उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और इस समय राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह बाबरी मसजिद गिराए जाने के ख़िलाफ़ थे। इस बात का ख़ुलासा कल्याण सिंह की सरकार के दौरान सूचना और जनसंपर्क निदेशक के पद पर तैनात रहे अनिल स्वरूप ने अपनी किताब में किया है। रिटायर्ड आईएएस अफ़सर अनिल स्वरूप की किताब ‘नॉट जस्ट अ सिविल सर्वेंट’ हाल ही में प्रकाशित हुई है। अनिल स्वरूप मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बेहद क़रीबी अफ़सरों में शामिल थे। 

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अनिल स्वरूप ने अपनी किताब में लिखा है कि कल्याण सिंह बाबरी मसजिद के गिरने से काफ़ी दुखी थे और उन्होंने अपने क़रीबी लोगों से इस बात का ज़िक्र भी किया था। बता दें कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मसजिद गिरा दी गई थी। 

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अनिल स्वरूप यह भी लिखते हैं कि कल्याण सिंह दरअसल बाबरी मसजिद गिराए जाने के पक्ष में ही नहीं थे। स्वरूप का दावा है कि उस वक़्त कल्याण सिंह बड़ी शिद्दत के साथ राम मंदिर-बाबरी मसजिद विवाद का शांतिपूर्ण हल निकालने में जुटे हुए थे और बाबरी मसजिद का विध्वंस दूर-दूर तक उनके दिमाग़ में नहीं था। अनिल स्वरूप की किताब का विमोचन शनिवार को दिल्ली में हुआ।

अनिल स्वरूप लिखते हैं, 'कल्याण सिंह अयोध्या में एक भव्य मंदिर चाहते थे और सर्वानुमति बनाकर शांतिपूर्ण ढंग से समस्या का हल निकालने की कोशिश कर रहे थे। वह इस मसले पर दक्षिणपंथी धार्मिक संगठनों की आक्रामकता के पूरी तरह ख़िलाफ़ थे।'

स्वरूप 6 दिसंबर की घटना के समय कल्याण सिंह के साथ थे। उन्होंने लिखा, 'कल्याण सिंह वैसे तो बहुत शांत और विश्वास से भरे रहते थे लेकिन उस दिन वह परेशान दिख रहे थे। जिस कमरे में वह मेहमानों से मिलते थे, वहाँ वह अकेले बैठे थे। जब मैं उस कमरे में घुसा तो वह टेलीफ़ोन पर किसी से बात कर रहे थे। हालाँकि अयोध्या में पिछली बार जब कारसेवकों की भीड़ जमा हुई थी तब वहाँ कोई हादसा नहीं हुआ था, फिर भी वह भीड़ के इकट्ठा होने के ख़िलाफ़ थे'।

पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह। फ़ाइल फ़ोटो

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स्वरूप के मुताबिक़, मसजिद के ढहाए जाने के बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत से टेलीफ़ोन पर बातचीत में कल्याण सिंह ने पार्टी नेतृत्व के ख़िलाफ़ अपने ग़ुस्से का इज़हार भी किया था। उन्होंने कहा था कि वह भीड़ के इकट्ठा होने के खिलाफ़ थे लेकिन उनकी आपत्तियों को दरकिनार कर दिया गया और किसी ने उनकी नहीं सुनी, अंत में उन्होंने कहा था जो कुछ भी हुआ है, वह उसकी ज़िम्मेदारी लेंगे और फ़ौरन अपने पद से इस्तीफ़ा दे देंगे। स्वरूप आगे लिखते हैं,  'फिर उन्होंने मुझसे कागज मँगवाया और गवर्नर के नाम अपना संक्षिप्त इस्तीफ़ा लिखा। (बाद में मुझे पता चला कि उन्होंने औपचारिक रूप से टाइप करके अपना इस्तीफ़ा भेजा था)। इस चिट्ठी में लिखा था कि जो कुछ भी हुआ है उसके लिए कोई और ज़िम्मेदार नहीं है। आज के समय में यह यक़ीन करना मुश्किल है कि ऐसे राजनेता भी हैं जिनमें ज़िम्मेदारी लेने का साहस था।

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बाबरी मसजिद ढहाए जाने के समय कल्याण सिंह की गणना बीजेपी के सबसे बड़े नेताओं में होती थी। यह भी कहा जाता था कि उनका क़द उस वक़्त वाजपेयी और आडवाणी के बराबर था। कल्याण सिंह लोध जाति के हैं और उत्तर भारत में पिछड़ों के काफ़ी बड़े नेता माने जाते रहे हैं।

सोशल इंजीनियरिंग से निकले थे कल्याण सिंह

1992 में जब बाबरी मसजिद का ध्वंस हुआ, लगभग उसी दौर में पार्टी के संगठन मंत्री के. गोविंदाचार्य बीजेपी में सोशल इंजीनियरिंग कर रहे थे और पार्टी संगठन में पिछडे़ तबक़े को बड़े पैमाने पर ऊपर लाने की कोशिश में लगे थे। गोविंदाचार्य का मानना था कि हिंदू समाज में आधी से ज़्यादा आबादी पिछड़ों, दलितों की है, ऐसे में पार्टी को अगर सही मायने में अखिल भारतीय पार्टी बनना है तो उसे पिछड़ों, दलितों को बड़ी ज़िम्मेदारियाँ देनी पड़ेंगी और इस समाज के नेताओं को राष्ट्रीय भूमिका देनी होगी। कल्याण सिंह इसी सोशल इंजीनियरिंग की उपज माने जाते हैं।

कल्याण सिंह ने बाद में बीजेपी छोड़ अपनी नई पार्टी भी बनाई थी और बाक़ायदा प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर कहा था कि वह अटल बिहारी वाजपेयी का मुखौटा नोच कर बीजेपी को दो फ़ुट नीचे ज़मीन में गाड़ देंगे। बीजेपी छोड़ने के बाद कल्याण सिंह ज़्यादा कुछ नहीं कर पाए और कुछ सालों के बाद उन्हें वापस बीजेपी में आना पड़ा। तब तक उनका जलवा ख़त्म हो चुका था और बाद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें राजस्थान का गवर्नर बना दिया।