नाबार्ड ने अपना सर्वे दो साल बाद या काफी हद तक कोरोना खत्म होने के बाद किया। नाबार्ड सर्वे सितंबर 2022 से शुरू होकर दस महीनों में किया गया। तब तक लॉकडाउन खत्म हो चुका था। लेकिन इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि भारत में कोविड महामारी आने से बहुत पहले ही औद्योगिकीकरण की रफ्तार धीमी हो गई थी।
मोदी भक्त अभी भी नहीं मानेंगे। तो उनके लिए यह आंकड़ा है। 2023-24 में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में वर्कफोर्स गिरकर 11% रह गई। यानी गांवों से आने वाले रुक गये, क्योंकि उनके लिए मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की चेन रोजगार पैदा नहीं कर रहा था। 'मेक इन इंडिया', 'आत्मनिर्भर भारत' और अमृत काल जैसे नारे ढकोसले या दिल को बहलाने के लिए काफी हैं। वास्तविकता से कोसों दूर। मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर ही देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार बताता है। उसकी एक चेन है, जिसमें हर स्तर पर छोटे से लेकर बड़े पदों तक रोजगार पैदा होते हैं।
अब आप दूसरी स्थिति पर नजर डालें। मोदी सरकार लगातार चुनाव प्रचार के मोड में रहती है। वो राजनीतिक फंडिंग की भूख के जाल में फंस गई है। यह साफ है कि मोदी बड़े कारोबारियों के खुले समर्थन से सत्ता में आए, और बड़े कारोबारी अब अपना हिस्सा प्राप्त कर ररे हैं। उसने छोटे और मझोले उद्योगों की तरफ से आंखें बंद कर लीं। ईडी, सीबीआई और आयकर जैसी एजेंसियों का डर छोटे उद्योगपतियों के लिए भी खड़ा किया गया। बड़े कारोबारियों ने एकाधिकार वाले बिजनेस शुरू कर दिये, यानी दूसरों के लिए फलने-फूलने के मौके बंद कर दिये गये। इसका सबसे बड़ा उदाहरण देश के एयरपोर्ट हैं। अधिकांश पर एक ही कारोबारी ग्रुप का कब्जा है। विदेश से आने वाली कंपनियों को यहां के दो बड़े कारोबारियों के जरिये काम करने पर ही तमाम सुविधायें दी गईं। कई कंपनियों को भारत छोड़ना पड़ा। यह स्थिति किसी भी अर्थव्यवस्था के लिये अच्छी नहीं होती जब मोनोपली (एकाधिकार) बिजनेस को बढ़ावा दिया जाता हो।