प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी क्या केंद्र की दलीलों के लिए बड़ा झटका है? जानिए, राज्यपाल द्वारा विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोकने की केंद्र की दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा।
राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयक को अनिश्चितकाल के लिए राज्यपाल अपने पास रख लेंगे तो ऐसी चुनी हुई सरकार का क्या मतलब रह जाएगा? विधेयकों को राज्यपाल द्वारा 'मनमाने' तरीक़े से रोके रखने के केंद्र सरकार की दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ऐसा ही सवाल उठाया। अदालत ने कहा कि ऐसे तो यह विधायिका को पूरी तरह निष्क्रिय यानी पंगु बना देगा। न्यायालय ने केंद्र से तीखा सवाल करते हुए यह भी पूछा कि क्या न्यायालय ऐसी स्थिति में हस्तक्षेप करने में शक्तिहीन हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए एक प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस पर गुरुवार को सुनवाई के दौरान यह तीखी टिप्पणी की। पांच जजों की संविधान पीठ ने यह सवाल उठाया कि क्या इस तरह की स्थिति में न्यायालय निष्क्रिय रह सकता है, जब राज्यपाल अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर रहे हों। यह सुनवाई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए 14 सवालों पर केंद्रित थी, जिसमें यह पूछा गया था कि क्या राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है।
प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस 13 मई 2025 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत भेजा गया था। इसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति के विधेयकों पर सहमति देने या रोकने की शक्तियों की व्याख्या और समय-सीमा तय करने की संभावना पर सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी गई थी। यह प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल 2025 के उस फैसले के बाद आया, जिसमें तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करने को अवैध और मनमाना करार दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर शामिल हैं। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार पीठ ने सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से तीखे सवाल किए। मुख्य न्यायाधीश गवई ने पूछा, 'यदि कोई विधेयक विधानसभा द्वारा पारित किया जाता है और राज्यपाल उसे अनिश्चितकाल तक रोककर रखता है तो क्या न्यायालय इस मामले में हस्तक्षेप करने में असमर्थ है?' उन्होंने आगे कहा, 'यदि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोक सकते हैं तो यह जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करने वाली विधायिका को पूरी तरह निष्क्रिय कर देगा। निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए क्या सुरक्षा है?'
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी सवाल उठाया कि यदि राज्यपाल को विधेयक को विधानसभा में पुनर्विचार के लिए वापस भेजने की बजाय उसे रोकने की शक्ति दी जाए तो क्या यह निर्वाचित सरकार को राज्यपाल की मर्जी और मनमानी के अधीन नहीं कर देगा?
केंद्र सरकार का तर्क
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार की ओर से तर्क दिया कि राज्यपाल के पास अनुच्छेद 200 के तहत चार विकल्प हैं:
विधेयक को सहमति देना
सहमति रोकना
विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानसभा को वापस भेजना
उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना।
सॉलिसिटर जनरल मेहता ने तर्क दिया कि इस तरह के मुद्दों का समाधान न्यायिक मंचों के बजाय राजनीतिक क्षेत्र में होना चाहिए। उन्होंने कहा, 'यह कोर्ट संविधान का संरक्षक है, लेकिन कुछ समस्याएं ऐसी हैं जिनका समाधान इस कोर्ट के पास नहीं है। ऐसी स्थिति में हमें यह अपेक्षा करनी होगी कि संवैधानिक पदाधिकारी जिम्मेदार और जवाबदेह होंगे, क्योंकि वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं।' इस पर मुख्य न्यायाधीश ने टिप्पणी की, 'माननीय राज्यपाल जनता के प्रति जवाबदेह नहीं हैं।'
मेहता ने कहा कि यदि कोई राज्य विधानसभा ऐसा विधेयक पारित करती है जो आरक्षण को पूरी तरह ख़त्म कर दे या केंद्रीय एजेंसियों की शक्तियों को कमजोर करे, तो राज्यपाल को उसे रोकने का अधिकार होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 को तमिलनाडु बनाम राज्यपाल मामले में कहा था कि राज्यपाल विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक कार्रवाई नहीं रोक सकते। कोर्ट ने साफ़ किया था कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास केवल तीन विकल्प हैं:
सहमति देना
सहमति रोकना और विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेजना
उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना।
कोर्ट ने यह भी कहा था कि यदि विधानसभा द्वारा विधेयक को फिर से पारित किया जाता है, तो राज्यपाल को सहमति देनी होगी और वह इसे दोबारा राष्ट्रपति को नहीं भेज सकता, जब तक कि विधेयक में मूल विधेयक से भिन्न सामग्री न हो।
कोर्ट ने यह भी निर्धारित किया था कि राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय-सीमा का पालन करना होगा। इसने कहा था कि यदि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह के साथ विधेयक को रोकता है या राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करता है, तो उसे एक महीने के भीतर विधानसभा को वापस भेजना होगा। यदि यह मंत्रिपरिषद की सलाह के खिलाफ किया जाता है, तो तीन महीने के भीतर कार्रवाई करनी होगी। यदि विधानसभा द्वारा फिर से पारित विधेयक पेश किया जाता है, तो एक महीने के भीतर सहमति देनी होगी।
इसके अलावा, कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का उपयोग करते हुए तमिलनाडु के 10 विधेयकों को मंजूर मान लिया गया घोषित कर दिया था। इसको प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस में चुनौती दी गई है।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी और प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस की सुनवाई केंद्र-राज्य संबंधों में संतुलन और विधायिका की संप्रभुता को बनाए रखने के लिए एक अहम क़दम है। कोर्ट का अंतिम फ़ैसला राज्यपालों और राष्ट्रपति की विधेयकों पर कार्रवाई की समय-सीमा और प्रक्रिया को साफ़ कर सकता है। इसका असर देश भर की विधायिकाओं और शासन व्यवस्था पर पड़ेगा।