Presidential Reference Judgement: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को स्वीकृति देने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती। लेकिन राज्यपाल लंबे समय तक विधेयकों को रोक नहीं सकते। ऐसे मामलों की समीक्षा हो सकती है।
राज्यपालों के पास संवैधानिक रूप से स्वीकृत केवल तीन विकल्प हैं: स्वीकृति, विधेयक को विधानसभा में वापस भेजना या इसे राष्ट्रपति के पास भेजना। वे विधायी प्रक्रिया को "नाकाम" करने के लिए विधेयक को लंबे समय तक रोक कर नहीं रख सकते।
सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणी, 20 नवंबर 2025
प्रेसिडेंशियल रिफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को राष्ट्रपति संवैधानिक संदर्भ पर अपना फैसला सुनाया। अदालत ने कहा कि राज्यपाल लंबे समय तक विधेयकों को रोककर बैठ नहीं सकते। लेकिन इसकी समय सीमा भी तय नहीं की जा सकती। अगर राज्यपाल लंबे समय तक बिलों को रोकते हैं तो चुनिंदा मामलों की समीक्षा हो सकती है। अदालत ने विधेयकों पर सहमति देने के लिए समयसीमा तय करने को असंवैधानिक करार दिया गया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि 'सहमति की अनुमति' (deemed assent) की कोई अवधारणा संविधान में मौजूद नहीं है। क्योंकि यह राज्यपालों की पावर पर कब्जा करने जैसा होगा। यह फैसला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा मई 2025 में संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत दायर संदर्भ पर आधारित है, जो तमिलनाडु राज्यपाल मामले से सामने आया था।
यहां बताना ज़रूरी है कि गैर बीजेपी शासित राज्यों में राज्यपाल अक्सर वहां की सरकारों के विधेयक रोक लेते हैं। कुछ विधेयक राष्ट्रपति ने भी रोके। केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल में विपक्ष की सरकार को विधेयक पास कराने के लिए आवाज़ उठानी पड़ी। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि राज्यपाल विधेयक को लंबे समय तक रोक नहीं सकते। लेकिन अगर कोई राज्यपाल ऐसा करते हैं तो उसकी समीक्षा हो सकती है।
लाइव लॉ के मुताबिक चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ, जिसमें जस्टिस सूर्य कांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंदूरकर शामिल थे, ने 10 दिनों की सुनवाई के बाद 11 सितंबर को फैसला सुरक्षित रखा था। बेंच ने कहा, "समय सीमाओं का निर्धारण इन प्रावधानों के सख्त खिलाफ है।" कोर्ट ने जोर दिया कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल तक लंबित नहीं रख सकते, लेकिन न्यायिक हस्तक्षेप केवल लंबे और अस्पष्ट विलंब के मामलों में सीमित निर्देशों तक सीमित रहेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को फैसला सुनाते हुए संविधान के अनुच्छेद 200/201 का हवाला दिया। यह संदर्भ तमिलनाडु में राज्यपाल और विधानसभा के बीच विधेयकों पर विवाद से पैदा हुआ। क्योंकि दो सदस्यीय बेंच ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए बिल पास करने की समयसीमाएं तय की थीं। राष्ट्रपति ने 14 सवालों पर सुप्रीम कोर्ट से स्पष्टीकरण मांगा था, जिनमें प्रमुख थे:
- अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के विकल्प: सहमति देना, सहमति रोकना (विधानसभा को वापस भेजना), या राष्ट्रपति के पास आरक्षित करना।
- क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं?
- राज्यपाल/राष्ट्रपति के विवेक का सवाल।
- सहमति के लिए समयसीमाएं लगाना संभव है या नहीं?
- 'अनुमित सहमति' का सिद्धांत क्या है?
सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरामणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने समयसीमा और 'डीम्ड असेन्ट' का विरोध किया था। इसे राज्यपाल के पावर का उल्लंघन बताया था। वहीं, कपिल सिब्बल, डॉ. एएम सिंहवी, केके वेणुगोपाल, गोपाल सुब्रमण्यम और अरविंद पी दतर जैसे वकीलों ने समय सीमा का समर्थन किया। तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल और पंजाब जैसे राज्यों ने संदर्भ को बनाए रखने की योग्यता पर सवाल उठाए। यानी वे राज्यपालों के बिलों को लटका कर रखने के फैसले के खिलाफ थे।
राष्ट्रपति संदर्भ को अदालत ने किस नज़रिए से देखा
बेंच ने संयुक्त रूप से कई सवालों का उत्तर देते हुए कहा कि अनुच्छेद 200 और 201 में समयसीमाएं लगाना संविधान की भावना के विरुद्ध है। राज्यपाल सहमति नहीं देते हैं तो विधेयक को विधानसभा को लौटाना ज़रूरी होगा, अन्यथा संघीय ढांचा कमजोर होगा। कोर्ट ने चेतावनी दी, " 'अनुमित सहमति' की अवधारणा राज्यपाल की शक्तियों का लगभग अधिग्रहण है।" यानी अगर विधानसभा कोई विधेयक गवर्नर के पास भेजती है तो उसे लौटाना अनिवार्य है। उसे रोककर बैठना सही नहीं है। लेकिन इसके लिए समय सीमा भी तय नहीं की जा सकती है। फिर भी अगर कोई राज्यपाल किसी विधेयक को लंबे समय तक रोककर बैठता है तो उसकी समीक्षा हो सकती है।
यह फैसला पावर को अलग-अलग रखने को मजबूत करता है। विधायी प्रक्रिया को लकवा न मार जाए, उसमें न्यायिक हस्तक्षेप का दरवाजा खुला रहेगा। राज्यों को राज्यपालों के विवेक पर स्पष्ट तौर पर बढ़त मिली हुई है, लेकिन इसके बावजूद राज्यपाल बिलों में देरी करते हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को साफ कर दिया कि अगर राज्यपाल लंबे समय तक बिलों को रोकते हैं तो इससे जुड़े सिर्फ चुनिंदा मामलों में ही वो दखल देगा। यह फैसला केंद्रीय ढांचे को संतुलित रखते हुए चुनी हुई सरकारों को मजबूत बनाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "राज्यपालों और राष्ट्रपति की शक्तियों पर प्रतिबंध संविधान की भावना और मूल ढांचे के सिद्धांत के विपरीत है।" कोर्ट ने "मान्य सहमति" के तर्कों को भी खारिज कर दिया और चेतावनी दी कि ऐसा फैसला कार्यकारी कार्यों का न्यायिक अधिग्रहण होगा। पीठ ने आगे कहा, "किसी विधेयक को न्यायालय द्वारा मान्य सहमति प्रदान करने वाला फैसला संवैधानिक कार्यों का वस्तुतः अधिग्रहण है।"
फैसला सुनाने के बाद, चीफ जस्टिस गवई ने कहा कि फैसला आमराय से लिया गया था, और कहा कि पाँच जजों की पीठ "एक स्वर में बोलना चाहती थी।" उन्होंने कहा, "मुझे अपने सभी साथी जजों मनोनीत सीजेआई सूर्यकांत और जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर को इस सर्वसम्मत राय को तैयार करने में उनके सामूहिक प्रयासों के लिए धन्यवाद देना चाहिए।"
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, जिन्होंने राष्ट्रपति के संदर्भ का विरोध किया था, दोनों ने भी फैसले की प्रशंसा की। मेहता ने कहा, "राष्ट्रपति और केंद्र सरकार की ओर से, मैं इस ज्ञानवर्धक फैसले के लिए आभार व्यक्त करता हूँ।" सिब्बल ने इसे "एक बहुत ही सतर्क और विचारशील निर्णय" कहा।