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RSS का मुखपत्र ऑर्गनाइजर क्यों अडानी के साथ ? 

आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में ‘डिकोडिंग द हिट जॉब बाइ हिंडनबर्ग अगेंस्ट अडानी ग्रुप’ शीर्षक से छपे लेख में बताया गया है कि कैसे यह एक विदेशी साज़िश है जिसका मक़सद देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करना है। लेख मे भारत के तमाम स्वतंत्र पत्रकारों और वेबसाइटों का उल्लेख किया गया है जो लेख के मुताबिक विदेशी फंडिंग लेकर अडानी की छवि खराब करने मे तब से जुटे हैं जब अडानी ने आस्ट्रेलिया में कोयला खदान खरीदी थी। इन पत्रकारों पर वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होने का आरोप लगाते हुए उन्हें  डिजिटल शार्पर्शूटर बताया गया है। ऐसी तमाम वेबसाइटों को जो आज भी निर्भय होकर मोदी सरकार के कारनामों पर क़लम चलाती हैं, ‘देश विरोधी कार्टेल’ का हिस्सा बताया गया है। अंत में लेख ये भी बताता है कि यह सब ‘2024 के चुनाव को ध्यान में रखकर’ हो रहा है। यानी अडानी पर हमला मोदी पर हमला है।

हैरानी की बात ये है कि खुद को सांस्कृतिक संगठन बताने वाले आरएसएस के इस मुखपत्र को लूट की इस संस्कृति से कोई शिकायत नहीं है जो हिंडनबर्ग रिसर्च से सामने आई है। भारत के आम निवेशकों की भावनाओं से खिलवाड़ करना, उन्हें धोखा देना, शेयरों की वास्तविक क़ीमत के साथ हेराफेरी करने जैसे आरोप उसके लिए कोई मायने नहीं रखते। न उसकी चिंता में ये बात कहीं से नज़र आती है कि अडानी पर लगे आरोपों से अंतरराष्ट्रीय जगत भारतीय अर्थव्यवस्था और इसकी नियामक संस्थाओं को लेकर गहरे संदेह से भर उठा है जिसे दूर करने के लिए एक उच्चस्तरीय जाँच की ज़रूरत है। उल्टा लेख में यह सवाल उठाया गया है कि दूसरे तमाम उद्योगपतियों को छोड़कर अडानी को ही निशाना क्यों बनाया गया?

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ऑर्गनाइजर यह भूल जाता है कि ‘अमेरिकी’ हिंडनबर्ग ने जिन दस बड़ी कंपनियों की गड़बड़ियों के बारे मे रिपोर्ट जारी की है उनमें 8 अमेरिका की ही हैं।  2020 में इलेक्ट्रिक ट्रक बनाने वाली अमेरिकी कपंनी निकोला मे जारी हेराफेरी पर उसकी रिपोर्ट के बाद उसके मालिक पर अमेरिका के सिक्योरिटी एंड एक्सचेंज कमशीन ने आपराधिक फ्रॉड का मुकदमा चलाया था और उसे एक हज़ार करोड़ रुपये का जुर्माना देना पड़ा था।

अर्थजगत में घपले-घोटालों की कहानी कोई नई बात नहीं है। नई बात ये है कि नियामक संस्थाओं और सरकार का चुप्पी साध लेना। आज़ाद भारत में पहले वित्तीय घोटाले के रूप में दर्ज ‘मूँदड़ा कांड’ को किसी और ने नहीं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के दामाद फ़ीरोज़ गाँधी ने ही संसद में उठाया था जिसकी बाक़ायदा सार्वजनिक सुनवाई हुई थी। बाम्बे उच्च न्यायालय रिटायर्ड जज एम.सी.छागला ने ये सुनवाई की थी और नतीजे में वित्तमंत्री टीटी कृष्णामचारी को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। उस समय भी नवगठित एलआईसी के संचालकों पर कारोबारी हरिदास मूँदड़ा की कंपनी को फायदा पहुँचाने के लिए उसके शेयरों में पैसा लगाने का आरोप था। इसके बाद भी जब-जब घपलों के आरोप लगे, नियामक संस्थाओं या रिटायर्ड जजों ने जाँच की। 
यूपीए शासन के दौरान जब घोटालों के आरोप लगे तो तमाम उच्चस्तरीय जाँच हुई और मंत्रियों के इस्तीफ़े ही नहीं जेल तक जाना पड़ा। यह अलग बात है कि बाद में ज़्यादातर मामलों में खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाला हाल रहा। लेकिन लोकतंत्र चूँकि लोकलाज से चलता है, इसलिए आरोप लगने पर जाँच ज़रूरी हो जाती है।
अफ़सोस कि मोदी सरकार को लोकलाज से कोई लेना-देना नहीं है। सरकार ने हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर चुप्पी साध ली है। एक मंत्री की ओर से बस इतना कहा गया है कि अडानी ग्रुप के मामले से सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन यह बेमतलब का जवाब है। अब वित्त मंत्री का बयान है कि रेगुलेटर एजेंसीज अपना काम कर रही हैं और चिंता की कोई बात नहीं है।

