साल 2004  के चुनावों से पहले ‘शाइनिंग इंडिया’ यात्रा के दौरान उस दौड़ते एयरकंडीशंड रथ में मैं  बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी का इंटरव्यू कर रहा था। सवाल था कि पूरे जीवन में आप किसे अपना इकलौता मित्र कहेंगे। बिना एक क्षण रुके आडवाणी ने कहा, ‘वाजपेयी जी!’ फिर रुक कर बोले, ‘वाजपेयी जी मेरे मित्र ही नहीं हैं, मेरे गाईड भी हैं, मेरे नेता भी हैं। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है और मुझे अब भी इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं है कि मैं उन जैसा भाषण नहीं दे सकता। वाजपेयी जितना लोकप्रिय नेता कोई दूसरा नहीं है।’
मैंने सवाल किया, ‘इतने लंबे वक्त तक ये दोस्ती चलने का राज़ और क्या कभी कोई मतभेद नहीं हुए?’ आडवाणी ने कहा, ‘एक दूसरे के प्रति सम्मान और विश्वास। वाजपेयी जी ने मुझ पर हमेशा भरोसा किया है और मुझे लगता है कि यह हमारा सौभाग्य है कि हमें वाजपेयी जैसा व्यक्तित्व नेतृत्व के तौर पर मिला लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम दोनों के बीच कभी किसी मुद्दे पर मतभेद नहीं हुए हों। मतभेद रहे लेकिन मनभेद नहीं हुआ कभी और वाजपेयी हमेशा दूसरों के मन की बात को और पार्टी के फ़ैसले को सर्वोपरि रखते रहे।’
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मैंने एक और सवाल किया, ‘क्या बीजेपी में नई पीढ़ी में आप किसी ऐसी दूसरी जोड़ी का नाम ले सकते हैं जिसे वाजपेयी-आडवाणी की दोस्ती की श्रेणी में रखा जा सके?’
आडवाणी मुस्कराए, थोड़ा रुके, फिर बोले, ‘यह तो अब उस पीढ़ी को तय करना है और सब लोग अपने अपने तरीके से काम करते हैं लेकिन हमारी पार्टी में सभी लोग पार्टी के साथ चलते हैं और सामूहिक नेतृत्व में विश्वास करते हैं।’
‘क्या प्रधानमंत्री नहीं बन पाने का अफ़सोस है?’
आडवाणी ने थोड़ा रुककर कहा, ‘नहीं। मुझे पार्टी ने जितना दिया है वह मैं समझता हूँ कि मेरी योग्यता से ज़्यादा ही है और वाजपेयी जी के नेतृत्व में ही हम आगे चलेंगे।’
आज बीजेपी में एक नई जोड़ी है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी। वाजपेयी सरकार में आडवाणी भी गृहमंत्री होते थे। बहुत से लोग इन दोनों जोड़ियों में कई बार तुलना करने की कोशिश करते हैं, मुझे लगता है कि यह तुलना ठीक नहीं है। वाजपेयी और आडवाणी का रिश्ता ज़्यादा दोस्ताना रहा जबकि मोदी-शाह की जोड़ी में आपसी विश्वास और भरोसा हद से ज़्यादा है।
अटल-आडवाणी की दोस्ती पचास साल से ज़्यादा रही लेकिन आडवाणी के जानने वाले एक सहयोगी के मुताबिक़ इसे ‘टेंस रिलेशनशिप’ कहा जाना चाहिए। उस रिश्ते में तनाव भी बना रहा, भले ही उसकी वजह दोनों नेताओं के परिवार रहे हों। इसकी एक बड़ी वजह शायद ये रही कि आडवाणी ने अपनी शुरुआत अटल जी के कार्यालय सहायक (ऑफिस असिस्टेंट) के तौर पर की थी। उस कारण वे अटल जी के बड़े कद से कभी उबर नहीं पाए। जब भी अटल जी की बात आती तो शायद आडवाणी को यह बात कचोटती रहती कि वे अटल जी की तरह जननेता नहीं हैं।
वाजपेयी तो 1957 में ही मास लीडर हो गए थे लेकिन आडवाणी बहुत ज़माने तक उनके सहायक की भूमिका में ही रहे। दूसरी तरफ 1984 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की करारी हार के बाद संघ परिवार को वाजपेयी के ख़िलाफ़ खड़े होने का मौक़ा मिल गया था। संघ नेताओं ने वाजपेयी की जगह 1986 में आडवाणी को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। फिर राम मंदिर निर्माण आंदोलन के बाद आडवाणी की लोकप्रियता का ग्राफ़ जिस तेज़ी से बढ़ा, वह वाजपेयी और उनके परिवार को ज़्यादा पसंद नहीं आया। वाजपेयी अयोध्या के लिए रथयात्रा के ख़िलाफ थे। यह नाराज़गी उन्होंने ज़ाहिर भी की लेकिन जब पार्टी ने फ़ैसला कर लिया तो वाजपेयी ने दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब के बाहर आडवाणी की रथयात्रा को हरी झंडी दिखाई। उस वक्त पूरी बीजेपी एक तरफ थी और वाजपेयी दूसरी तरफ।

