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आरबीएल बैंक मैनेजमेंट क्यों सफ़ाई दे रहा है- डिपॉजिटर, निवेशक घबराएं नहीं?

रिजर्व बैंक का कहना है - ऑल इज वेल। आरबीएल बैंक के नए मुखिया अंतरिम सीईओ राजीव आहूजा का भी कहना है -ऑल इज वेल। लेकिन इन दोनों के जगाए भी भरोसा क्यों नहीं जग रहा है? कुछ तो पर्देदारी है। आखिर आरबीएल बैंक में हुआ क्या है कि कई सालों से निवेशकों की आंख का तारा रहा यह बैंक अचानक यस बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक की कतार में खड़ा हुआ नज़र आ रहा है।

और इससे बड़ा सवाल यह है कि क्या हुआ है जिसके बारे में न तो बैंक का मैनेजमेंट कुछ कह रहा है और न ही आरबीआई? रिजर्व बैंक का कहना है कि बैंक में नकदी की कोई किल्लत नहीं है और खाताधारकों को घबराने की ज़रूरत नहीं है। आरबीएल बैंक के मैनेजमेंट का कहना है कि शुक्रवार से रविवार तक जो कुछ हुआ उसका बैंक के कामकाज या आर्थिक स्थिति से कोई रिश्ता नहीं है। यानी न तो डिपॉजिटरों को घबराने की ज़रूरत है और न ही निवेशकों को।

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लेकिन इतना कह देने भर से बात तो नहीं बनती। इसी का असर था कि सोमवार को आरबीएल बैंक के शेयरों ने तेईस परसेंट तक का गोता खाया। हालाँकि बहुत से निवेशकों को लगने लगा कि अब शेयर बहुत सस्ता हो गया है। शायद इसीलिए मंगलवार को इसमें कुछ खरीदारी यानी हल्का सुधार दिखाई पड़ा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मामला ख़त्म हो गया।  

दरअसल, बैंक पर नज़र रखनेवाले ज़्यादातर लोग मान रहे हैं कि अभी रिजर्व बैंक और आरबीएल बैंक दोनों को बहुत कुछ बताना बाक़ी है। इस मामले में दोनों की भूमिका पर जो सवाल उठ रहे हैं उनका जवाब सामने आने के बाद ही तय हो पाएगा कि सच्चाई क्या है और आरबीएल बैंक का भविष्य क्या है।

हुआ यह कि पिछले शुक्रवार को अपने एक चीफ़ जनरल मैनेजर योगेश दयाल को आरबीएल बैंक के निदेशक मंडल में एक एडिशनल डायरेक्टर के तौर पर शामिल करने का आदेश किया। इसके अगले दिन ही बैंक के एमडी और सीईओ विश्ववीर आहूजा लंबी मेडिकल छुट्टी पर चले गए। 

छुट्टी तो बराए नाम ही है क्योंकि आहूजा के कार्यकाल में अब सिर्फ छह महीने बाक़ी रह गए थे। बैंक इससे पहले उन्हीं को तीन साल के लिए पद पर बनाए रखने का प्रस्ताव रिजर्व बैंक को भेज चुका था। लेकिन रिजर्व बैंक ने यह प्रस्ताव नामंजूर करके उनका कार्यकाल सिर्फ़ एक साल बढ़ाने को कहा था। इसलिए अब उनकी इस छुट्टी की अर्जी को इस्तीफा ही समझा जा रहा है और बैंक का मैनेजमेंट उनके उत्तराधिकारी की तलाश में भी लग गया है। इस बीच बैंक के एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर राजीव आहूजा को अंतरिम एमडी और सीईओ बनाया गया है।

पिछले चार दिनों में बैंक के मैनेजमेंट और रिजर्व बैंक ने यह समझाने की भरपूर कोशिशें कर ली हैं कि बैंक की माली हालत ठीक है। बैंक में कोई गड़बड़ी नहीं है और बैंक के डिपॉजिटरों या शेयरधारकों को फिक्र करने की ज़रूरत नहीं है।

लेकिन इनमें से एक भी यह बात साफ़ साफ़ नहीं बता पाया या नहीं बता रहा है कि आखिर ऐसा क्या हुआ है कि रिजर्व बैंक को एक प्राइवेट बैंक के बोर्ड में दखल देने की ज़रूरत महसूस हुई। ऐसा क्या हुआ कि पिछले कई साल से बैंक का चेहरा बने हुए विश्ववीर आहूजा अचानक चले गए या उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया?  

