कभी उनसे लखनऊ के टुंडे कबाब पर बात हो रही थी। उन्होंने हँसी-हँसी में कहा कि आपको इससे बेहतर कबाब मिल जाएंगे, लेकिन टुंडे कबाब नहीं मिलेगा।
शायद ख़ुद कमाल ख़ान पर यह बात लागू होती थी। उनसे अच्छे-बुरे पत्रकार दूसरे मिलेंगे, लेकिन दूसरा कमाल ख़ान नहीं होगा।
वह कई मायनों में अनूठे और अद्वितीय थे। टीवी ख़बरों की तेज़ रफ़्तार भागती-हांफती दुनिया में वह अपनी गति से चलते थे। यह कहीं से मद्धिम नहीं थी। लेकिन इस गति में भी वह अपनी पत्रकारिता का शील, उसकी गरिमा बनाए रखते थे। यह दरअसल उनके व्यक्तित्व की बुनावट में निहित था। जीवन ने उन्हें पर्याप्त सब्र दिया था। वह तेज़ी से काम करते थे, लेकिन जल्दबाज़ी में नहीं रहते थे। यह शिकायत उनसे कभी नहीं रही कि वे डेडलाइन पर अमल नहीं करते थे। लेकिन जो काम करते थे, उसमें अपनी तरह की नफ़ासत, अपनी तरह का सरोकार- दोनों दिखाई पड़ते थे।