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सुप्रीम कोर्ट को क्यों कहना पड़ा, महिलाओं के प्रति मानसिकता बदले सरकार?

महिलाओं के प्रति सरकार का जिस तरह का नज़रिया है उस पर सुप्रीम कोर्ट ने आज सरकार को आईना दिखा दिया। आईना क्या दिखाया, साफ़-साफ़ दकियानूसी कह दिया। रूढ़िवादी बता दिया। लिंग के आधार पर भेदभाव करने वाला कह दिया। भले ही अदालत की यह टिप्पणी सेना में महिला अफ़सरों को बराबरी देने के संबंध में हो लेकिन यह समाज के हर क्षेत्र में और हर जगह सटीक बैठती है। यानी महिलाओं को कमतर आँका गया और इसका नतीजा यह निकला कि महिलाओं की संख्या तक कम होने लगी। सबसे बड़ा सबूत तो यही है कि लिंगानुपात यानी 1000 पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं की संख्या घटकर 896 तक पहुँच गयी है। इसका एक मतलब यह भी है कि सरकार ही नहीं पूरा समाज ही रूढ़िवादी और दकियानूसी है। कुछ हद तक सामंती भी। लेकिन सरकार से तो अपेक्षा रहती है कि तरक़्क़ीपसंद रहे और दुनिया के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चले। क्या सरकार ऐसा कर रही है? 'बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ' के नारों से ही क्या सब ठीक हो जाएगा? यदि ऐसा होता तो क्या सुप्रीम कोर्ट को ऐसी टिप्पणियाँ करनी पड़तीं?

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सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सरकार की ही याचिका पर आयी है। महिला अफ़सरों को स्थायी कमीशन देने के 2010 के दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी थी। दिल्ली हाई कोर्ट ने 2010 में शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत सेना में आने वाली महिलाओं को सेवा में 14 साल पूरे करने पर पुरुषों की तरह स्थायी कमीशन देने का आदेश दिया था। 

महिलाओं की शारीरिक क्षमता, सामाजिक पृष्ठभूमि, मनोवैज्ञानिक कारणों का हवाला देकर सेना में पुरुषों के बराबर रैंक देने के ख़िलाफ़ सरकार तर्क देती रही है। इसी पर कोर्ट ने सवाल उठाए। 

सरकार ने तर्क दिया कि कमांड यूनिटों में महिला अफ़सरों को स्वीकार करने के लिए सैनिक मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं क्योंकि वे अधिकतर ग्रामीण बैकग्राउंड से आते हैं।
सरकार का ऐसा तर्क क्या दिखाता है? क्योंकि एक महिला बॉस होगी तो क्या सैनिक उसका कहा नहीं मानेंगे? क्या दुनिया भर में जिन कार्यालयों में महिला बॉस होती हैं वहाँ कार्यालय ठीक से काम नहीं करते? क्या उन कार्यालयों में नियम-क़ायदे सही से लागू नहीं होते हैं? यदि यह कहने का मतलब नहीं था तो क्या सरकार यह कहने की कोशिश कर रही थी कि चूँकि अधिकतर सैनिक गाँव के होते हैं तो वे महिला को कमांडर के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे? क्या इसका कोई आधार है? ऐसे ही सवालों के संदर्भ में कोर्ट की टिप्पणियों को देखा जाना चाहिए।

कोर्ट ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और अजय रस्तोगी ने सरकार के ऐसे तर्कों पर टिप्पणी की-

  • सरकार को माइंड सेट ज़रूर बदलना चाहिए
  • सरकार का विचार लिंग के आधार पर भेदभावपूर्ण है
  • महिलाओं की शारीरिक बनावट से उनके अधिकार कम कैसे होंगे
  • सेना में महिला अफ़सरों का जुड़ाव प्रगतिशील प्रक्रिया है
  • लिंग आधारित संदेह जताना उनके सम्मान, देश पर चोट है
  • महिला अफ़सरों को पुरुष सहकर्मी के बराबर मानें
  • बराबरी के अधिकार से लेकर तर्क के अधिकार तक
  • महिलाएँ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं
  • सालों से चला आ रहा लिंग आधारित भेदभाव ख़त्म होना चाहिए
  • सेना महिला और पुरुषों में भेदभाव नहीं कर सकती

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सरकार ही नहीं, बल्कि समाज और आम लोगों के लिए भी मानी जानी चाहिए। अदालत भले ही सेना में महिलाओं के अधिकारों की बात करती हो, लेकिन समाज में हर जगह यह ग़ैर-बराबरी है। 

महिलाओं को अक्सर पुरुषों की तुलना में कम आँका जाता है। इसके पीछे का बड़ा कारण यह है कि लोग उस पुरुषवादी या सामंती सोच से बाहर नहीं निकल पाते हैं जो महिलाओं को घर के किचन तक समेटना चाहता है। ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दी गई हैं कि शिक्षा, तरक्की और आधुनिक सोच भी महिलाओं की बदतर स्थिति को नहीं रोक पाती हैं। 

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जबकि सच्चाई यह है कि हर क्षेत्र में महिलाएँ अव्वल आ रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जो फ़ैसला दिया उसमें भी इसका ज़िक्र किया है। सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद सेना में ही महिलाओं के पराक्रम का उदाहरण भी दिया। कोर्ट ने कर्नल कुरैशी, कैप्टन तान्या शेरगिल आदि का भी उदाहरण दिया। कोर्ट ने कहा कि महिला सेना अधिकारियों ने देश का गौरव बढ़ाया है। दूसरे क्षेत्रों में भी महिलाओं के टॉप करने की ख़बरें हर रोज़ आती रहती हैं। 

ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह कहना बिल्कुल वाजिब है कि सामाजिक और मानसिक कारण बताकर महिला अधिकारियों को अवसर से वंचित करना न सिर्फ़ भेदभावपूर्ण है, बल्कि अस्वीकार्य भी।

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अमित कुमार सिंह
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