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कांग्रेस ग़ैर नेहरू-गाँधी परिवार के नेता को अध्यक्ष बनाने से क्यों डरती है?

मुश्किल कांग्रेस में नया अध्यक्ष ढूँढने की नहीं है, परेशानी है पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को मज़बूत करने की, जिसके लिए कोई तैयार नहीं है। आज ये सवाल इसलिए खड़े हो रहे हैं क्योंकि कांग्रेस पिछले 6 साल से सत्ता में नहीं है। कांग्रेस नेताओं को सत्ता के बिना रहने की आदत नहीं है। 
विजय त्रिवेदी

देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस में विचार-मंथन चल रहा है। मुझे समुद्र मंथन की याद आ रही है। कहा जाता है कि समुद्र मंथन में विष भी निकला था और अमृत भी। दरअसल, हर मंथन में यही होता है, लेकिन सवाल होता है कि कौन शिव बन कर विष को गले में उतारना चाहता है, अमृत के लिए तो देवताओं से लेकर अब तक छीना-झपटी होती ही रही है। कांग्रेस में भी इसी अमृत के लिए पाले खिंचने लगे हैं। पार्टी की पिछले एक साल से अंतरिम अध्यक्ष रहीं सोनिया गाँधी के ‘मन की बात’ कांग्रेसियों को सुनाई आ गई है कि अब वो इस पद पर नहीं रहना चाहतीं। मुझे इस बात की क़तई जानकारी नहीं कि कांग्रेस के दो दर्जन आला नेताओं की चिट्ठी के बाद यह ‘मन की बात’ सामने आई है। सवाल तो किसी ने यह भी पूछा कि 17 साल अध्यक्ष रहने के बाद भी उन्हें ही अंतरिम अध्यक्ष बनाने की ज़रूरत क्यों पड़ी, कम से कम तब तो ग़ैर नेहरू-गाँधी परिवार के नेता को यह ज़िम्मेदारी सौंपी जा सकती थी, इससे उनके रहने से कांग्रेस के फ़ायदे नुक़सान का अंदाज़ा भी हो सकता था। अब जब चुनाव आयोग की मजबूरी सामने हो तो फिर नए अध्यक्ष के लिए कोशिशें शुरू करनी ही पड़ेंगी।

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सवाल नेहरू–गाँधी परिवार से ही अध्यक्ष होने का नहीं है और सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी या फिर प्रियंका गाँधी के अध्यक्ष होने में भी किसी दूसरे को क्या परेशानी हो सकती है। सवाल यह है कि कांग्रेस ग़ैर नेहरू-गाँधी अध्यक्ष चुनने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा पा रही? नेहरू-गाँधी परिवार के नेता यानी सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के रहते हुए भी कांग्रेस लोकसभा में अपने सबसे कम सीटों 2014 में 44 और 2019 में 52 पर पहुँच गईं तो इससे ज़्यादा नुक़सान क्या हो सकता है? कांग्रेस के ग़ैर नेहरू–गाँधी अध्यक्ष नरसिंह राव के वक़्त 1996 में 140 सीटें और सीताराम केसरी के वक़्त 1998 में 141 सीटें मिली थीं जब उन्हें चुनाव के बाद बाहर का रास्ता दिखाया गया था। यानी सोनिया गाँधी के कार्यकाल से तीन गुना ज़्यादा सीटें।

आज़ादी के बाद का यदि कांग्रेस का इतिहास देखें तो अब तक कुल 19 कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं, पहले अध्यक्ष जे बी कृपलानी थे। इन 73 साल में हुए 17 आम चुनावों में 7 बार ग़ैर नेहरू-गाँधी नेता कांग्रेस अध्यक्ष रहा, उनमें 4 बार चुनाव जीते। जबकि नेहरू-गाँधी परिवार के रहते हुए 10 चुनावों में से चार में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा।

आज़ादी के बाद से 14 ग़ैर नेहरू-गाँधी कांग्रेसी अध्यक्ष रहे हैं और उनकी सफलता की दर 57 फ़ीसदी रही है। राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी तीनों के ही नेतृत्व में कांग्रेस ने चुनाव हारे हैं। राजीव गाँधी के वक़्त तो जब कांग्रेस के पास 400 से ज़्यादा सीटें थीं, तब 1989 में कांग्रेस चुनाव हार गई और 2014 में भी केन्द्र में यूपीए की सरकार थी लेकिन सोनिया गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस को सबसे कम 44 सीटें मिलीं। आज़ादी के बाद से 73 साल में 38 साल नेहरू-गाँधी परिवार अध्यक्ष पद पर रहा है। 1998 से अब तक के 22 साल में सिर्फ़ सोनिया और राहुल गाँधी अध्यक्ष रहे जबकि इस दौरान बीजेपी में दस लोग अध्यक्ष बने हैं।

इससे पहले देखें तो 1957 में यू एन ढेबर अध्यक्ष थे कांग्रेस ने 371 सीटें जीती थीं। 1962 के चुनावों में नीलम संजीव रेड्डी के रहते हुए कांग्रेस को 361 सीटें, 1967 में के कामराज के वक़्त 283 सीटें और 1971 में जब जगजीवन राम अध्यक्ष थे तो कांग्रेस को 352 सीटें मिली थीं। 

ऐसे में कांग्रेस को इस बात से डरने की ज़रूरत क्या है कि अगर कोई नया अध्यक्ष बन गया तो कांग्रेस का राजनीतिक भविष्य ख़त्म हो जाएगा।

दिक्कत नया अध्यक्ष ढूँढना नहीं, आंतरिक लोकतंत्र है!

