“जहां कहीं भी अन्याय शेष है, वह न्याय के लिए सर्वत्र ख़तरा है।”  -मार्टिन  लूथर किंग सीनियर
अवैध आप्रवासियों के मुद्दे पर अमेरिका के कुछ हिस्सों में हिंसा-आगजनी की पृष्ठभूमि में अत्यंत विवादास्पद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का 78वां जन्मदिन मना। इससे पहले विभिन्न शहरों में ट्रंप के विरुद्ध खूब प्रदर्शन हुए और जन्मदिन को नहीं मनाने की अपीलें कीं। चौराहों पर नारे गूंजे - no king then, no king now (न तब राजा, न अब राजा)। ऐतिहासिक महत्व के टाउन कॉन्कर्ड की सड़कों पर  हाथों में तख्ती लेकर जुलूस निकाले : Trump the law breaker , stop the tyranny, Trump is fraud, liberty -justice for all. Save medicare -save social security, Trump traitor -impeach and convict , hands  off! अमेरिका की आज़ादी के इतिहास में  कॉन्कर्ड का विशेष महत्व है। ढाई सौ बरस पहले यहां से अमेरिका की क्रांति की शुरुआत हुई थी। स्वतंत्रता सेनानियों की स्मृति में इस छोटे-से नगर में म्यूजियम भी बना हुआ है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के शब्दों में, ”भारत और पाकिस्तान पिछले डेढ़ हज़ार बरस से सरहदों पर लड़ते आ रहे हैं।” ट्रम्प का यह अनोखा इतिहास ज्ञान अप्रैल के अंतिम सप्ताह में प्रकट हुआ था। 22 अप्रैल को पहलगाम में सैलानियों पर आतंकी हमले के बाद एक महिला पत्रकार ने राष्ट्रपति की प्रतिक्रिया जाननी चाही थी। इसके बाद ट्रम्प ने मई के दूसरे सप्ताह में भी अपने विलक्षण इतिहास ज्ञान को दोहराया। घोषित और अघोषित आपातकालों के सन्दर्भ में ट्रम्प-उवाच की प्रासंगिकता यह है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति ट्रम्प की काया भाषा व शासन शैलियों में मुझे कुछ सादृश्यता प्रतीत होती है। 

पाकिस्तान का जन्म 14 अगस्त, 1947 को हुआ था। इस्लाम और उसके अनुयायी 12 -13 सौ साल के हैं। विश्व की एकल ध्रुवीय शक्ति व्यवस्था (अमेरिका) के शिखरतम नेता का यह इतिहास बोध-स्तर है, तब उसकी शासन शैली का अनुमान लगाया जा सकता है। इतना ही नहीं, जब उक्त पत्रकार ने उनसे पूछा कि क्या वे संविधान की व्यवस्था का पालन करते हैं? उनका उत्तर था, ”मैं नहीं जानता। मेरे सहायक संविधान विशेषज्ञ जानते हैं।” देश के संविधान के प्रति उनके शब्दों और मुद्राओं में उदासीनता व निस्पृहता के भाव झलक रहे थे। मैं इन चंद शब्दों से मुखरित संकेतों की पृष्ठभूमि में ट्रम्प -अमेरिका में अघोषित आपातकाल की परछाइयों की चर्चा करूंगा। इससे पहले मई की ही  एक ताज़ा घटना से ट्रम्प -शासन को समझा जा सकता है। राष्ट्रपति ट्रम्प के मनमौज़ी आदेशों की चपेट में कांग्रेस (संसद) के पुस्तकालय की अश्वेत पुस्तकालय अधिकारी डॉ. कारला हेडेन आ गईं। उन्हें 8 मई को सेवा से बर्खास्त कर दिया, जबकि वे अगले साल सेवानिवृत होने वाली थीं। ट्रम्प शासन का आरोप था कि हेडेन का ‘बहुलता, समानता और समरसता’ पर  फोकस रहता और पुस्तकालय में वैसी ही पुस्तकों को बढ़ावा देती हैं। हेडेन की कोशिश रहती थी कि पुस्तकालय में एशिया, दक्षिण अमेरिका, मूल जनजाति समाज आदि से  सम्बंधित साहित्य की आवक होनी चाहिए। लेकिन, उनकी यह दृष्टि रूढ़िवादी नेताओं को पसंद नहीं थी  और न ही ट्रम्प शासन को। पुस्तकालय के लम्बे इतिहास में हेडेन पहली अश्वेत  महिला लाइबेरियन थीं। पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उनकी नियुक्ति की थी। मीडिया में ट्रम्प के इस क़दम की तीखी आलोचना भी की गई। 
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अमेरिका में भी डर का साया!

