नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्रिब्यूनल यानी एनसीएलएटी के चेन्नई बेंच के न्यायिक सदस्य जस्टिस शरद कुमार शर्मा ने एक मामले की सुनवाई से खुद को इसलिए अलग कर लिया है कि उनके एक फ़ैसले को कथित तौर पर प्रभावित करने की कोशिश की गई। उन्होंने खुलासा किया कि एक उच्च न्यायपालिका के अत्यंत सम्मानित सदस्य ने उनसे एक पक्षकार के पक्ष में फ़ैसला देने के लिए संपर्क किया था। 

यह मामला एक अपील से जुड़ा है जो 2023 में दायर की गई थी और इसमें हैदराबाद की एक कंपनी के ख़िलाफ़ कॉर्पोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया यानी सीआईआरपी को मंजूर करने के आदेश को चुनौती दी गई थी। यह अपील एनसीएलएटी की चेन्नई बेंच में जस्टिस शरद कुमार शर्मा और तकनीकी सदस्य जतिंद्रनाथ स्वैन की दो सदस्यीय पीठ के सामने आई थी। लेकिन इस मामले में अब सुनवाई से ठीक पहले जस्टिस शर्मा ने एक चौंकाने वाला खुलासा किया।
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जस्टिस शर्मा ने खुले कोर्ट में घोषणा की कि उन्हें एक 'उच्च न्यायपालिका के अत्यंत सम्मानित सदस्य' द्वारा संपर्क किया गया था, जो एक पक्षकार के पक्ष में फ़ैसला देने की मांग कर रहे थे। बार एंड बेंच ने सूत्रों के हवाले से रिपोर्ट दी है कि जस्टिस शर्मा ने कोर्ट में मौजूद वकीलों को अपने मोबाइल फ़ोन पर प्राप्त एक संदेश को दिखाया। हालाँकि, संदेश की सामग्री को सार्वजनिक नहीं किया गया। इस खुलासे के बाद जस्टिस शर्मा ने मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया और इसे एनसीएलएटी के अध्यक्ष के सामने एक नई पीठ के गठन के लिए भेजने का निर्देश दिया।

न्यायिक निष्पक्षता पर सवाल

जस्टिस शर्मा का यह कदम न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दिखाता है। उन्होंने कोर्ट में अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि इस तरह के दबाव न्यायिक प्रक्रिया को कमजोर करते हैं। यह पहली बार नहीं है जब जस्टिस शर्मा ने इस तरह का कदम उठाया हो। इससे पहले, नवंबर 2024 में उन्होंने जेप्पियार सीमेंट्स से संबंधित एक अन्य मामले से खुद को अलग कर लिया था, जब उनके भाई ने उनसे मामले में सलाह मांगी थी। उस समय, जस्टिस शर्मा ने अपने भाई के व्हाट्सएप संदेश को आदेश में शब्दशः शामिल किया था, जिसमें लिखा था, 'भाई, मैं जो कागज भेज रहा हूं, उसमें क्या हो सकता है, इसके होने की संभावना क्या है, कृपया उचित सलाह देने की कोशिश करें। यह आपके ही कोर्ट का मामला है।'

जस्टिस शर्मा ने जुलाई 2024 में बायजू के संस्थापक बायजू रविंद्रन की याचिका की सुनवाई से भी खुद को अलग कर लिया था, क्योंकि उन्होंने पहले भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई के लिए वकील के रूप में काम किया था, जो उस मामले में मुख्य लाभार्थी था।

बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार 11 जून को श्री रामलिंगा मिल्स और संबंधित कंपनियों से जुड़े विवादों से संबंधित कई अपीलों की सुनवाई करते हुए जस्टिस शर्मा ने पाया कि एक प्रतिवादी ने अपने पक्ष में निर्णय के लिए उनसे संपर्क करने का प्रयास किया था। उस मामले में भी उन्होंने खुद को सुनवाई से अलग कर लिया और निर्देश दिया कि केस को दूसरी पीठ के पास भेजने के लिए अध्यक्ष के समक्ष रखा जाए।

बार-बार दबाव की शिकायत

जस्टिस शर्मा ने पहले भी एनसीएलएटी में पक्षकारों द्वारा जजों से संपर्क करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता जताई थी। जून 2024 में एक अन्य मामले में उन्होंने कहा था कि यह एनसीएलएटी में एक नियमित प्रथा बन गई है कि पक्षकार जजों से संपर्क करते हैं। उन्होंने यह भी टिप्पणी की थी कि अगर वह हाई कोर्ट में होते तो संबंधित व्यक्ति को जेल भेज देते। उन्होंने यह भी कहा था कि पक्षकार आमतौर पर अपने वकीलों की सहमति के बिना जजों से संपर्क नहीं करते, और इस तरह की प्रथाओं से जनता में यह धारणा नहीं बननी चाहिए कि जजों तक पहुंचा जा सकता है।
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न्यायिक सुधारों की ज़रूरत

यह घटना भारतीय न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही की ज़रूरत को दिखाती है। सुप्रीम कोर्ट ने 2015 के नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन यानी एनजेएसी मामले में हितों के टकराव से बचने और न्यायपालिका की विश्वसनीयता बनाए रखने के महत्व पर जोर दिया था। उस मामले में पांच जजों की संविधान पीठ का हिस्सा रहे जस्टिस कुरियन जोसेफ ने अपने अलग फ़ैसले में कहा था कि जजों के लिए यह ज़रूरी है कि वे अपने रिक्यूजल के कारणों को सार्वजनिक करें, ताकि जवाबदेही और पारदर्शिता बनी रहे।

आगे की प्रक्रिया

जस्टिस शर्मा के रिक्यूजल के बाद यह मामला अब एनसीएलएटी के अध्यक्ष के पास भेजा जाएगा। इस घटना ने क़ानूनी समुदाय में एक बहस छेड़ दी है कि क्या ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सख्त दिशानिर्देश और दंडात्मक उपायों की ज़रूरत है।
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यह मामला न केवल न्यायिक प्रक्रिया में बाहरी प्रभाव को रोकने की चुनौती को उजागर करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि जजों की ओर से पारदर्शिता और नैतिकता बनाए रखने के लिए निर्णायक कदम उठाए जा सकते हैं। जस्टिस शर्मा का यह क़दम एक मिसाल कायम करता है कि न्यायिक स्वतंत्रता और निष्पक्षता को किसी भी क़ीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए। इस घटना के बाद यह उम्मीद की जा रही है कि न्यायिक प्रणाली में सुधारों और जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिए और कदम उठाए जाएंगे।