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सरकार क्या अदालतों से भी ऊपर हो गई है?

सियासत के घावों को ठीक करने की एकमात्र मरहम हमारी न्याय व्यवस्था है लेकिन अब ये मरहम भी सहज-सुलभ दिखाई नहीं दे रहा। वक्त ने हमारी न्याय व्यवस्था को भी दूसरे माध्यमों की तरह निराश करने वाला बना दिया है। हाल के एक नहीं, अनेक मामलों में अदालतों के व्यवहार से उम्मीद की जगह निराशा होती है लेकिन चौतरफ़ा डूबती व्यवस्थाओं में अब भी न्याय व्यवस्था तिनके का सहारा बनी हुई है। गनीमत ये है कि हमारी न्याय व्यवस्था अभी सियासत की तरह छुईमुई नहीं हुई है। अपनी स्वस्थ्य आलोचना को सुन और समझ लेती है।

देश के तीन अलग-अलग मामलों पर नज़र डालकर देखिये, आपकी समझ में आ जाएगा कि आख़िर हमारे मुल्क में हो क्या रहा है? पहला मामला आम आदमी पार्टी से जुड़ा है। आम आदमी पार्टी के दो मंत्री पहले से जेल में थे और अब एक और सांसद संजय सिंह को जेलाटन करा दिया गया है। प्रवर्तन निदेशालय को अदालत से संजय की अभिरक्षा पर अभिरक्षा मिल रही है। इससे लगता है कि हमारी अदालतें किसी आरोपी का मुंह और रसूख देखकर जमानतें नहीं देतीं लेकिन कभी-कभी ये भी लगता है कि आरोपी का रसूखदार और सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ खड़ा होना ही उसके जमानत के अधिकार को क्षीण कर देता है।

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संजय सिंह आबकारी घोटाले में आरोपी हैं। उनके दो अन्य साथी पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन भी इसी मामले में पहले से न्यायिक अभिरक्षा में हैं। उन्हें सजा मिलेगी तब मिलेगी अभी तो वे दोनों हमारी न्यायिक कार्यप्रणाली की अघोषित सजा भुगत रहे हैं। उन्हें जमानत नहीं मिल रही है, निश्चित ही अदालत के सामने ऐसे तथ्य रखे गए होंगे जो उनकी जमानत में बाधक होंगे लेकिन आम धारणा ये है कि इन आरोपियों को इरादतन जेल के बाहर नहीं आने दिया जा रहा है। भले ही अदलात की इसमें कोई भूमिका नहीं हो किन्तु जिनकी भूमिका है अदालत को उसे नजर में रखना चाहिए।

आम आदमी पार्टी के ही दूसरे सांसद राघव चड्ढा को भी न्याय के लिए अदालत की ही शरण लेनी पड़ रही है। वे भी राज्यसभा के सदस्य हैं और सरकार की आँखों की किरकिरी हैं। उन्हें भी संजय सिंह की तरह निलंबित किया गया है और उनसे उनका बँगला खाली करने की प्रशासकीय कोशिश की जा रही है। राघव की हाल ही में शादी भी हुई है, ऐसे में बँगला खाली करने के सरकारी आदेश के खिलाफ उन्होंने अदालत की शरण ली है। वह अपने निलंबन को भी अदालत में चुनौती दे रहे हैं। सवाल ये उठता है कि ये सब एक साथ क्यों हो रहा है। राघव चढ्ढा अभी केवल निलंबित हैं, उन्हें बर्खास्त नहीं किया गया है। ऐसे में सरकार उनसे बँगला क्यों छीनना चाहती है? जबकि बंगले के आवंटन में चढ्ढा साहब की कोई गलती नहीं है। 

