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देश पर 205 लाख करोड़ का कर्ज लेकिन सरकार बेख़बर?

पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का दावा और उसका प्रचार कौन भूल सकता है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2019-20 का बजट भाषण देते हुए देश को अगले पांच साल में 'फाइव ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी' बनाने की बात कई बार कही। इसके अगले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी में बीजेपी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए इसे देश का बड़ा लक्ष्य बताया था। इसपर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पूर्व वित्त मंत्री और अर्थशास्त्री पी चिदंबरम ने कहा था, यह बहुत आकर्षक नारा है लेकिन इसमें कोई जादू नहीं है। तब उन्होंने यह भी कहा था कि उस तारीख से पांच साल बाद, 2028-29 में हम 10 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएंगे और फिर पांच साल बाद हम 20 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। इसमें कोई जादू नहीं है। ब्याज का कारोबार करने वाला कोई भी कर्जदाता जानता है। मोटे तौर पर जीडीपी प्रति वर्ष 12 प्रतिशत बढ़ती है, तो अर्थव्यवस्था छह साल में दूनी हो जाएगी।

इसके बावजूद पांच ट्रिलियन की अर्थव्यस्था का प्रचार खूब हुआ। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के विश्व आर्थिक आउटलुक के अनुसार, अब अनुमान है कि जो 2024-25 में प्रचारित था वह 2026-27 में हो पायेगा। इसलिए इसपर सन्नाटा है। अब विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था होने का दावा है लेकिन जाहिर है कि सब जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद पर निर्भर करता है और यह रोजगार-व्यवसाय की हालत है जो बेरोजगारी में मुफ्त राशन पाने वालों से नहीं बढ़ता रह सकता है। ऐसे में अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति एक गंभीर सवाल है। हाल में खबर आई थी कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने कहा है कि भारत का कर्ज इतना हो गया है कि यह चिन्ता का विषय है। आशंका है कि निकट भविष्य में यह भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से ज्यादा हो जाये। ऐसे में आईएमएफ ने दीर्घ अवधि की इसकी निरंतरता को लेकर चिन्ता जताई है। 

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दूसरी ओर, सरकार इस चेतावनी से सहमत नहीं है। मिन्ट में प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार सरकार का कहना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में पिछले दो दशक के दौरान कई तरह के झटकों के बावजूद जीडीपी के मुकाबले भारत के कर्ज का अनुपात 2005-06 के 81 प्रतिशत से बमुश्किल बढ़कर 2021-22 में 84 प्रतिशत हुआ था जो 2022-23 में फिर 81 प्रतिशत हो गया। एनडीटीवी डॉट इन की खबर के अनुसार ज्यादातर कर्ज भारतीय रुपये में है इसलिए कोई समस्या नहीं है। लेकिन कर्ज तो कर्ज है और आय की संभावना से ज्यादा है तो निश्चित रूप से चिन्ता की बात है और ऐसा नहीं हो सकता है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का अलर्ट बेमतलब या गैरजरूरी हो। खबरों के अनुसार आईएमएफ ने अपनी सालाना रिपोर्ट में कहा है कि इतने कर्ज से भारत को दीर्घअवधि का जोखिम ज्यादा है।

देश पर कुल कर्ज 205 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है। मार्च 2023 में यह 200 लाख करोड़ रुपये था और बीते 6 महीने में 5 लाख करोड़ रुपये बढ़ गया है। अगर यह सामान्य भी है तो यह राशि खर्च कहां हो रही है, इन खर्चों को कम क्यों नहीं किया जा रहा है और अगर इसी तरह कर्ज लेते रहे तो लौटाएंगे कैसे और इस स्थिति में हाईवे बनाना और नए भवन बनाना तथा सरकार के खर्चे बढ़ाना कितना सही है, इसपर बात होनी चाहिये। लेकिन सब कुछ साफ-साफ बताने की बजाय सरकार 2002 के आँकड़ों से तुलना कर रही है। 

