इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि जो भाजपा कर्नाटक की जातिवार जनगणना में कदम कदम पर विरोध और दबाव की राजनैतिक लड़ाई में जुटी है वहीं उत्तर प्रदेश में जाति के नाम के साथ राजनीति करने पर ही नहीं, प्रशासनिक मामलों में, खासकर पुलिस एफआईआर में, जाति का जिक्र बंद करने का फैसला कर चुकी है। बीजेपी ने ओडिशा के मैदान को जीतने में पाइका आंदोलन और खंडायतों को जाति की याद दिलाने का सहारा लिया तो बंगाल के काफी हद तक जाति बिसरा चुके समाज में मातुआ लोगों के सहारे पैर जमाने की कोशिश करती रही है। यही भाजपा जब राजस्थान और मध्य प्रदेश में मजबूती महसूस करती है तो जाति भुला देती है, बिहार में चुनाव होने को हैं तो जाने किस किस जाति के संगठनों का अधिवेशन और सम्मेलन कराती है। शुद्ध जाति की राजनीति, जिसे कई बार सामाजिक न्याय और सेकुलरिज्म की चादर से ढकने की कोशिश होती है, करने वाले दल बिहार और उत्तर प्रदेश में ही अलग अलग फार्मूले बनाकर बिखरी छोटी जातियों और दलितों को साथ लाने में लगे हैं तो अब भी कोई दल अगड़ों को भी नाराज करना नहीं चाहता। बिहार में राजद भी भूमिहारों को पटाने के लिए राज्य सभा की सीट देती है। खैर।
जाति पर राजनीति के खेल में कौन जीत और कौन हार रहा?
- विचार
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- 23 Sep, 2025

योगी आदित्यनाथ और सिद्धारमैया
Caste Politics: देश की सियासत में जाति आधारित राजनीति फिर सुर्खियों में है। जाति की राजनीति से किसको फायदा और किसे उठाना पड़ रहा है नुकसान?
पर अभी बिहार और कर्नाटक के मामलों को देखकर कुछ चीजें समझने की कोशिश करनी चाहिए। कर्नाटक में दोबारा जातिवार जनगणना शुरू हुई है जो दो सप्ताह चलेगी। एक तो सात करोड़ लोगों का सर्वेक्षण इतने समय में कर पाने पर सवाल उठ रहे हैं तो हर जाति के नेता अपने-अपने लोगों की बैठक करके आवश्यक निर्देश दे रहे हैं। दलितों और आदिवासियों में यह नाराजगी है कि उन्हें एक साथ गिनने की जगह पचासों जातियों में बांटने से उनकी साझा राजनैतिक ताकत बिखर जाएगी।