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टूटे लोकतंत्र के मंदिर को जोड़ने की यात्रा

महाभारत का युद्ध सिर्फ़ कौरवों और पांडवों के बीच नहीं था। यह सत्य और असत्य के बीच था। यह न्याय और अन्याय के बीच था। यह संसाधन और संसाधन-विहीनता के बीच था। यह अहंकार और विनम्रता के बीच था। यह लूट और भागीदारी के बीच था। यह तानाशाही और लोकतंत्र के बीच था। यह सत्ता लोलुपता और राजधर्म के बीच था। 

आज हजारों साल बाद हिंदुस्तान की धरती बदली हुई परिस्थितियों में उसी तरह के चक्रव्यूह में फँस गई है। भारत के लोकतंत्र से उसकी सारी संस्थाएँ छीन ली गई हैं। अकूत संपत्ति और संसाधनों पर दो-चार लोगों का कब्जा है और चाहे मीडिया हो, चाहे क़ानून प्रवर्तक संस्थाएँ हों, अदालतें हों या दूसरी संवैधानिक संस्थाएँ- सभी को या तो पंगु बना दिया गया है या फिर उन्हें 'पिंजरे का तोता' बनाकर उनसे मनमाना शिकार करवाया जा रहा है। 

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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदयपुर चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने देश की परिस्थितियों की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘आज हमें चर्चा करने की इजाजत नहीं है। संसद में हमारे माइक बंद कर दिए जाते हैं। सदस्यों को बाहर फेंक दिया जाता है। न्यायपालिका दबाव में है। संवाद की परंपरा को रौंद दिया गया है। इस देश की संस्थाओं को अपना काम नहीं करने दिया जा रहा है। मीडिया अपना काम नहीं कर पा रहा है। हम बहुत गंभीर संकट का सामना कर रहे हैं। पेगासस के ज़रिये इस देश के राजनीतिक वर्ग को बोलने से रोका जा रहा है। देश आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। महंगाई और बेरोजगारी इतिहास की सबसे बड़ी समस्या बन गए हैं। अब सवाल ये है कि कांग्रेस को क्या करना चाहिए…. हमारी जिम्मेदारी जनता के साथ खड़े होने की है। हमें जनता के पास जाना पड़ेगा। हमारे लिए नहीं, देश के लिए। अब हमें बिना कुछ सोचे जनता के बीच जाना चाहिए।’ 

इसके बाद रामलीला मैदान में हुई महंगाई रैली में भी उन्होंने दोहराया कि सारी संस्थाएँ और एजेंसियाँ, मीडिया और अदालतें जनता से छीन ली गई हैं। अब हमें जनता की अदालत में जाना होगा। दुर्भाग्य से मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग ने इस तथ्य को नज़रअंदाज़ किया और विपक्ष की इस चिंता पर ध्यान नहीं दिया गया। देश का विपक्ष इतनी लाचारी का प्रदर्शन करे, यह साफ़ इशारा है कि देश में लोकतंत्र की हत्या हो चुकी है और ये जितने चमकदार उत्सव हो रहे हैं, वे सब लोकतंत्र की लाश पर किए जा रहे तमाशे हैं।

