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चीन के साथ युद्ध होने की स्थिति में भारत का साथ देगा अमेरिका?

क्या सामरिक-रणनीतिक स्थितियाँ इस तरह बदल चुकी हैं कि 1971 में भारत के ख़िलाफ़ खुल कर पाकिस्तान का साथ देने वाला अमेरिका अब चीन के साथ युद्ध होने की स्थिति में भारत का साथ देगा? क्या अमेरिका अपने खरबों डॉलर के व्यापारिक हितों की अनदेखी कर भारत के साथ खड़ा होगा?
या अमेरिका सिर्फ आग में घी डालने का काम कर रहा है और भारत को अपने पड़ोसी के साथ युद्ध के लिए उकसा रहा है? उसका मक़सद इसी बहाने एशिया में अपनी सेना की मौजूदगी बढ़ाना तो नहीं है?
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क्या कहा है अमेरिकी विदेश मंत्री ने?

ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि अमेरिका यूरोप में तैनात अपने सैनिकों को वहाँ से हटा कर दक्षिण पूर्व एशिया में लगाने जा रहा है। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ ने गुरुवार को औपचारिक तौर पर कहा कि यूरोप से सेना हटाने की एक वजह यह भी है कि भारत को चीन से ख़तरा है। वह यूरोपीय संघ से जुड़े ब्रसेल्स फ़ोरम के वर्चुअल कॉन्फ्रेंस में बोल रहे थे।
यूरोप से सैनिकों को हटाने के बारे में एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, 

'चीनी कम्युनिस्ट पार्टी जो कुछ कर रही है, उसका मतलब है भारत को ख़तरा, वियतनाम को ख़तरा, मलेशिया को ख़तरा, इंडोनेशिया को ख़तरा और दक्षिण चीन सागर में चुनौतियाँ।'


माइक पॉम्पिओ, विदेश मंत्री, अमेरिका

अमेरिकी विदेश मंत्री ने कहा, 'हम यह सुनिश्चित करने जा रहे हैं कि अमेरिकी सेना इन चुनौतियों से निपटने की मुद्रा में है।'

भारत-चीन तनाव और अमेरिका

माइक पॉम्पिओ का यह एलान इसलिए बेहद अहम है कि भारत और चीन के बीच तनाव है, वास्तविक नियंत्रण रेखा के पास दोनों सेनाएं बिल्कुल आमने-सामने खड़ी हैं और गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों के बीच झड़प हुई जिसमें दोनों तरफ के सिपाही मारे गए। 
अमेरिका का यह कहना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि चीनी सरकार के अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने कहा है कि भारत को यह समझना चाहिए कि अमेरिका उसकी मदद नहीं कर सकता है।
एक दूसरे लेख में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने कहा है कि भारत और अमेरिका सिर्फ चीन को रोकने के लिए एक-दूसरे के साथ हैं और एक- दूसरे का इस्तेमाल कर रहे हैं।  

अमेरिका की दिलचस्पी

पिछले हफ़्ते माइक पॉम्पिओ ने ‘भारत के साथ सीमा पर तनाव बढ़ाने’ और दक्षिण चीन सागर का ‘सैन्यीकरण’ करने के लिए चीनी सेना की आलोचना की थी। उन्होंने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को ‘रोग एक्टर’ भी क़रार दिया था।
उन्होंने कहा कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी नैटो जैसी संस्थाओं द्वारा आज़ाद दुनिया की स्थापना के लिए अब तक किए गए तमाम कामों पर पानी फेरना चाहती है और ऐसे नियम गढ़ना चाहती है जिसमें सिर्फ बीजिंग की बातें ही सुनी जाएं। 

चीन और यूरोपीय संघ

अमेरिकी विदेश मंत्री ने कहा कि वह यूरोपीय संघ में चीन के मुद्दे पर बातचीत शुरू करेंगे। उन्होंने कहा कि 27 देशों के इस संगठन में चीन पर अलग से बात होनी चाहिए और बीजिंग के ख़िलाफ़ सख़्ती बरती जानी चाहिए।
उन्होंने यह माना कि यूरोपीय संघ चीन के मुद्दे पर एकमत नहीं है और अलग-अलग सदस्य देशों की अलग-अलग राय है। उन्होंने यह भी कहा कि एक बार यह बात सबकी समझ में आ जाए कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से सबको ख़तरा है तो बातचीत आगे बढ़ सकती है। 

अमेरिकी विदेश मंत्री ने यह भी कहा कि चीनी दूरसंचार कंपनी ह्वाबे को यूरोपीय देशों में काम नहीं देने के मुद्दे पर देशों को समझाने में उन्हें आंशिक कामयाबी मिल चुकी है। उनका तर्क है कि ह्वाबे से सुरक्षा को ख़तरा है क्योंकि वह तमाम जानकारी चीनी सेना को दे सकता है, इसलिए उसे दूर रखा जाना चाहिए। 

नज़र अमेरिकी चुनाव पर

पर्यवेक्षकों का कहना है कि माइक पॉम्पिओ की इस मुहिम के तार इस साल नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से भी जुड़े हो सकते हैं। इस चुनाव में मौजूदा राष्ट्र्पति डोनल्ड ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार होंगे।
ट्रंप चुनाव को ध्यान में रख कर ही चीन के ख़िलाफ़ मोर्चेबंदी में लगे हुए हैं, उनकी कोशिश हो सकती है कि चीन के नाम पर पूरी अमेरिकी जनता को अपने पीछे लामबंद किया जाए।
अमेरिकी सैनिकों की तैनाती चीन के  आसपास बढ़ने और तनाव बढ़ने से डोनल्ड ट्रंप और उनके लोग यह कह सकेंगे कि अमेरिका को चीन से ख़तरा है। ख़तरे की यह आशंका चुनाव में उनकी मदद कर सकती है। 
पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि इसी बहाने वह भारत को अपने साथ जोड़ कर दक्षिण चीन सागर में पैर फैला सकता है और भारत को इस सागर में अपनी सेना तैनात करने के लिए राजी कर सकता है। ऐसा हुआ तो भारत-चीन रिश्ते बहुत ही खराब हो जाएंगे और वहाँ से लौटना भारत के लिए मुश्किल होगा। 
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प्रमोद मल्लिक
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