यूपी का चुनावी परिदृश्य फिर उलझता जा रहा है। शुरू में लगा था मोदी और योगी की बीजेपी अपराजेय है। पर जिस तरह समाज के विभिन्न हिस्सों में सत्ताधारी बीजेपी के विरुद्ध आक्रोश उभरता दिखा और पश्चिम यूपी में जिस तरह किसान आंदोलन ने बीजेपी के खिलाफ़ माहौल खड़ा कर दिया, उससे विपक्ष की सबसे बडी पार्टी-सपा को फायदा मिलता नजर आया। 

अखिलेश-जयंत के गठबंधन ने उसे और ताकत दी। पर कुछ ही दिनों बाद विपक्ष की उस बढ़त पर संकट मंडराता नजर आया। 

कांग्रेस पहले से बेहतर स्थिति में होती तो उसे फायदा मिल सकता था। पर आज भी वह बहुत आगे नहीं बढ़ सकी है। अपने शीर्ष नेतृत्व के मन-मिजाज और अतीत के 'सियासी गुनाहो' के चलते देश की सबसे पुरानी पार्टी यूपी में उस तरह स्वीकार्य नहीं है, जिस तरह वह राजस्थान या छत्तीसगढ़ में लगभग हर वर्ग में स्वीकार्य है! 
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यूपी के समाज के बड़े हिस्से, खासकर बहुजन में वह आज भी संदिग्ध है। पर यूपी का मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य कांग्रेस को लेकर एक अलग कहानी भी बयां करता है। 

वो ये कि यूपी में सिर्फ कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है जो बीजेपी-संघ के विरूद्ध ईमानदारी से लड़ रही है। यह अलग बात है कि इस चुनाव में वह बहुत अच्छा प्रदर्शन करेगी तो तीसरे स्थान पर ही रहेगी! 

दिलचस्प कि कांग्रेसियों ने यूपी के मैदान में अब तक लाल टोपीधारियों की तरह 'फरसा-गड़ासा' भी नहीं थामा! वे कुछ सामाजिक मुद्दों को उठाकर चुनाव के दौरान अपने जनाधार में इज़ाफा करने की कोशिश कर रहे हैं। 

लाल टोपी-धारियों की तरफ से फिलहाल फरसा-गड़ासा भांजा जा रहा है। मज़ेदार है यह सब देखना! उनका कैम्पेन भी बहुत बिखरा-बिखरा और ढीला है। 
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बीजेपी आश्वस्त है कि उसका उच्चवर्णीय-आधार उसके साथ ही रहेगा और लाल टोपीधारियों के 'फरसा-गड़ासा सियासी नृत्य' से क्षुब्ध होकर पिछड़ो का एक नया हिस्सा भी उससे जुड़ सकता है। 

दलितों में बसपा का आधार पहले से और ज्यादा घटा है। देखना होगा कि बसपा से टूटा यह हिस्सा 'लाल टोपीधारियो' के साथ जाता है या भारतीय जनता पार्टी  के साथ? 

उर्मिलेश के फेसबुक पेज से