मुश्किल कांग्रेस में नया अध्यक्ष ढूँढने की नहीं है, परेशानी है पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को मज़बूत करने की, जिसके लिए कोई तैयार नहीं है। आज ये सवाल इसलिए खड़े हो रहे हैं क्योंकि कांग्रेस पिछले 6 साल से सत्ता में नहीं है। कांग्रेस नेताओं को सत्ता के बिना रहने की आदत नहीं है। सत्तर के दशक में ‘इंदिरा इज़ इंडिया और इंडिया इज़ इंदिरा’ का नारा देने वाले और 1977 के चुनावों तक कांग्रेस के अध्यक्ष रहने वाले देवकांत बरुआ ने सबसे पहले पाला बदला था। इमरजेंसी के मास्टरमाइंड माने जाने वाले विद्या चरण शुक्ल ने शाह आयोग के सामने गवाही दी थी तो संकट सत्ता का है और यह कांग्रेस के चरित्र में है। साल 2019 में कांग्रेस के चुनाव हारने के बाद तब के अध्यक्ष राहुल गाँधी ने चार पेज की एक चिट्ठी लिखी थी। उसमें उन्होंने कहा था कि कांग्रेस में शक्तिशाली लोग सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं कोई सत्ता का त्याग करने का साहस नहीं दिखाता। उन्होंने कहा था- ‘हमें सत्ता की इच्छा के बिना त्याग और गहरी वैचारिक लड़ाई लड़ने की ज़रूरत है उसके बिना हम अपने विरोधियों को नहीं हरा पाएँगे’। लेकिन शायद किसी कांग्रेसी नेता ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। उसका नज़ारा तो हाल के दिनों में राजस्थान और मध्य प्रदेश कांग्रेस में देखने को मिल ही गया और उसका नतीजा भी। राहुल गाँधी ने कहा था कि मैंने व्यक्तिगत स्तर पर लड़ाई लड़ी और तब ख़ुद को अकेला पाता था।

विचार से ख़ास

कहने को तो हर बार कांग्रेस को मज़बूत करने की कोशिश का दिखावा किया गया। सोनिया गाँधी के अध्यक्ष बनने के बाद से अब तक इस काम के लिए चार बार पार्टी ने कमेटियाँ बनाईं। पहली कमेटी के रूप में पी ए संगमा के नेतृत्व में टास्क फ़ोर्स बनाई गई, फिर 1998 में चुनावों के हार के बाद ए. के एंटनी कमेटी बनी, लेकिन दोनों ही कमेटियों की रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। यूपीए सरकार के दौरान सोनिया गाँधी ने कांग्रेस में भविष्य की चुनौतियों का आकलन करने के लिए वीरप्पा मोइली कमेटी बनाई, जिसने पार्टी के पुनर्गठन और सुधार की सिफ़ारिश की और पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की कमी की पहचान की, लेकिन इसकी सिफ़ारिशों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। फिर 2014 के चुनावों में करारी हार के बाद एक बार फिर ए के एंटनी कमेटी बनी, लेकिन उसकी रिपोर्ट को आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया।

यानी धूल थी चेहरे पर और आईना साफ़ करने की भूल कांग्रेस पार्टी करती रही। अभी जिन 23 दिग्गज नेताओं ने चिट्ठी लिखी, उनका भी गंभीर आरोप यह है कि 2019 के चुनावों में हार के बाद भी कोई आत्म निरीक्षण की कोशिश नहीं की गई। कांग्रेस का एआईसीसी सेशन साल 2018 से अब तक नहीं बुलाया गया है जबकि साल में एक बार यह होना ज़रूरी है।

सारा दोष सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को देना भी ठीक नहीं है। राहुल गाँधी ने 2019 के बाद ज़िम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद छोड़ दिया, सोनिया गाँधी यह ज़िम्मेदारी 2017 में ही छोड़ चुकी थीं, लेकिन कांग्रेसी उन्हें छोड़ने के लिए तैयार नहीं।

चापलूसी की हद यह है कि अब फिर से गाँधी परिवार के प्रति निष्ठा बताने का सिलसिला शुरू हो गया है यानी कांग्रेस के प्रति नहीं, गांधी परिवार के प्रति निष्ठा ज़रूरी है। कोशिश यह भी हो रही है कि किसी विश्वस्त को यह ज़िम्मेदारी दे दी जाए यानी भरत खड़ाऊ रख कर पार्टी संभालें। विचारधारा के बजाय वफ़ादारी जब तक अहम रहेगी और एक कठपुतली अध्यक्ष को नेता बना कर दिखावटी कोशिश की जाएगी तो कोई फ़ायदा नहीं होने वाला। 

अब यह वक़्त है कांग्रेस के नेताओं को हिम्मत दिखाने का और कांग्रेस को बचाने का। इसे गाँधी परिवार के अपमान की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। घर बचाना ज़रूरी है और उसके लिए हिम्मत चाहिए। भरोसा कीजिए डर के आगे जीत है।

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