पटना की दोपहर में गर्मी चुभती है। गंगा बहती है जैसे कोई भूली हुई कसम हो। बिहार अपने टूटे शीशे में खुद को देखता है। यह वही धरती है जिसने कभी सम्राटों और ज्ञान की रोशनी को जन्म दिया था। आज यह भारत का सबसे बड़ा विरोधाभास बन गया है। यह वही जगह है जहां प्राचीन गणराज्यों ने लोकतंत्र की नींव रखी थी। आज यहां गरीबी इतनी गहरी है कि नालंदा की संगमरमर की यादें भी फीकी लगती हैं।

नीतीश, प्रशांत किशोर, तेजस्वी
बिहार चुनाव 2025 में सियासी हलचल तो तेज़ है, लेकिन क्या असली बदलाव खामोशी के बीच पनप रहा है? राजनीति में जातिगत समीकरण और लोगों के आर्थिक हालात क्या चुनाव नतीजे पर छाप छोड़ेंगे?
2025 के विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। वोट 6 और 11 नवंबर को होंगे। नतीजे 14 को आएंगे। यह चुनाव सिर्फ नेता चुनने का नहीं है। यह आत्मा की लड़ाई है।
क्या बिहार फिर से जाति के धागों से सिले गठबंधनों को अपनाएगा या आईना तोड़कर कुछ नया देखने की हिम्मत करेगा? यह सिर्फ राजनीतिक सवाल नहीं है। यह अस्तित्व का सवाल है। बिहार जिसने आस्था और साहस को जन्म दिया वह सिर्फ ज़िंदा रहने से बेहतर का हकदार है।
























