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राहुल के ‘निष्काम’ भाव से बौखला रही है बीजेपी!

मानहानि मामले में राहुल गाँधी को मिली सज़ा पर रोक के फ़ैसले पर बीजेपी आईटी सेल के इंचार्ज अमित मालवीय ने ट्वीट किया कि ‘बकरे की अम्मा कब तक ख़ैर मनाएगी?’ राजनीतिक मर्यादा की कसौटी पर यह ट्वीट न सिर्फ भद्दा बल्कि हिंसक भी था। अगर यही मुहावरा विपक्ष के किसी नेता ने इस्तेमाल किया होता तो सोशल मीडिया ही नहीं, मुख्यधारा का मीडिया भी ‘मोदी की हत्या की साज़िश’ का संकेत मानते हुए पिल पड़ा होता।

बहरहाल, अमित मालवीय का ट्वीट बीजेपी की छिपी मंशा का प्रकटीकरण भी है। शारीरिक रूप से न सही, राजनीतिक रूप से राहुल गाँधी का ख़ात्मा बीजेपी का कोई छिपा इरादा नहीं है। यह एक स्पष्ट प्रोजेक्ट है जो बीते एक दशक से जारी है और जिस पर पानी की तरह पैसा बहाया गया है। लोकतांत्रिक दुनिया में शायद ही कोई ऐसा नेता हो जिसकी छवि बरबाद करने का ऐसा संगठित और निरंतर अभियान चलाया गया हो जैसा राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ चला है। भारत जोड़ो यात्रा की क़ामयाबी के बाद ही दुनिया, ख़ासतौर पर भारत के आम लोग बड़े पैमाने पर जान पाये कि राहुल उस कुप्रचारित छवि से पूरी तरह उलट हैं। उनके जैसा अध्ययनशील, दृष्टिसंपन्न और सादा इंसान समकालीन राजनीतिक परिदृश्य में एक अपवाद की तरह है। उन्होंने ‘निष्काम’ भाव से लगभग चार हज़ार किलोमीटर की पदयात्रा की जिसका कोई चुनावी लक्ष्य न होकर भारत भर में सद्भाव जगाना था।

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मानहानि मामले में राहुल गाँधी की सज़ा पर रोक लगाते समय सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात की निचली अदालत से लेकर हाईकोर्ट तक के ‘विवेक’ पर जिस तरह से सवाल उठाये, उसने यह साफ़ कर दिया कि यह मामला मानहानि के बहाने राहुल को संसद से बाहर करने का था और गुजरात की अदालतों ने इस मंशा को पूरी करने में जाने-अनजाने मदद की। अगर निचली अदालत ने राहुल गाँधी को दो साल की सज़ा सुनाते वक़्त कारण नहीं बताये तो शक़ होना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर कि ‘गुजरात से बड़े दिलचस्प फ़ैसले आ रहे हैं’, राज्य की न्यायिक व्यवस्था पर जैसी गंभीर टिप्पणी की है, उसकी गूंज दशकों तक सुनी जाएगी।

सवाल ये है कि बीजेपी राहुल गाँधी को संसद से बाहर करवाने के लिए इस कदर आमादा क्यों हुई? प्रधानमंत्री मोदी जब ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा देते हैं तो उसका वास्तविक अर्थ गाँधी परिवार मुक्त राजनीति के अलावा क्या है? अगर उन्हें कांग्रेस संस्कृति में पले-बढ़े नेताओं से आपत्ति होती तो आज सौ से ज़्यादा पूर्व कांग्रेसी बीजेपी के सांसद न होते और न कई राज्यों में पूर्व कांग्रेसियों के हाथ में बीजेपी सरकारों की कमान होती। पीएम मोदी और बीजेपी को परेशानी सिर्फ़ गाँधी परिवार से है जिसके प्रतिनिधि चेहरे राहुल गाँधी हैं। दरअसल, बीजेपी जानती है कि इस परिवार को न वे डरा सकते हैं- जिसकी कोशिश करके वे देख चुके हैं- और न इसे किसी लालच में डाला जा सकता है। इस परिवार की तीन पीढ़ियों ने स्वतंत्रता आंदोलन में जेलयात्राएँ कीं। तीन-तीन प्रधानमंत्री (जिसमें दो शहीद हुए) देने वाले इस परिवार के साथ अखिल भारतीय स्तर पर एक भावनात्मक जुड़ाव है जो कभी भी प्रबल हो सकता है। कांग्रेस को कई बार कमज़ोर से मज़बूत स्थिति में लाने में इस भावना का बड़ा रोल रहा है और एक बार फिर वही परिदृश्य सामने है।