सामान्य सा सवाल है कि 2002 क्यों 2014 या 2019 क्यों नहीं। जब मामला जीडीपी पर आधारित है और 2016 में नोटबंदी के बाद जीडीपी बुरी तरह प्रभावित हुआ तो 2016 से क्यों नहीं या 2002 से भी तुलना की जाये तो बीच के आंकड़े नहीं होने का क्या मतलब है?
पहले यह सब सामान्य तौर पर छपता था, सरकार बताती थी, पूछा जा सकता था लेकिन अब आईएमएफ की रिपोर्ट को भी झुठलाने की कोशिश हो रही है।
द वायर की एक खबर के अनुसार, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा था कि उनकी सरकार कर्ज कम करने के उपायों पर विचार कर रही है और उभरते बाजार की अर्थव्यवस्था में इसके लिए किये जा रहे उपायों पर नजर रख रही है। ऐसे में भारत को अपनी क्रेडिट रेटिंग बेहतर करने की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है क्योंकि कर्ज का स्तर ज्यादा है और इससे संबंधित खर्च अच्छे-खासे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि यह स्थिति नोटबंदी, जीएसटी के अलावा नरेन्द्र मोदी के अर्थशास्त्र के कारण है। अंग्रेजी में इसे ‘मोदीनोमिक्स’ आदि कहा जाता है पर मूल मुद्दा यह है कि नरेन्द्र मोदी के अर्थशास्त्र ज्ञान के बारे में पी चिदंबरम ने 2014 जनवरी में उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले कहा था कि वह डाक टिकट के पीछे लिखने के बराबर है। तब उन्होंने कहा था कि वे सीख रहे हैं और मुझे यकीन है कि जल्दी सीख जायेंगे। पर बाद की स्थितियों में उनका सीखना शक के घेरे में है और चिन्ता की बात है कि जैसे-तैसे काम चल रहा है।
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मीडिया यह सब बताता होता तो जनता समझती कि नरेन्द्र मोदी के वादे पूरे नहीं होते हैं लेकिन अपनी गारंटी को वे कांग्रेस के भ्रष्टाचार से जोड़कर उसका फायदा उठाने के फेर में हैं। विपक्ष उनकी पार्टी को वाशिंग मशीन पार्टी कहता रहा है इसके बावजूद कांग्रेस को भ्रष्ट प्रचारित करने का अभियान चल रहा है और इसमें कांग्रेस सांसद धीरज साहू के ठिकानों से 350 करोड़ रुपये बरामद होने को भ्रष्टाचार से जुड़ा कालाधन बताकर लाभ उठाने की कोशिश की गई है जबकि अभी तक उसके बारे में पक्की जानकारी नहीं है। ऐसे में देश की अर्थव्यवस्था पहले जैसी तब रहती जब उसके साथ नोटबंदी और जीएसटी जैसी गंभीर छेड़छाड़ नहीं की गई होती। इसकी भरपाई के लिए नरेन्द्र मोदी अभी भी भ्रष्टाचार खत्म करने का ही दावा कर रहे हैं और कहा था, 'वो घोटालों की गारंटी हैं, मेरी घोटालेबाजों पर कार्रवाई की'। इसके बाद से वे मोदी की गारंटी का प्रचार कर रहे हैं।

मोदी की गारंटी एक चुनावी डायलॉग के रूप में विकसित हो रहा है जबकि अडानी के बारे में सवाल पूछना मुश्किल होता जा रहा है। वैसे तो शेयर बाज़ार का उतार-चढ़ाव अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन और निवेश पर निर्भर करता है। लेकिन अब अडानी के शेयरों में ही उतार-चढ़ाव से लोग खुश हैं और इसमें उछाल भी दिखता है लेकिन शेयर बाज़ार के आंकड़े अर्थव्यवस्था की असल तस्वीर नहीं दिखाते।

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संजय कुमार सिंह
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