आडवाणी हमेशा ही संघ परिवार के पसंदीदा नेता रहे और जब 1991 में लोकसभा चुनावों के बाद संघ परिवार ने वाजपेयी के बजाय आडवाणी को लोकसभा में विपक्ष का नेता बना दिया तो यह भी अटल जी को पसंद नहीं आया और एक गांठ शायद मन में रह गई।

इस घटना के बाद दोनों नेताओं के परिवारों में भी तल्खी सी बढ़ती गई। वाजपेयी परिवार के लोग यह मानते रहे कि अटल जी से बड़ा कोई नेता नहीं और पार्टी की ताक़त वाजपेयी की वजह से ही है, बल्कि आडवाणी की कट्टरवादी छवि से तो नुक़सान हो रहा है।
1996 की 13 दिनों की सरकार में राजनीतिक दलों का साथ नहीं मिलने के लिए भी आडवाणी को ज़िम्मेदार माना जाता रहा। आडवाणी परिवार को हमेशा ही यह लगता रहा कि संगठन में सारी मेहनत आडवाणी करते हैं लेकिन मलाई अटल जी खाते हैं। उस वक़्त तो तनाव ज़्यादा बढ़ गया जब 1995 में आडवाणी ने बिना किसी से सलाह किए अटल जी का नाम पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर ऐलान कर दिया, जबकि उस वक्त आडवाणी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे।
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1998-99 की बात है जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। तब आडवाणी को पार्टी का अध्यक्ष बनाने की बात आई। वेंकैया नायडू संघ का यह प्रस्ताव लेकर अटल जी के पास गए थे, तो अटल जी ने अपनी स्टाइल में कहा कि यह संभव नहीं है और बात वहीं ख़त्म हो गई। वाजपेयी तब आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष बना कर सत्ता के दो केन्द्र नहीं बनाना चाहते थे। एक बार वेंकैया नायडू ने बीजेपी अध्यक्ष रहते हुए आडवाणी को लौह पुरुष और वाजपेयी को विकास पुरुष कह दिया था। उस पर वाजपेयी ने खासी नाराज़गी ज़ाहिर की थी और वेकैंया नायडू माफी मांगने के लिए प्रधानमंत्री आवास तक दौड़ते हुए गए थे।

तब संघ परिवार अटल जी से मुक्ति चाहता था तो 2002 में राष्ट्रपति चुनाव के बहाने आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने की कोशिशें हुईं। इसके लिए अटल जी के सामने राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव रखा गया।

