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सरकारी कंपनियों की ज़मीनें बेचने पर है सरकार की नज़र?

सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को बेचने के साथ-साथ क्या अब सरकार की नज़रें देश में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के पास पड़ी 17 लाख एकड़ अतिरिक्त ज़मीन पर लगी हैं? महाराष्ट्र सरकार द्वारा योग गुरु रामदेव को 400 एकड़ ज़मीन दिए जाने के प्रस्ताव को देखकर तो कुछ ऐसे ही संकेत लग रहे हैं। राजशाही, ब्रितानी ग़ुलामी के बाद जब हमारे देश में लोकतंत्र शुरू हुआ तो यह उम्मीद जगी थी कि भूमि का न्यायपूर्ण बँटवारा होगा और खेतों में काम करने वाले मज़दूरों को भी उनके हक़ की कुछ ज़मीन मिलेगी जिससे वे अपना गुज़र-बसर कर सकेंगे। लेकिन सरकारों के रुख में तेज़ी से बदलाव आता गया और वे लोकाभिमुख नीतियों को छोड़ क्रोनि-कैपिटलिज़्म को बढ़ावा देने लगीं। आज़ादी के बाद भूमिहीनों, खेत-मज़दूरों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए कई राज्यों में सरकरों ने भूमि सुधार क़ानून शुरू कर ज़मीनें वितरित कीं। विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन के माध्यम से ज़मींदारों से ज़मीन दान करवाकर ग़रीबों में बाँटी। लेकिन अब नयी व्यवस्था में सरकारें एक नव सामंतवाद के निर्माण में जुट गयी हैं।

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इस नव सामंतवाद के तहत बड़े पैमाने पर उद्योगपतियों या रसूखदारों को बड़े पैमाने पर कौड़ियों के भाव देकर ज़मींदार बनाया जा रहा है। ज़मीन के इस खेल में कॉर्पोरेट नए ज़मींदार बनते जा रहे हैं और छोटे-मझोले किसान भूमिहीन बनने लगे। भूमिहीनों को भूमि देने के सुधार कार्यक्रम भूल कर नेता-अधिकारी, बिल्डर को डेवलपर का नाम देकर भूमि हड़पने और करोड़ों रुपये बनाने में लग गए। साथ ही वे उनके पार्टनर और निवेशक भी बनते जा रहे हैं। औद्योगीकरण के नाम पर ज़मीन अधिग्रहण का बड़ा खेल यूपीए-2 की सरकार में एसईज़ेड (विशेष आर्थिक क्षेत्र) के नाम पर शुरू हुआ था। सेज के लिए लाखों एकड़ ज़मीन अधिग्रहित की गयी और जब ज़मीन के इस गोरखधंधे की ख़बरें बाहर आने लगीं तो एसईज़ेड के लिए ज़मीन अधिग्रहण से सरकार ने पल्ला झाड़ लिया। लेकिन यूपीए-2 ने ही बाद में नया ज़मीन अधिग्रहण क़ानून भी बनाया। इससे पहले भूमि अधिग्रहण को लेकर हमारे देश में साल 1894 का क़ानून ही चलता था, जिसे पहली बार बड़े पैमाने पर 2013 में बदला गया।

ज़मीन अधिग्रहण के इन आरोपों पर सरकारें एक ही जवाब देती हैं कि ज़मीन का अधिग्रहण औद्योगीकरण के लिए किया जाता है। नरेंद्र मोदी सरकार के एक मंत्री ने तो लोकसभा में यह तक कह दिया था कि ज़मीन न होने के कारण 4 लाख करोड़ रुपए के प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं। लेकिन वे कभी इन प्रोजेक्ट्स की सूची लोकसभा में उपलब्ध नहीं करा पाए। साथ ही नये ज़मीन अधिग्रहण क़ानून में बदलाव के बहुत प्रयास किये, लेकिन सफल नहीं हो पाए। चार बार इस क़ानून में हुए बदलावों के लिए अध्यादेश लाया गया और बाद में उस क़ानून में राज्यों को अपने हिसाब से संशोधन लाने का अधिकार दे दिया गया। लेकिन उसी बीच साल 2015 में लोकसभा में पेश सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक़ एसईजेड के लिए 45,635.63 हेक्टेयर ज़मीन अधिसूचित की गई थी, जबकि वास्तविक काम 28,488.49 हेक्टेयर यानी 62 फ़ीसदी अधिग्रहित ज़मीन पर ही हुआ। इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों से न तो कोई रोज़गार पैदा हुआ और न ही इसने मैन्यूफ़ैक्चरिंग या औद्योगिक वृद्धि को बढ़ावा मिला। ध्यान रहे कि वहाँ न तो पर्यावरण संबंधी कोई मंज़ूरी लेनी थी और न ही सामाजिक प्रभाव का आकलन करने की कोई अनिवार्यता थी। इन रियायतों के आलावा एक अनुमान के मुताबिक़ 1.75 लाख करोड़ रुपए की कर छूट भी दी गई, लेकिन एसईज़ेड अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाया। 