तीसरा मामला न्यूजक्लिक के प्रमुख प्रबीर पुरकायस्थ और उनके साथियों का है। प्रबीर और उनके साथी पर प्रवर्तन निदेशालय का चीन से कथित रूप से 38 करोड़ रुपये की राशि लेने का आरोप है। उन्हें भी जमानत नहीं मिली गोया कि वे कोई आतंकवादी हों। वे विज्ञान के कार्यकर्ता और जनपक्षधरता से जुड़े एक न्यूज चैनल के मालिक हैं। वे भागकर आखिर कहाँ जायेंगे? 
प्रबीर को जमानत पर छोड़े जाने को लेकर ईडी को क्यों आपत्ति है, ये सब समझ से परे है। समाचार पोर्टल 'न्यूज़क्लिक' के फाउंडर प्रबीर पुरकायस्थ और वेबसाइट के एचआर हेड अमित चक्रवर्ती को 10 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया।
उन्हें गैर कानूनी गतिविधियां रोकथाम (यूएपीए) अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया गया है। आरोप है कि चीन के पक्ष में प्रचार करने के लिए समाचार पोर्टल को विदेश से पैसे मिले थे। अदालतों के सामने सभी आरोपी हैं ,अदालतें उन्हें अभियोजन पक्ष के तर्कों की अनदेखी कर जमानत नहीं दे रही हैं। लेकिन ऐसा हर मामले में नहीं होता। तीनों ही मामलों में आरोपी ज़िम्मेदार नागरिक हैं। दो तो राज्यसभा के सदस्य हैं। एक पुराने पत्रकार हैं। इन तीनों के साथ अभियोजन आतंकवादियों जैसा व्यवहार क्यों कर रहा है? क्यों इनके जमानत पर आने से अभियोजन पक्ष को तकलीफ है? क्या ये तीनों समाज और व्यवस्था के लिए बाहर आने पर ख़तरा हो सकते हैं? शायद नहीं। यदि ऐसा होता तो अदालत यूपी में डॉन माफिया रहे अतीक अहमद के बेटों को रिहा न करती। उन्हें अपने मृत संबंधियों की कब्रों पर फूल चढ़ाने की इजाजत न मिलती। जाहिर है कि अदालतें अपना काम क़ानून के हिसाब से करती हैं। वे दिल्ली में भी वो सब कर सकती हैं जो उत्तर प्रदेश में कर रही हैं, लेकिन सरकार की ही मंशा में जब खोट हो तो अदालतें क्या कर सकती हैं।
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ये पहली बार नहीं हो रहा है कि सरकार अपने राजनीतिक दुश्मनों के साथ अदलाती प्रक्रिया का इस्तेमाल अपने ढंग से कर अपने दुश्मनों को फँसाये रखना चाहती है। विसंगति केवल इतनी है कि अदालतें इस मामले में कुछ कर नहीं सकतीं। सत्येंद्र जैन, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह के बाद आम आदमी के एक और विधायक अमानतुल्लाह पर भी ईडी की कृपादृष्टि पड़ गयी है। मुमकिन है कि वे भी कुछ दिनों बाद तिहाड़ में प्रवास पर भेज दिए जाएँ। जन प्रतिनिधि हों या जन पक्षधरता के लिए काम करने वाले पत्रकार अभिव्यक्ति का नारा लगाकर क़ानूनी कार्रवाई से बच नहीं सकते, उन्हें बचाया भी नहीं जाना चाहिए लेकिन जब जन प्रतिनिधियों और पत्रकारों को सरकार अपना शत्रु मानकर उनके खिलाफ कार्रवाई करे तो पीड़ितों को अदालतों का संरक्षण मिलना चाहिए। अन्यथा वे सब कहाँ जायेंगे? 

पांच राज्यों के चुनावी शोरगुल में मुल्क इन तमाम मुद्दों को भूल गया है। इनको लेकर देश का कोई मंच बोलने की स्थिति में नहीं है। सबके सब आतंकित और डरे हुए हैं। सबको शायद लगने लगा है कि सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ मुंह खोलने का अर्थ सरकारी प्रताड़ना से गुजरना होता है। जिस देश को हम लोकतंत्र की जननी कहते हैं उस देश में इस तरह के हालात सोचनीय हैं। हमारे यहाँ सरकार चाहे तो हत्या के सजायाफ्ता अपराधी के साथ सह्रदयता बरत कर उन्हें समय पूर्व रिहा कर सकती है लेकिन सरकार चाहे तो बिना आरोप सिद्ध हुए भी किसी जन प्रतिनिधि या पत्रकार को जब तक चाहे तब तक जेल में रख भी सकती है। सरकार सबसे ऊपर है। शायद अदालतों से भी ऊपर।

(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से साभार)

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राकेश अचल
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