देश में कॉरपोरेट गवर्नेंस ठीक रहे इसकी ज़िम्मेदारी पूरी तरह सरकार की है। हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट से शेयर बाज़ार में क़त्लेआम मच जाए, एक हफ़्ते में नौ लाख करोड़ ग़ायब हो जाएँ और सेबी देखती रहे, यह अभूतपूर्व है।

हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट में भारत में राजनीति और कॉरपोरेट लूट के अनैतिक गठबंधन को उजागर कर दिया है। मोदी सरकार की ओर से शुरू की गई इलेक्टोरल बान्ड की व्यवस्था ने इस लूटतंत्र पर क़ानूनी मोहर लगा दी है। देश में सैकड़ों राजनीतिक दल हैं लेकिन 2018 से 2022 के बीच इलेक्टोरल बांड से भाजपा को अकेले 9208 करोड़ रुपये (कुल का 57 फ़ीसदी प्राप्त हुआ)। चुनी हुई कॉरपोरेट कंपनियों को फायदा पहुँचाना और उनसे इलेक्टोरल बांड प्राप्त करने का यह सिस्टम नंगी आँख से दिखाई पड़ता है। 
चुनावों का लगातार महँगा होते जाना, विधायकों को ख़रीदने के लिए पचास करोड़ तक दिया जाने, सरकारे बनाना-गिराना, सब इसी का नतीजा है। यह संदेह होना स्वाभाविक है कि क्या मोदी ने अडानी को अपने एटीएम की तरह तैयार किया है जिसमें पैसा भरते रहो और जब चाहे निकाल लो? इस सवाल का जवाब मिलना चाहिये कि अडानी की तरक्की की छलाँग का मोदी की राजनीतिक सफलता की यात्रा से क्या सीधा संबंध है ?
ऐसा नहीं है कि हिंडनबर्ग रिसर्च के पहले इस लूट पर सवाल नहीं उठे। राहुल गाँधी कई सालों से अडानी का नाम लेकर तमाम संसाधनों को इसी ग्रुप पर लुटाने की नीति पर सवाल उठा रहे हैं। लेकिन किसी ज़माने में ऐसे आरोप जो असर पैदा करते थे वह इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि इस पर हल्ला मचाने वाला मीडिया ग़ायब है। मीडिया विपक्ष के परिसर का एक महत्वपूर्ण अंग है जो सरकार पर नज़र रखने के साथ-साथ उस  पर लगे आरोपों को पूरी ताक़त से जनता के सामने रखने की जिम्मेदारी से बँधा है। मोदी सरकार ने मीडिया के इस रुख को अपना सबसे बड़ा रोड़ा मानते हुए एक संस्था बतौर उसे नष्ट कर दिया। जो कथित मुख्यधारा से बाहर स्वतंत्र ढंग से कुछ प्रयास कर रहे हैं वे आरएसएस की नज़र में विदेशी साज़िश का हिस्सा हैं जैसा कि ऑर्गनाइजर के लेख में छपा है।

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हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने जो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो माहौल बनाया है उस पर चुप रहना अब अपराध होगा। यह देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर सकता है। विपक्ष की ओर से जेपीसी से जाँच की माँग की जा रही है, लेकिन सरकार कान में तेल डाले बैठी है। वह संसद में भी बहस के लिए तैयार नहीं है। कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस मसले पर 6 फरवरी को राष्ट्रव्यापी विरोधप्रदर्शन का ऐलान किया है। बाक़ी विपक्ष को इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए इस लूटतंत्र का पर्दफाश करने के लिए अभियान चलाना चाहिए। जनता को यह बात समझानी बहुत ज़रूरी है कि तिरंगा ओढ़कर की जाने वाली लूट कम घातक नहीं होती।  

मत भूलिए कि अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम का एक सिरा ‘अडानी एंड’ कहलाता है, और ये नामकरण यूँ ही नहीं है।(लेखक कांग्रेस से जुड़े है)

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क़मर वहीद नक़वी
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