरोपियों के केस की जब तक सुनवाई शुरू नहीं होगी, तब तक उन्हें इंसाफ की उम्मीद नहीं होगी। क्योंकि गरीब आरोपी तो जमानत तक नहीं करा पाते हैं।
कुछ राज्यों में, हाल के वर्षों में प्रति व्यक्ति दर्ज मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है, और इसलिए इंसाफ की मांग ज्यादा हो रही है। अन्य राज्यों में, अपेक्षाकृत हायर जुडिशरी में रिक्तियों के कारण, इंसाफ मिलने में देरी हो रही है। इसके उदाहरण महाराष्ट्र, केरल, दिल्ली, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश हैं। हालांकि प्रति लाख जनसंख्या पर लंबित मामलों की संख्या 4,500 से अधिक है, उनमें से 25% से कम मामले पांच साल से अधिक समय से लंबित हैं।
बिहार और पश्चिम बंगाल में, प्रति व्यक्ति लंबित मामलों की संख्या राष्ट्रीय औसत से कम है, लेकिन उनमें से 40% से अधिक 5 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।

यूपी में हर एक लाख लोगों पर 1 जज

यू.पी. और ओडिशा के आंकड़े भारत के औसत से ऊपर हैं। निचली अदालतों में मंजूर संख्या के हिस्से के रूप में न्यायिक रिक्तियां 19 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में 20% या उससे अधिक हैं। असंगत भर्ती की वजह से उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और तेलंगाना जैसे कुछ राज्यों में प्रति एक लाख लोगों पर सिर्फ एक जज है। 
इंसाफ में लगातार देरी के कारण, कुल कैदियों की हिस्सेदारी के रूप में विचाराधीन कैदियों की संख्या 2020 में 76 प्रतिशत पर पहुंच गई है। लेकिन विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में यह 177% पर है और वहां की जेलें विचाराधीन कैदियों से भरी हुई हैं।

यूपी, बिहार सबसे आगे

भारत की निचली अदालतों में पांच साल से अधिक समय से कुल 4.18 करोड़ मामलों में से लगभग 1.08 करोड़ मामले (25%) पांच साल से अधिक समय से लंबित हैं। लेकिन अगर राज्य वार बात की जाए तो यूपी, उड़ीसा, बंगाल आदि रेड जोन में आते हैं जहां वर्षों से मामले लंबित हैं। यूपी में 33.3 फीसदी, बिहार में 40.8 फीसदी, पश्चिमी बंगाल में 42.1 फीसदी और उड़ीसा में 37.1 फीसदी मामले पेंडिंग हैं।

कितने केस किस राज्य में

 विभिन्न राज्यों में लंबित मामलों में एक करोड़ से अधिक केसों के साथ यूपी में सबसे अधिक लंबित केस हैं, जिनमें से 14% 10 से अधिक वर्षों से लंबित हैं। दूसरे नंबर महाराष्ट्र है जहां 49.5 लाख केस और तीसरे नंबर आने वाले गुजरात में 18.6 लाख केस पेंडिंग हैं। बिहार में 34.3 लाख केस लंबित हैं। बंगाल में यह 26.8 लाख और उड़ीसा में 15,7 लाख केस हैं।  

कोर्ट में रिक्तियां

1 करोड़ 3 लाख केसों वाले यूपी में इस समय हर एक लाख लोगों के मामले सुनने के लिए सिर्फ एक जज है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वहां केसों की सुनवाई का नंबर कब आता होगा। 2020 तक उत्तर प्रदेश में, लगभग 1,000 न्यायिक रिक्तियां थीं। निचली अदालतों में और कुल स्वीकृत संख्या में रिक्तियों की हिस्सेदारी लगभग 30% थी, जो देश में सबसे अधिक थी।
भीड़भाड़ वाली जेलों में भी यूपी ही सबसे टॉप पर है। 2020 तक उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक सूची में सबसे ऊपर उत्तर प्रदेश (177%) था। वहां की जेलें जरूरत से ज्यादा दबाव झेल रही हैं और वहां के जेलों की एक्युपेंसी 177 फीसदी से ज्यादा है। इसी तरह महाराष्ट्र में यह 158.6 फीसदी एक्युपेंसी रेट है। हालांकि तीन अंकों वाले तमाम प्रदेशों की भरमार है यानी जरूरत से ज्यादा कैदी वहां की जेलों में भरे हुए हैं। लेकिन यूपी और महाराष्ट्र इस मामले में टॉप पर हैं।
जेलों में मुस्लिम कैदीदेश की तमाम जेलों में मुस्लिम कैदियों की भरमार है। विपक्षी दल और तमाम मानवाधिकार संगठन सरकार पर आरोप लगाते रहे हैं कि भारत में मुस्लिमों को तमाम तरह के मामलों में फंसाकर जेलों में डाला जा रहा है। 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली के भयावह दंगों के अलावा सीएए-एनआरसी आंदोलन के दौरान की गई गिरफ्तारियां, 2022 में जहांगीरपुरी (दिल्ली), प्रयागराज, कानपुर, सहारनपुर (यूपी) के अलावा एमपी, असम आदि में एकतरफा गिरफ्तारियां की गईं।
Justice Me Lord: Jails full with under trials, 1 judge on 1 lakh in UP - Satya Hindi
एनसीआरबी का आंकड़ा इस स्थिति को बताने के लिए काफी है। 31 दिसंबर 2020 तक के आंकड़ों के मुताबिक असम में 52 फीसदी, 43.5 फीसदी बंगाल, 30.6 फीसदी उत्तराखंड, 28.3 फीसदी यूपी, गुजरात 18.2 फीसदी, दिल्ली 23.4 फीसदी मुस्लिम अंडर ट्रायल जेलों में थे।
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मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूटट ऑफ सोशल साइंसेज के प्रोफेसर विजय राघवन के हवाले से बीबीसी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि सिर्फ एक फीसदी मुस्लिम कैदी आतंकवाद के मामलों में बंद हैं, बाकी अन्य अपराधों में बंद हैं। महाराष्ट्र में हर तीन मुसलमान पर एक अंडर ट्रायल शख्स है। राघवन ने बीबीसी से कहा था कि तमाम रिसर्च से पता चलता है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ खूब भेदभाव होता है। इन लोगों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि उन्हें आसानी से अपराध की तरफ धकेला जा सकता है।

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क़मर वहीद नक़वी
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