एक परेशानी यह भी है कि राहुल गाँधी बीजेपी से ज़्यादा आरएसएस पर हमला करते हैं। राहुल समझते हैं कि बीजेपी की शक्ति का स्रोत आरएसएस है जो दरअसल ‘आयडिया ऑफ इंडिया’ यानी एक समावेशी भारत के विचार के लिए बड़ा ख़तरा है। इसलिए उन्होंने आरएसएस से वैचारिक संघर्ष को नयी कांग्रेस की एक अनिवार्य शर्त बना दिया है। कांग्रेस के कई नेताओं का पार्टी से बाहर जाने की एक वजह यह भी रही है। ‘ढुलमुल’ कांग्रेसियों से गलबहियाँ करके आगे बढ़ने वाली बीजेपी को राहुल गाँधी की इस वैचारिक प्रतिबद्धता से परेशान होना स्वाभाविक है।
मानहानि के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ है। राहुल गाँधी न सिर्फ अविश्वास प्रस्ताव पर बहस में भाग लेंगे बल्कि अडानी-मोदी संबंध से उपजे सवालों की गूँज संसद में फिर से सुनायी देगी।
राहुल गाँधी अब एक ऐसे नेता के रूप में सामने हैं जिसकी नैतिक आभा प्रधानमंत्री पद की शक्ति से संपन्न मोदीजी से कहीं ज़्यादा है। ऐसा एक दिन में नहीं हुआ बल्कि परीक्षाओं के लंबे सिलसिले से गुज़रकर राहुल गाँधी को यह छवि हासिल हुई है। नोटबंदी से लेकर कोरोना तक के मामले में उनका समय रहते सचेत करना देश को अच्छी तरह याद है। वो यह भी देख रहा है कि राहुल गाँधी किस तरह उस मणिपुर पहुँच कर ज़ख़्मों पर मरहम लगाते हैं जबकि तीन महीने से गृहयुद्ध जैसे हालात के बावजूद प्रधानमंत्री मौन साधे हुए हैं। मज़दूरों, किसानों, दस्तकारों, छोटे उद्यमियों, महिलाओं, युवाओ से लेकर बच्चों तक के साथ राहुल के संवाद और तस्वीरें सोशल मीडिया में वायरल हो रही हैं।
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इस लिहाज़ से राहुल गाँधी एक ऐसे ‘राष्ट्रीय नेता’ के अभाव को पूरा कर रहे हैं जिस पर हर धर्म, हर जाति, हर क्षेत्र के लोगों का विश्वास हो। स्वतंत्रता आंदोलन में ऐसे राष्ट्रीय नेताओं की मौजूदगी ने ही ‘राष्ट्रीय एकता’ को संभव किया था, वरना आज़ादी तो ‘ब्रिटिश भारत’ को ही मिली थी। बाकी 562 रियासतों को भारत में विलय के लिए इसलिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि उनके क्षेत्र में कांग्रेस के आंदोलन ने जनता को ‘राष्ट्रीय स्वप्न’ के साथ जोड़ दिया था। अफसोस कि समय के साथ ऐसे नेतृत्व की पाँत कमज़ोर पड़ती गयी या कहिए कि किसी क्षेत्र, धर्म या जाति पर आश्रित होकर फ़ौरी राजनीतिक सफलताओं का शार्टकट ही मुख्यधारा बन गया। राहुल गाँधी विचारधारा को मूल मानने वाली स्वतंत्रता आंदोलन से तपे नेताओं की उसी कड़ी से जुड़ते हैं जिन्होंने निजी स्वार्थ से परे जाकर समाज की बेहतरी के लिए जीवन होम कर दिया।

तमाम राजनीतिक विश्लेषक कहते आये हैं कि 2024 में अगर राहुल गाँधी प्रधानमंत्री की रेस में आ जायें तो मोदी जी का रास्ता आसान हो जाएगा। यह एक मनोवैज्ञानिक दाँव है जो आम तौर पर खेला ही जाता है। 2004 में भी अटल बिहारी वाजपेयी की बतौर प्रधानमंत्री रेटिंग किसी भी दूसरे नेता से कई गुना ज़्यादा दिखायी जाती थी, लेकिन उन्हें सत्ता से बाहर होना पड़ा। वैसे, ऐसी किसी होड़ की गुंजाइश है नहीं। राहुल गाँधी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि वे या उनके परिवार का कोई सदस्य पीएम पद की रेस में नहीं है। बीजेपी के लिए यह वाक़ई परेशानी की बात है क्योंकि उसे सत्ता के लिए लालायित नेताओं से डील करने का ही अनुभव है। सत्ता से ज़्यादा समय की गुत्थी सुलझाने को महत्व देने वाले नेता से उसका पाला नहीं पड़ा है।

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यह साफ़ हो गया है कि बीजेपी ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के नाम पर ‘राहुल-मुक्त राजनीति’ चाहती है जबकि राहुल गाँधी सांप्रदायिकता और ग़ैर-बराबरी से मुक्त भारत चाहते हैं और इसके लिए सत्ता नहीं समाज को आवाज़ दे रहे हैं। इतिहास बताता है कि ऐसी हर पुकार को देश ने हमेशा हाथो-हाथ लिया है और इस बार भी यही कहानी दोहरायी जाएगी। राहुल गाँधी की पुकार पर ‘भारत’ को बचाने के लिए पूरा भारत खड़ा होगा, इसमें संदेह नहीं है। इस महाभारत में राहुल गाँधी की भूमिका निष्काम कर्मयोगी कृष्ण सरीखी ही होगी जिनका लक्ष्य राज करना नहीं, अन्यायी शासन का अंत करना था। 

(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)

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पंकज श्रीवास्तव
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