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'मैं कर्मकांडी ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ, धर्मांन्धता पर आघात करता हूँ' 

यह आरोप कि मैं हिंदू आस्था पर आघात करता हूँ तथा बाकी धर्मों की या तो पक्षधरता करता हूँ, बिल्कुल आधारहीन है। मैं आस्था पर नहीं, धर्मांधता और सांप्रदायिकता पर आघात करता हूँ क्योंकि दोनों ही समाज और मानवता के लिए घातक हैं। यह कहना है लेखक ईश मिश्र का। इस लेख में पढ़ें उनके विचार। 
लोग मेरे बारें में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से कहते रहते हैं कि मैं हिंदू आस्थाओं पर आघात करता रहता हूँ, अन्य धर्मों, ख़ासकर इसलाम की या तो पक्षधरता करता हूँ या डर से उनपर कलम उठाने की हिम्मत नहीं करता। वैसे तो सफ़ाई देने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन फिर भी कुछ बातें स्पष्ट करना चाहता हूँ।
मैं कभी किसी भी आस्था पर आघात नहीं करता, एक मार्क्सवादी नास्तिक होने के नाते धर्म पर मेरी स्पष्ट राय है, जिसे मैं कई बार शेयर कर चुका हूँ। मेरी परवरिश एक कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मण परिवार में हुई। मेरी पत्नी समेत मेरा लगभग पूरा खानदान धार्मिक है। ज्ञान की तलाश में सवाल-दर-सवाल की प्रक्रिया भगवान तक पहुँची। सामाजीकरण के दौरान तमाम मूल्य आप आत्मसात कर लेते हैं, वे व्यक्तित्व के अभिन्न अंग बन जाते हैं। विरासत में मिले अपने जातीय और धार्मिक पूर्वग्रह-दुराग्रह स्वाभाविक और तार्किक (रेसनल) लगते हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण बालक की नास्तिकता की सुविचारित यात्रा विकट आत्मसंघर्षों की यात्रा थी, इसके लिए असाधरण विवेकशक्ति तथा अदम्य साहस की ज़रूरत थी। कठिनाई में मैं हमेशा खुद से कहता हूँ, आसान काम तो सब कर लेते हैं।
धर्म वेदना की अभिव्यक्ति और वेदना का प्रतिरोध दोनों होता है, जब तक आत्मबल की अनुभूति नहीं होती तब तक धर्म शक्ति का भ्रम प्रदान करता है। 'जिसका कोई नहीं उसका ख़ुदा है यारों'।
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'धर्म लोगों की अफीम है'

मार्क्स के हवाले लोग धर्म को अफ़ीम कहते हैं, यह वाक्य का छोटा हिस्सा है। उनकी बौद्धिक यात्रा की शुरुआत (1843-44) में 'हेगल के अधिकार के दर्शन की समीक्षा' शीर्षक से एक लेख में उन्होंने यह वाक्य लिखा है -- 'धर्म आत्माविहीन हालात की आत्मा है, हृदयविहीन दुनिया का हृदय है, पीड़ित की आह है, धर्म लोगों की अफीम है'। मैंने कुरान से कोरोना से लड़ने की मौलाना की तक़रीर का जो वीडियो शेयर किया था, उसका कैप्सन दिया था, 'ऐसे बँटती है धर्म की अफ़ीम'।
जैसा हमने पहले कहा कि हम किसी की धर्म पर आघात नहीं करते, व्यापक सामाजिक कुपरिणाम वाली धर्मांधता पर करते हैं, जैसा अभी तबलीग़ी जमात की जहालती तक़रीर पर किया। हम इसलिए किसी की आस्था पर हमला नहीं करते क्योंकि हम धर्म नहीं समाप्त करना चाहते, धर्म खुशी की खुशफहमी देता है, उम्मीद की भ्रांति देता है। 
मेरी पत्नी नवरात्र भर रोज दुर्गा माता से कोरोना खत्म करने के चमत्कार की प्रार्थना करती थीं, उन्हें उम्मीद है कि दुर्गा जी कोरोना ज़रूर ख़त्म कर देंगी। जब तक किसी को सचमुच की खुशी नहीं मिलती तब तक खुशफहमी नहीं छीन सकते, सचमुच की उम्मीद न हो तो भ्रांति ही सही।

