17 नवंबर 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंडियन एक्सप्रेस के मंच पर आए। मंच उस अखबारों के मालिक के नाम पर था जिसने सत्ता से टकराने को पत्रकारिता का धर्म माना। लेकिन भाषण ऐसा था जैसे कोई विजयी राजा दरबार में अपनी जयगाथा सुना रहा हो। अगर गोयनका आज जीवित होते, तो शायद आधा भाषण काट देते—प्रचार कहकर।
मोदी ने गोयनका को निष्पक्ष राष्ट्रवादी बताया—कांग्रेस समर्थक, जनसंघ उम्मीदवार, देश सर्वोपरि। लेकिन गोयनका की असली पहचान थी सत्ता से असहमति। उन्होंने हर सरकार से सवाल पूछे, खासकर उस विचारधारा से जुड़ी सरकार से, जिससे मोदी आते हैं।
1975 में इंडियन एक्सप्रेस ने इमरजेंसी के विरोध में संपादकीय पेज खाली छोड़ा। 2002 के दंगों के बाद मोदी पर लगातार सवाल उठाए। आज जब पत्रकारों पर ट्वीट के लिए UAPA लग रहा है, तब गोयनका का नाम लेना वैसा ही है जैसे भगत सिंह के नाम पर राजद्रोह कानून का बचाव करना।
फिर आया आर्थिक चमत्कार का दावा। मोदी बोले—भारत अब उभरता बाजार नहीं, उभरता मॉडल है। बोले—7% की ग्रोथ है, दुनिया संकट में है और हम आगे बढ़ रहे हैं।
आंकड़े सही हो सकते हैं, लेकिन तस्वीर अधूरी है। 2017 से 2024 के बीच जो संपत्ति बनी, उसका 73% हिस्सा सिर्फ 1% अमीरों के पास गया (ऑक्सफैम)। युवा बेरोजगारी 23% से ऊपर है (CMIE)। जब हरियाणा और बिहार में नौजवान ट्रेनें जला रहे हैं, तब इसे “आशा का मॉडल” कहना भ्रम फैलाना है।
गरीबी से 25 करोड़ लोगों के बाहर आने का दावा नीति आयोग के उस इंडेक्स पर टिका है जिसमें मोबाइल और बाइक होने पर परिवार को “ग़रीब नहीं” माना जाता। लेकिन अगर उसी घर में साफ पानी नहीं है, बच्चे कुपोषित हैं, तो यह आंकड़ा किस काम का? वर्ल्ड बैंक के अनुसार अब भी 10-12% लोग अत्यधिक गरीबी में हैं। कोविड के बाद हालात और बिगड़े हैं।मेरा मानना है कि ग़रीबी की रेखा के नीचे वे सभी लोग हैं जिन्हें सरकार मुफ्त राशन देती है! यानी कम से कम बयासी करोड़ भारतीय !
योजनाओं की सूची लंबी थी—12 करोड़ शौचालय, 57 करोड़ जनधन खाते, 4 करोड़ पक्के घर, 94 करोड़ को सामाजिक सुरक्षा। लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और है:
- - आधे शौचालयों में पानी नहीं, लोग उन्हें स्टोर रूम बना चुके हैं (CAG रिपोर्ट 2024)
- - 23% जनधन खाते खाली हैं, कोई लेन-देन नहीं (RBI, सितंबर 2025)
- - ग्रामीण आवास योजना में कई बार उन्हीं को घर मिला जिनके पास पहले से पक्का घर था
- - आयुष्मान भारत कार्ड तो बांटे गए, लेकिन 40% अस्पतालों ने योजना से हाथ खींच लिया क्योंकि भुगतान नहीं हुआ
योजनाओं का “सैचुरेशन” असल में दबाव बनाकर लक्ष्य पूरे करने की कोशिश है। बैंक खाता नहीं खुलवाया तो राशन बंद। शौचालय नहीं बनवाया तो बिजली काट दी। यह सशक्तिकरण नहीं, यह मजबूरी है।
बिहार की बात आई। कहा गया कि रिकॉर्ड मतदान हुआ, महिलाएं पुरुषों से ज्यादा वोट डालने आईं, विकास की जीत हुई। मतदान सच है, बाकी बातें नहीं।