संघ और बीजेपी के कुछ नेता एक सवेरे नाश्ते पर वाजपेयी से मिले और उनके सामने राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव रखा था लेकिन वाजपेयी ने उसे भी टाल दिया तब एपीजे कलाम का नाम उन्होंने राष्ट्रपति के लिए आगे कर दिया। बाद में आडवाणी को उप प्रधानमंत्री बनाया गया। वाजपेयी को लगता था कि उस लोकसभा में वे ही प्रधानमंत्री बने रहें और जब अगले चुनाव पार्टी जीत जाए तो फिर वाजपेयी कुर्सी आडवाणी को सौंप दें। शायद यही एक बड़ी वज़ह रही कि 2004 में चुनाव वक्त से क़रीब 6 महीने पहले ही करा दिए गए। आडवाणी तब हड़बड़ी में थे, उन्होंने अपने सहयोगियों को कहा कि वे तो उससे भी पहले राजस्थान, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनाव कराना चाहते थे क्योंकि उस वक्त माहौल बीजेपी के पक्ष में था। तीनों विधानसभा चुनाव तब बीजेपी ने जीते भी। फिर सरकार के फ़ैसले के बाद भी चुनाव आयोग ने तारीखों के ऐलान में देर कर दी। उसी वक्त आडवाणी ‘शाइनिंग इंडिया’ यानी ‘भारत उदय’ की यात्रा पर निकल गये। वाजपेयी तब भी उस यात्रा के पक्ष में नहीं थे लेकिन आडवाणी को लगता था कि यदि चुनाव नतीजे बीजेपी के पक्ष में आए तो इसका श्रेय यात्रा के बहाने से उन्हें मिलेगा और फिर उन्हें पीएम बनने से कोई नहीं रोक पाएगा।

वाजपेयी के सहयोगी रहे शक्ति सिन्हा की मानें तो वाजपेयी और आडवाणी की दोस्ती सबसे लंबी और गहरी राजनीतिक दोस्ती मानी जाएगी और दोनों एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह से समझते भी रहे। उनके साथ रहने वाले कुछ लोग खासतौर से कुछ पत्रकार मित्र और पार्टी में भी कुछ लोग उन्हें इस बात पर उकसाते रहते थे कि पार्टी 1984 में दो से 119 तक सिर्फ उनकी वज़ह से पहुंची है।
वाजपेयी और आडवाणी के रिश्ते में खटास मिठास तो चलती ही रही। वाजपेयी और आडवाणी हमेशा एक-दूसरे को सम्मान देते रहे। एक-दूसरे की बात मानते रहे और जब भी कोई उनमें से किसी एक के पास कोई मुद्दे को लेकर जाता तो वह अपनी राय देने के बाद दूसरे से मिलने को ज़रूर कह देता, लेकिन बहुत से मुद्दे ऐसे भी हुए जो थोड़े मुश्किल भरे थे। 
वाजपेयी–आडवाणी की दोस्ती को आप हिन्दुस्तान की राजनीति की जोड़ी नंबर-1 भी कह सकते हैं। इतने साल साथ रहकर भी कभी नहीं लगा कि दोनों में से किसी ने एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कभी कोशिश की हो, कम से कम सार्वजनिक मंच पर तो कभी नहीं। दोनों में एक-दूसरे के प्रति सम्मान और विश्वास का भाव रहा। दोनों अपनी सीमाएं जानते रहे, एक-दूसरे की कमज़ोरियों और ताकत को समझ कर आगे बढ़ते रहे। आडवाणी हमेशा ही कहते रहे कि उन्हें इस बात को लेकर संकोच होता रहा कि वे वाजपेयी की तरह कभी अच्छा भाषण नहीं दे सकते। आडवाणी में संगठन को चलाने की खूबी है तो वाजपेयी आम आदमी को आकर्षित करने वाले नेता हैं।
एक बार वायुसेना के विशेष विमान से वाजपेयी जा रहे थे। बीजेपी सांसद विजय गोयल भी उनके साथ थे। रास्ते में आराम के क्षणों में गोयल, वाजपेयी से उनकी पसंदीदा चीज़ें पूछ रहे थे कि आपको कौन सा खाना सबसे ज़्यादा पसन्द है, बताया चाइनीज़, खीर, खिचड़ी। आपकी मनपसन्द किताबें कौन सी हैं तीन–चार किताबों के नाम लिए और जब गोयल ने उनसे पूछा कि आपके सबसे अच्छे दोस्त कौन हैं तो वाजपेयी ने सिर्फ़ एक जवाब दिया– आडवाणी।