हिंदी साहित्य के प्रमुख लेखक विनोद कुमार शुक्ल का मंगलवार को निधन हो गया। उनकी रचनात्मक दृष्टि, भाषा की सादगी और साहित्य में योगदान शानदार रहा। पढ़िए, विनोद वर्मा उनको कैसे याद करते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल पहली बार विदेश जा रहे थे। वीज़ा के लिए इटली के दूतवास में बार-बार आना-जाना हो रहा था। दिल्ली में मेरी मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर चक्कर लगाते रहे।
मैं देशबंधु के दिल्ली कार्यालय में था और ललित सुरजन जी ने मुझे ज़िम्मेदारी दी थी कि वीज़ा मिलने तक उनके साथ ही रहना है। इटली का वीज़ा मिल गया। शैंगेन वीज़ा। वे कई शैंगेन देशों की यात्रा कर सकते थे। पर वे कहीं और नहीं जाना चाहते थे। इटली में एक कवियित्री ने उनकी कविताओं का इटैलियन में अनुवाद किया था। उसी किताब के विमोचन के लिए वे इटली के किसी विश्वविद्यालय में जा रहे थे।
फिर मैंने प्रस्ताव रखा कि आप इटली से इंग्लैंड चले जाइए। विनोद जी स्वाभाविक रूप से हिचके कि वहां तो मैं किसी को जानता नहीं, कैसे जाउंगा?
उन दिनों मधुकर उपाध्याय जी बीबीसी में थे और लंदन में ही पदस्थ थे। मैंने मधुकर जी से बात की और वे सहर्ष तैयार हो गए कि विनोद जी उनके मेहमान रहें। साथ में रेणु अगाल भी थीं। वे भी उत्सुक थीं कि विनोद जी किसी तरह लंदन आ जाएं। फिर ब्रिटिश हाइकमीशन के एक दो चक्कर लगे। हाल ही में केंद्रीय सूचना आयुक्त नियुक्त हुए आशुतोष चतुर्वेदी उन दिनों हाईकमीशन में ही थे। उनके सहयोग से जल्दी ही वीज़ा मिल गया।
विनोद जी इटली गए और वहां से लंदन पहुंचे। जैसा कि तय था, ट्यूब (लंदन की मेट्रो रेल) से उतरते ही स्टेशन पर मधुकर जी मिल गए। विनोद जी मधुकर जी को नहीं पहचानते थे। लेकिन यह ज़िम्मेदारी मधुकर जी ने ली थी कि वे विनोद जी को पहचानकर घर ले जाएंगे।
अब याद नहीं पर, शायद तीन-चार दिन विनोद जी वहां रहे। बीबीसी के दफ़्तर गए। टेम्स के किनारे टहले। संग्रहालय और लाइब्रेरी देखी। लौटकर वे भाव विभोर होकर मधुकर और रेणु की आवभगत को याद करते रहे।
मधुकर जी की तो विनोद जी से स्थाई मित्रता हो गई। दुनिया से विदा होने तक रेणु भी उनको नियमित याद करती थीं। पर मुझे जो बात ठीक तरह से याद है वो विनोद जी का एक जवाब है।
मैंने एयरपोर्ट निकलने से ठीक पहले उनसे पूछा कि वे पहली बार विदेश जा रहे हैं तो वहाँ जाकर क्या देखना चाहेंगे। और विनोद जी ने कहा, ‘मैं वहाँ जाकर देखना चाहता हूँ कि वहाँ गौरैया कैसी होती है।’ फिर धीरे से जोड़ा, ‘यह भी देखना है कि वहां की मिट्टी हमारी मिट्टी से कितनी अलग है।’
यह जवाब विनोद जी ही दे सकते थे। यह उत्सुकता उनके ही कवि मन में हो सकती थी।
आज वे चले गए।
उनकी लिखी पंक्ति है, ‘हाथी चलता जाता था तो उसके पीछे हाथी के होने की जगह छूटती जाती थी’।
विनोद जी के चले जाने से उनके होने की जगह स्थाई रूप से छूट गई है।
कभी न भरे जाने के लिए। आप याद आते रहेंगे विनोद जी।
(विनोद वर्मा के फ़ेसबुक पेज से साभार)