तमाम सरकारी अड़गों के बावजूद महागठबंधन ने कई जिलों में वोट प्रतिशत बढ़ाया। NDA की जीत सीटों के बंटवारे और नीतीश कुमार की पलटी से हुई। 15 साल पहले हारी RJD सरकार को “जंगल राज” कहना अब सिर्फ डर फैलाना है। और जब खुद की सरकार गुजरात को नंबर 1 और बिहार को 26वां बताती है, तो “ईज ऑफ डूइंग बिजनेस” की बात खोखली लगती है।
सबसे खतरनाक बात तब आई जब मोदी ने कांग्रेस को “मुस्लिम लीग–माओवादी कांग्रेस” कहा। बिना सबूत, बिना नाम, बस एक इशारा कि विपक्ष देशद्रोही है। यह वही तरीका है जो इंदिरा गांधी ने अपनाया था, जिसके खिलाफ गोयनका लड़े थे। आज वही तरीका फिर लौट आया है, बस निशाना बदल गया है।
अंत में मोदी ने कहा कि 2035 तक भारत को “गुलामी की मानसिकता” से मुक्त करना है। उन्होंने मैकाले का एक पुराना बयान दोहराया जिसमें कहा गया था कि अंग्रेज भारतीयों को ऐसा बनाना चाहते थे जो रंग से भारतीय हों लेकिन सोच से अंग्रेज। लेकिन यह बयान मैकाले की किसी भी लिखित दस्तावेज में नहीं है। यह 1930 के दशक में कुछ हिंदू राष्ट्रवादी लेखकों ने गढ़ा था। जब देश का प्रधानमंत्री मंच से झूठा इतिहास सुनाता है, तो यह सिर्फ शिक्षा नीति का मामला नहीं रह जाता—यह लोकतंत्र की सेहत का सवाल बन जाता है।
मोदी कहते हैं कि हमें मैकाले से आज़ादी चाहिए। शुरुआत भाषणों को झूठ से आज़ाद करने से होनी चाहिए।
भारत आज एक बड़ा, शोरगुल वाला, ग़ैर बराबरी का लोकतंत्र है। कुछ चीजें सही हुई हैं, बहुत कुछ गलत भी। विकास हो रहा है, लेकिन एकतरफा है। योजनाएं पहुंचती हैं, लेकिन आखिरी छोर पर टूट जाती हैं। नक्सलवाद कम हुआ है, लेकिन उसकी जगह राज्य की हिंसा नहीं ले सकती। चुनाव होते हैं, लेकिन अब पैसा और मीडिया तय करते हैं कि कौन जीतेगा। हमें और नारे नहीं चाहिए—विकसित भारत, आत्मनिर्भरता, अमृतकाल। हमें चाहिए ईमानदार मूल्यांकन, स्वतंत्र संस्थाएं और ऐसे नेता जो गलती मान सकें, बिना 1835 के भूतों को दोष दिए।
रामनाथ गोयनका की विरासत अंधराष्ट्रवाद नहीं थी। वह सच्चाई से टकराने की हिम्मत थी। अगर मोदी सच में उस विरासत को सम्मान देना चाहते हैं, तो उन्हें आलोचना को देशद्रोह मानना बंद करना होगा। आंकड़ों की हेराफेरी बंद करनी होगी। गरीबों की आड़ में अमीरों को बचाना बंद करना होगा। इतिहास को सत्ता की ढाल बनाना बंद करना होगा।
भारत अधीर है। लेकिन हमें एक और भाषण नहीं चाहिए जिसमें आधे सच हों और तालियों की गूंज। हमें चाहिए एक सरकार जो 140 करोड़ लोगों के लिए काम करे, सिर्फ कैमरे और करीबी लोगों के लिए नहीं। हमें चाहिए राजनीति जो जोड़ती हो, तोड़ती नहीं। और हमें चाहिए नेता जो रामनाथ गोयनका के नाम वाले मंच पर खड़े होकर वयस्कों की तरह बोलें—बिना मिथक, बिना डर, बिना अंतहीन आत्मप्रशंसा।
17 नवंबर को भारत को यही भाषण चाहिए था।
हमें नहीं मिला!