आपराधिक मानहानि को क्या अनावश्यक परेशान करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है? क्या आपराधिक मानहानि को अपराध की श्रेणी में रखना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असर डालता है? सुप्रीम कोर्ट ने क्यों कहा कि अब इसे खत्म करने का समय आ गया है?
जिस 'आपराधिक मानहानि' के तहत मुक़दमे राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं पर लादकर 'परेशान' किया जाता रहा है, क्या वह अब ऐसा परेशान करने वाला नहीं रह जाएगा? कम से कम सुप्रीम कोर्ट ने तो यही संकेत दिया है। अदालत ने कहा है कि आपराधिक मानहानि को अब अपराध की श्रेणी से हटाने का समय आ गया है। यानी यदि इसे अपराध की श्रेणी से हटाया जाता है तो फिर यह मामला इतना संगीन नहीं रह जाएगा और फिर दो साल की सजा का प्रावधान भी नहीं रहेगा। ऐसे में मानहानि के मामले को लेकर राहुल गांधी जैसे नेताओं को सांसदी या विधायकी से अयोग्य होने का ख़तरा भी नहीं रहेगा।
आपराधिक मानहानि को अपराध की श्रेणी से हटाने वाली यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एम.एम. सुंदरेश ने एक न्यूज़ रिपोर्ट को लेकर दायर आपराधिक मानहानि के एक मामले में दी। यह वह मामला है जिसमें न्यूज पोर्टल ‘द वायर’ और इसके पत्रकार अजॉय आशीर्वाद महाप्रशास्ता के खिलाफ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पूर्व प्रोफेसर अमिता सिंह ने मानहानि का मुकदमा दायर किया था। यह मामला 2016 में प्रकाशित एक लेख से जुड़ा है, जिसके बाद से यह विवाद कई अदालतों में चल रहा है।
क्या है पूरा विवाद?
पहली बार यह विवाद 2016 में शुरू हुआ, जब न्यूज पोर्टल ‘द वायर’ ने एक लेख प्रकाशित किया था। इसका शीर्षक था, “डोजियर में JNU को ‘संगठित सेक्स रैकेट का अड्डा’ बताया गया; छात्रों और प्रोफेसरों ने नफरत फैलाने का आरोप लगाया।” इस लेख में दावा किया गया था कि JNU की प्रोफेसर अमिता सिंह ने 200 पेज का एक डोजियर तैयार किया था, जिसमें विश्वविद्यालय को बदनाम करने की कोशिश की गई थी। डोजियर का शीर्षक था, “जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय: अलगाववाद और आतंकवाद का अड्डा।” इसमें JNU को न केवल अलगाववादी गतिविधियों का केंद्र बताया गया, बल्कि वहां की संस्कृति को भी अनैतिक कहा गया।
अमिता सिंह ने इस लेख को अपनी प्रतिष्ठा के लिए हानिकारक बताते हुए द वायर और पत्रकार अजॉय आशीर्वाद के खिलाफ 2016 में आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर किया। उनका कहना था कि लेख में ग़लत तरीक़े से उन्हें डोजियर का लेखक बताया गया और इसने उनकी छवि को नुक़सान पहुँचाया। इसके बाद दिल्ली की एक मजिस्ट्रेट कोर्ट ने 2017 में द वायर और इसके पत्रकार को समन जारी किया। हालाँकि, दिल्ली हाई कोर्ट ने 2023 में इस समन को रद्द कर दिया था। लेकिन 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फ़ैसले को पलट दिया और मामले को फिर से विचार के लिए भेजा। तब इसकी सुनवाई करने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एम.एम. सुंदरेश ही थे। जब दिल्ली हाई कोर्ट ने दोबारा समन को सही ठहराया तो इसके खिलाफ द वायर को चलाने वाले फाउंडेशन फोर इंडिपेंडेंट जर्नलिज्म ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने इस मामले की सुनवाई की। बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार सुनवाई के दौरान जस्टिस सुंदरेश ने कहा, 'मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि आपराधिक मानहानि अपराध की श्रेणी से हटा दिया जाए।' उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि यह मामला इतने लंबे समय तक क्यों चल रहा है? कोर्ट ने इस मामले में अमिता सिंह को नोटिस जारी किया।
द वायर की ओर से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने दलील दी कि ऐसे आपराधिक मानहानि के मामले स्वतंत्र अभिव्यक्ति को दबाने का काम करते हैं। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी के खिलाफ भी कई आपराधिक मानहानि के मामले चल रहे हैं और ये इस कानून के दुरुपयोग को दिखाते हैं।
आपराधिक मानहानि क्या है?