अगर इन परिस्थितियों का विश्लेषण करें तो महाप्राण निराला की कविता 'राम की शक्तिपूजा' याद आती है। शक्ति अत्याचारी रावण के पास है, जिसने माँ सीता का अपहरण कर लिया है। वह अत्याचारी भी है और शक्तिसंपन्न भी। भगवान राम बेहद निराशा और चिंता में हैं। आखिरकार जामवंत के सुझाव पर वे शक्तिपूजा शुरू करते हैं। अपनी आराधना में उन्होंने देवी को 108 नीले कमल के फूल अर्पित करने का संकल्प लिया है, लेकिन उनके 108 कमल पुष्प में से एक गायब हो जाता है। उस ग़ायब फूल के स्थान पर, अंत में, वह अपनी आंख ही मां के चरणों में अर्पित करने का संकल्प ले लेते हैं। भारत जोड़ो यात्रा उसी 'शक्तिपूजा' सरीखी है।
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अगर हम भारत के इतिहास की ओर देखें तो महात्मा बुद्ध, महावीर, केशकंबली और सम्राट अशोक के जमाने से ही हमारे समाज में यात्राओं के प्रति जनता के मन के एक आध्यात्मिक किस्म का आदर रहा है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान हमने देखा कि काफिला कस्बों-बस्तियों से गुजरता है तो वहां की महिलाएं काफिला गुजरने के बाद पीछे से धरती छूकर प्रणाम करती हैं। जनता के मन में यात्राओं के प्रति अपार श्रद्धाभाव है। महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद का आशीर्वाद लेकर शुरू हुई यह यात्रा श्री नारायण गुरु के दरबार होते हुए केरल की सांस्कृतिक राजधानी त्रिशूर पार करते हुए कर्नाटक के मशहूर शहर मैसूर पहुँच चुकी है और इसे अभी देश के तमाम पवित्र स्थलों, महात्माओं और जनता-जनार्दन की ड्योढ़ी से होकर गुजरना है। याद करने वाली बात है कि दक्षिण से लौटकर ही राम नायक बने थे। शंकरचार्य की जिस यात्रा ने भारत में सांस्कृतिक-धार्मिक समन्वय स्थापित किया वह भी दक्षिण से उत्तर आयी। दक्षिण से चलकर ही आलवारों और अक्क महादेवी की भक्ति महाराष्ट्र के वरकरियों से होती हुई कबीर, नानक, सूर, रसखान और तुलसी तक पहुँची और भक्ति आंदोलन का सूत्रपात हुआ।

 

भटकाने में माहिर एक खास वर्ग भ्रम फैला रहा है कि 'भारत तो एक है, राहुल गांधी क्या जोड़ने निकले हैं?

अब इसकी सफाई टीवी चैनलों के नक्कारखाने में नहीं, जनता दरबार में दी जाएगी कि 140 करोड़ लोगों की आस्थाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लोकतंत्र के मंदिर को ढहा दिया गया है। उसके एक-एक खूबसूरत स्तंभ को तोड़कर चकनाचूर कर दिया गया है। जनता की जिंदगी के मुद्दों पर बात नहीं की जा रही है। महंगाई, बेरोजगारी, आर्थिक संकट से निपटने के लिए 'बांटो और राज करो' की अंग्रेजी नीति लागू की जा रही है ताकि जनता आपस में लड़े और असली संकट भूल जाए।

 

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राहुल गांधी जनता की अदालत में यही फरियाद लेकर गए हैं कि भारत के महान पूर्वजों ने अपना खून बहाकर, अपनी जान देकर दुनिया भर में प्रतिष्ठा पाने वाला लोकतंत्र का जो मंदिर खड़ा किया था, उसपर कब्जा करके उसे ढहा दिया गया है। संवैधानिक संस्थाओं को विपक्षी नेताओं का शिकार करने के काम में लाया जा रहा है। न्यायपालिका को सत्तापक्ष की बांदी बना दिया गया है। राजनीतिक विद्वेष के तहत 'विपक्ष-मुक्त भारत' के अभियान का लोकतंत्र-विरोधी जुआ कानून प्रवर्तन एजेंसियों के कंधे पर लाद दिया गया है। हैरानी की बात है कि ये एजेंसियां बिदककर जुआ रख देने की जगह मतवाले बैलों की तरह उसे ढोए जा रही हैं।

फिर आख़िर रास्ता क्या बचा है? भारत की जनता को एकजुट होकर अपने पूर्वजों के बलिदान की कीमत पर हासिल लोकतंत्र पर पुन: दावा ठोकना है, पूरे भारत को एक सूत्र में जोड़ना है और देश की दिशा को शांति, समृद्धि और सौहार्द की तरफ़ मोड़ना है। अब फ़ैसला जनता के हाथ में है।

(लेखक - कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी के सलाहकार हैं) 

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संदीप सिंह
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