सीएजी ने तीखी टिप्पणी की, ‘सरकार द्वारा जनता से भूमि का अधिग्रहण ग्रामीण आबादी से कॉर्पोरेट जगत में संपत्ति का बड़ा हस्तांतरण साबित हो रहा है।’

हमारे देश में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के पास पड़ी 17 लाख एकड़ अतिरिक्त ज़मीन अधिग्रहित होकर पड़ी है जिसका सालों साल कोई उपयोग नहीं हुआ है। जिस समय इन ज़मीनों का अधिग्रहण हुआ उस समय पुराने क़ानून के हिसाब से किसानों को बहुत कम ही मुआवजा मिला। लेकिन आज जब सरकारें इन ज़मीनों को अपने क़रीबी उद्योगपतियों को दान देने निकली हैं तो सवाल खड़े होने ही हैं? 

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महाराष्ट्र में बाबा रामदेव को मिलेगी सस्ती ज़मीन

ऐसा ही एक प्रयास महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस की अगुवाई वाली महाराष्ट्र सरकार ने किया है। इसने योग गुरु रामदेव को लातूर ज़िले में सोयाबीन की एक प्रोसेसिंग यूनिट लगाने के लिए 400 एकड़ ज़मीन की पेशकश की है। उन्हें यह ज़मीन बाजार भाव से 50 फ़ीसदी कम क़ीमत पर दी जाएगी। साथ ही अगर वह ज़मीन खरीदते हैं तो सरकार इसकी स्टांप ड्यूटी भी माफ़ कर देगी और वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) में भी उन्हें लाभ दिया जाएगा। इसके अलावा प्रोसेसिंग यूनिट चलाने के लिए बिजली में भी उन्हें प्रति यूनिट एक रुपये की छूट देने का प्रस्ताव दिया गया है। यह ज़मीन 2013 में भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (बीएचईएल) की एक फैक्ट्री लगाने के लिए अधिग्रहीत की गयी थी। तब सरकार ने ज़मीन मालिकों को बीएचईएल की फ़ैक्ट्री में नौकरी दिए जाने का वादा भी किया गया था। उस समय किसानों को ज़मीन अधिग्रहण पर साढ़े तीन लाख रुपये प्रति एकड़ की दर से मुआवजा भुगतान किया गया था, जबकि वर्तमान समय में ज़मीन की क़ीमत 45 लाख रुपये प्रति एकड़ है। 

ज़मीन के पास से एक हाईवे निकल रहा है, जिससे क़ीमत में उछाल आया है। लेकिन इसका फ़ायदा किसानों को नहीं रामदेव को मिलेगा।

नागपुर में पतंजलि फूड पार्क का क्या हुआ?

वैसे क़रीब तीन साल पहले नागपुर में पतंजलि फूड एंड हर्बल पार्क बनाने के लिए बाबा रामदेव को 230 एकड़ ज़मीन आवंटित की गई थी। वह ज़मीन भी उन्हें बाजार भाव से काफ़ी कम दाम पर मिली थी लेकिन रामदेव अब तक वहाँ संबंधित यूनिट शुरू नहीं करा सके हैं। ऐसे में उन्हें फिर से नयी सौगात क्यों? औद्योगीकरण के नाम पर ज़मीन हासिल करने का सच सामने आने के बावजूद सरकार ऐसे क़दम कैसे उठा रही है। ज़मीनों का ऐसा ही एक यह खेल मुंबई से सटे रायगढ़ ज़िले में एसईज़ेड के नाम पर रिलायंस समूह ने भी शुरू किया था, लेकिन किसानों के संघर्ष के बाद उस पर लगाम लगी। 

महाराष्ट्र के अनेक औद्योगिक क्षेत्रों में सरकार से उद्योग के नाम पर रियायती दर से हज़ारों एकड़ ज़मीन औद्योगिक घरानों ने हासिल कर रखी है लेकिन अपना कारोबार बंद करते समय वे यह ज़मीन सरकार को वापस नहीं करते जैसा कि उनके लीज क़रार में लिखा होता है।

ये उद्योगपति इन ज़मीनों पर रियल इस्टेट कम्पनियाँ खोलकर कारोबार शुरू कर देते हैं या इन्हें बाजार भाव से बेचकर मोटा मुनाफ़ा वसूल लेते हैं। देश में सबसे ज़्यादा एसईज़ेड तेलंगाना, उसके बाद कर्नाटक और तीसरा नंबर महाराष्ट्र का है। कुल 403 में से महज 203 एसईज़ेड में ही थोड़ा बहुत कुछ काम हो रहा है, शेष ज़मीन हथियाने का खेल ही नज़र आते हैं। इस ज़मीन के खेल में हर साल लाखों किसान भूमिहीन होकर शहरों की तरफ़ रोज़गार के लिए पलायन करते हैं और बेरोज़गारों और ग़रीबों की संख्या में शामिल होते जा रहे हैं। इस तरह की नीतियों से औद्योगीकरण तो दूर हम देश के कृषि के तानेबाने को ही नष्ट कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को खोखला करते जा रहे हैं जो ख़तरनाक है।

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संजय राय
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