अराजकता और मार्क्सवाद

अराजकतावाद और मार्क्सवाद में यह फर्क है कि अराजकतावाद राज्य को समाप्त करना चाहता है, मार्क्सवाद उन हालात को जिससे राज्य की आवश्यकता होती है। राज्य वर्ग शासन है, वर्ग खत्म हो जाएंगे यानी समाज वर्गविहीन हो जाएगा तो राज्य अपने आप बिखर जाएगा। उसी तरह अराजकतावादी नास्तिक धर्म समाप्त करना चाहता है, मार्क्सवादी उन हालात को जिनसे धर्म की ज़रूरत होती है। धर्म खुशी की खुशफहमी देता है, वास्तविक खुशी मिलेगी तो खुशफहमी की ज़रूरत नहीं होगी, धर्म अनावश्यक हो अपने आप ख़त्म हो जाएगा।
अंत में जिस बात के लिए यह लेख शुरू किया, कई बार भूमिका इतनी बड़ी हो जाती है कि टेक्स्ट गौण हो जाता है। तो यह आरोप कि मैं हिंदू आस्था पर आघात करता हूँ तथा बाकी धर्मों की  पक्षधरता करता हूँ, बिल्कुल आधारहीन है। मैं आस्था पर नहीं, धर्मांधता और सांप्रदायिकता पर आघात करता हूँ क्योंकि दोनों ही समाज और मानवता के लिए घातक हैं। मैंने एक लेख लिखा था, शेयर भी किया था -- 'धर्म और सांप्रदायिकता'। जिसमें यह साबित किया है कि एक आस्था के रूप में धर्म का सांप्रदायिकता से कुछ नहीं लेना-देना नहीं है। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं, धर्म के नाम पर उन्मादी लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है।

आस्था पर आघात

राज के. मिश्र ने एक पोस्ट डाला है कि अल्लाह के अस्तित्व को खारिज करने से जो लोग खुश होते हैं वे भगवान के रूप में राम को नकारने से नाराज़ होते हैं, या ऐसा ही कुछ। एक रेल यात्रा में दो सहयात्री अपने अपने ख़ुदा की प्रशंसा और दूसरे के ख़ुदा की आलोचना करते बहस कर रहे थे। बीच में दोनो को नकारते हुए मैंने टांग अड़ा दी, दोनों मेरे ख़िलाफ़ एक हो गए। विरासत में संस्कार के रूप में मिले जातीय-धार्मिक पूर्वग्रहों तथा जातिवादी-धार्मिक मिथ्या चेतना से मुक्ति मुश्किल है, कठिन आत्मसंघर्ष की ज]रूरत पड़ती है। बहुत लोग नाम के आगे-पीछे प्रोफेसर और मिश्र देखकर जोड़ते हैं, प्रोफेसरी और मिश्रपन के कोई गुण न देख निराश होते हैं। इन पूर्वग्रहों-मिथ्या चेतना से ऊपर उठ समीक्षा कुछ लोगों को आस्था पर आघात लगता है।
बिल्कुल अंत में, कुछ भी करने का मक़सद होता है, मोटिव होता है। पहली बात मुझे पक्षधरता करना होगा तो हिंदू की करूंगा, मेरे सारे परिजन भक्त और कुछ अंधभक्त है, उनमें अलोकप्रियता की जगह लोकप्रियता हासिल करूंगा। मेरे विस्तारित खानदान (गाँव) के कई लड़के मेरी लिस्ट में हैं। मेरा भाई और मेरी बेटियाँ भी मेरी लिस्ट में हैं। मेरे गाँव के कई लड़के मुझसे बहुत नाराज़ रहते थे कि मैं अपने जाति-खानदान के विरुद्ध लिखता हूँ। उनमें से अब कई मेरी बातें थोड़ा-बहुत पसंद करने लगे हैं। तो अगर किसी धर्मांधता की पक्षधरता करना होगा तो मेरा हित ब्राह्मणीय धर्मांधता की पक्षधरता में होगा क्योंकि हिंदुत्व ब्रह्मणवाद (जातिवाद) का ही राजनैतिक संस्करण है। मैंने 1986-87 में एक शोधपत्र लिखा था आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी की विचारधाराओं की तुलनात्मक समीक्षा पर, जो कई बार शेयर कर चुका हूँ।
निष्कर्ष यह है कि दोनों एक दूसरे के पूरक तो हैं ही, सभी प्रमुख सामाजिक, राजनैतिक आर्थिक मुद्दों पर उनकी समान राय है। रेखागणित की भाषा में दोनों समरूप (सिमिलर) नहीं सर्वांगसम (कांग्रुएंट) त्रिभुजों की तरह हैं।
दोनों के ही सांगठनिक ढांचे अधिनायकवादी हैं। एक फॉर्मेट बना लीजिए और खाली जगह छोड़ दीजिए। आरएसएस पर निबंध लिखना हो तो आरएसएस और हिंदू राष्ट्र लिख दीजिए, जमाते इसलामी पर लिखना हो तो जमाते इसलामी और निजामे इलाही लिख दीजिए।
पक्षधरता के बाद कई लोग कहते हैं कि डर से इसलाम पर नहीं लिखता। अरे भाई! बेबात इसलाम- इसलाम अभुआने लगूँ जैसे कई अंधभक्त बेबात वाम-वाम अभुआने लगते हैं? जिसकी भगवान और भूत की भय ख़त्म हो जाए, उसे किसी का भय नहीं होता। क्या कर लोगे? मार दोगे? कोई किसी को मार सकता है। निवेदन है, जो लिखूँ उसकी समीक्षा करें। 'इस पर क्यों नहीं लिखते?' सवाल तलब न करें, या 'इस पर लिखो' का निर्देश न दें, हर किसी की सीमित बौद्धिक-शारीरित क्षमता होती है, जिस पर मैं नहीं लिखता,आप ख़ुद लिखें।
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