ये सवाल इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बैंक ऑफ़ अमेरिका में लंबे अनुभव के बाद आए विश्ववीर आहूजा को आरबीएल बैंक के कायाकल्प के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है। बैंकिंग कारोबार में कहा भी जाता है कि किसी भी बैंक की अच्छाई या बुराई इसी बात से तय होती है कि उसका सीईओ कौन है और कैसा है। ऐसे में सीईओ की विदाई किसी बैंक में सब कुछ बदल सकती है।

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दूसरी वजह यह भी है कि किसी प्राइवेट बैंक में रिजर्व बैंक के डायरेक्टर बैठाया जाना कोई मामूली बात नहीं है। आम तौर पर ऐसा तभी होता है जब रिजर्व बैंक को बैंक की माली हालत या उसे चलाए जाने के तौर तरीकों पर शक होता है या एतराज़ होता है। इसका मतलब यह होता है कि रिजर्व बैंक उस बैंक के रोजमर्रा के कामकाज पर बारीकी से नज़र रखना चाहता है, यानी किसी गड़बड़ी की आशंका को टालना चाहता है। पिछले कुछ वर्षों में रिजर्व बैंक ने जिन बैंकों में ऐसे डायरेक्टर बैठाए हैं उनमें यस बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक के अलावा उज्जीवन स्मॉल फाइनेंस बैंक और जम्मू एंड कश्मीर बैंक शामिल हैं। हालांकि सोमवार को रिजर्व बैंक ने कहा है कि वो ऐसे डायरेक्टर तब नियुक्त करता है जब उसे लगता है कि बैंक को सहारे की ज़रूरत है और सुपरविजन यानी नज़र रखे जाने की भी। लेकिन फिर भी रिजर्व बैंक ने यह नहीं बताया कि आरबीएल बैंक में उसे ऐसी क्या ज़रूरत नज़र आ रही है।

पिछले कुछ सालों का कारोबार देखें तो 2010 में जब विश्ववीर आहूजा ने बैंक के सीईओ का काम संभाला था वहां से उन्होंने इसे पच्चीस गुना बड़ा कर के दिखाया।

रत्नाकर बैंक का नाम बदलकर आरबीएल बैंक किया गया और 2016 में जब कंपनी का आइपीओ आया तो वो सत्तर गुना ओवरसब्सक्राइब हुआ। हालांकि पिछले कुछ सालों में भी बैंक ने अच्छा मुनाफा कमाया है लेकिन साथ ही उसके कर्जों में वापस न आनेवाली रक़म का हिस्सा बढ़ा है जिसकी वजह से मुनाफे पर असर दिख रहा था। हालांकि क्रेडिट कार्ड कारोबार में बैंक ने बहुत जबर्दस्त पकड़ बनाई है और चार बड़े बैंकों के बाद पांचवें नंबर पर आरबीएल बैंक का ही नाम आता है। खासकर इस कारोबार में उसका मुनाफा भी काफी अच्छा है। सारे विवाद के बाद मंगलवार को बैंक ने बजाज फाइनेंस के साथ को ब्रांडेड कार्ड की साझेदारी को पांच साल आगे बढ़ाने के करार का एलान किया, यह शायद यह दिखाने के लिए भी है कि बैंक का काम पूरी तरह से पटरी पर है। 

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अब तक के हालात दिखा रहे हैं कि फ़िलहाल खाताधारकों के लिए तो फिक्र की बात नहीं है। क्योंकि अब अगर कोई गड़बड़ी सामने आती भी है तो रिजर्व बैंक हालात पर काबू पाने की स्थिति में होगा। शायद इसीलिए बार बार जोर देकर कहा भी जा रहा है कि बैंक के पास पैसे की कोई कमी नहीं है और जो कुछ हुआ उसका बैंक की माली हालत से कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन असली सवाल का जवाब मिलना अभी बाकी है। क्या रिजर्व बैंक को आरबीएल बैंक में आईसीआईसीई बैंक, एक्सिस बैंक, यस बैंक या लक्ष्मी विलास बैंक जैसी किसी कमजोरी की भनक लग गई थी? क्या वो दुर्घटना होने से पहले ही सावधानी बरतने की मुद्रा में है? क्या विश्ववीर आहूजा आरबीएल बैंक में उतने ही प्रभावशाली हो गए थे जितने इन बैंकों के सीईओ थे, जिनकी वजह से बाद में बैंक और आरबीआई को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा? जब तक रिजर्व बैंक की तरफ़ से इन सवालों के जवाब नहीं मिलते और बैंक के कामकाज की ज़िम्मेदारी के लिए अगले या अगली सीईओ का नाम सामने नहीं आ जाता, तब तक सवाल भी बने रहेंगे और आशंकाएँ भी।

(बीबीसी से साभार)
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आलोक जोशी
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