भारत में अभी आपराधिक मानहानि को भारतीय दंड संहिता आईपीसी की धारा 499 की जगह अब भारतीय न्याय संहिता बीएनएस की धारा 356 के तहत अपराध माना जाता है। इसके तहत यदि कोई व्यक्ति किसी की प्रतिष्ठा को नुक़सान पहुँचाने के इरादे से ग़लत या अपमानजनक बयान देता है, तो उसे दो साल तक की जेल या जुर्माना, या दोनों हो सकते हैं। भारत उन कुछ लोकतांत्रिक देशों में शामिल है, जहाँ मानहानि को आपराधिक अपराध माना जाता है, जबकि ज़्यादातर देशों में यह केवल सिविल मामला यानी नागरिक विवाद है, जिसमें मुआवजे की मांग की जा सकती है।
2016 में सुप्रीम कोर्ट ने सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत सरकार मामले में आपराधिक मानहानि के क़ानून को संवैधानिक रूप से वैध ठहराया था। कोर्ट ने कहा था कि प्रतिष्ठा की रक्षा करना संविधान के अनुच्छेद 21 यानी जीवन का अधिकार का हिस्सा है और यह कानून स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर 'उचित प्रतिबंध' है। लेकिन अब जस्टिस सुंदरेश की टिप्पणी इस फैसले पर नए सिरे से बहस शुरू करने का संकेत देती है।
विपक्ष और समर्थन में तर्क?
कई लोग मानते हैं कि आपराधिक मानहानि का कानून अक्सर दुरुपयोग किया जाता है। इसका इस्तेमाल पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और राजनीतिक विरोधियों को चुप कराने के लिए होता है। मिसाल के तौर पर वी.डी. सावरकर, भारत-चीन सीमा विवाद जैसे मुद्दों पर राहुल गांधी के बयानों को लेकर उनके खिलाफ कई मानहानि के मामले दर्ज किए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात पर नाराजगी जताई कि ऐसे मामले सालों तक चलते रहते हैं, जिससे लोगों को अनावश्यक परेशानी होती है।
आपराधिक मानहानि के समर्थकों का कहना है कि प्रतिष्ठा एक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है और आपराधिक मानहानि का कानून इसे बचाने में मदद करता है। सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में कहा था कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार असीमित नहीं है और इसे प्रतिष्ठा के अधिकार के साथ संतुलित करना जरूरी है। कुछ लोगों का मानना है कि अगर कोई जानबूझकर किसी की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाता है तो उसे सजा मिलनी चाहिए ताकि समाज में अनुशासन बना रहे।
क्या हो सकता है असर?
जस्टिस सुंदरेश की टिप्पणी से आपराधिक मानहानि को खत्म करने की बहस को नया बल मिला है। अगर सुप्रीम कोर्ट इस क़ानून को रद्द करने का फ़ैसला लेता है तो इसका असर काफ़ी बड़ा हो सकता है। पत्रकारों को बिना डर के खबरें छापने और लिखने की ज्यादा आजादी मिलेगी। राजनेताओं के खिलाफ बयानबाजी पर कम मुकदमे होंगे, जिससे राजनीतिक चर्चा को बढ़ावा मिल सकता है। कोर्ट में लंबित मानहानि के मामलों की संख्या कम हो सकती है, क्योंकि सिविल मुकदमों में जेल की सजा नहीं होती।