मैंने अमेरिकी ज़मीन पर पहला क़दम 1985 में रखा था। बतौर पत्रकार के तौर पर। तब से आवाजाही लगी हुई है। पर, अब पारिवारिक यात्राएं होती हैं। इस दफ़ा की यात्रा में मुझे न जाने कोई थ्रिल महसूस नहीं हो रही और न ही निश्चिंतता। कोई अज्ञात भय पीछा करता हुआ– सा लगता है। परिचितगण सहमे सहमे से लग रहे हैं। उन्मुक्तता के साथ बात नहीं कर पा कर रहे हैं। कहीं अभिव्यक्ति  पर कोई लगाम है, ऐसा लगता है। वाशिंगटन स्थित एक सिविल राइट एक्टिविस्ट आधे अधूरे मन्तव्यों के साथ बात करने लगा। यही स्थिति बॉस्टन स्थित परिचितों की थी। फोन पर भी अतिरिक्त सावधानी महसूस हुई। पिछली दफा ट्रंप के प्रथम काल में ऐसा नहीं लगता  था। इससे पहले बिल क्लिंटन, बुश जूनियर, ओबामा और बाइडन के शासन कालों में मैंने अमेरिकी समाज को इतना सहमा सहमा, भयभीत, आशंकाग्रस्त, भविष्य के प्रति अनाश्वस्त और आक्रोशित नहीं पाया था, जितना इस यात्रा में देखा है। लोगों की नौकरियां जा रही हैं। बुद्धिजीवी अन्य देशों में काम की तलाश में हैं। यहाँ तक कि प्रसिद्ध नासा संस्थान के बजट में कटौती कर दी गयी है।

‘आओ, अमेरिका को फिर से 1932 बनायें’

वास्तविकता यह है कि अमेरिका में ट्रम्प भक्तों और विरोधियों के मंचन दृश्य उग्र होते जा रहे हैं। जहां ट्रम्प भक्तों का नारा है ‘अमेरिका को फिर महान बनाओ’, वहीं देश भर में जुनूनी विरोधियों का नारा भी गूंज उठा है- ‘आओ, अमेरिका को फिर से 1932 बनायें।’ पाठकों को मालूम होगा, अमेरिका के इतिहास में वर्ष 1932 का अभूतपूर्व महत्व है। इसने अमेरिका को महामंदी की खाई में धकेल दिया था। एक साल में ही करीब 1 हज़ार 700  बैंक डूब गए थे। चारों तरफ बेकारी (33% - करीब एक करोड़ 40 लाख), जीडीपी 13% गिरी, भुखमरी, गरीबी, महंगाई, असंतोष, अपराध, बेबी अपहरण, फिरौती, हत्या  जैसे अपराधों का राज था। भूमिगत फाफिया संस्कृति फैली हुई थी। लोगों के करोड़ों डॉलर डूब गए। लोगों को घरों से बेदखल होना पड़ा था। घरविहीनता बढ़ी। विस्थापन बढ़ा। 20वीं सदी के प्रथम महायुद्ध के बाद तीसरे दशक में आर्थिक महामंदी का विस्फोट हुआ, और 1932 में यह मंदी अपने चरम पर थी। महामंदी के बावज़ूद, चंद  लोगों और परिवारों ने बॉन्ड में इन्वेस्टमेंट के माध्यम से खूब धन कमाया और ब्याज दर से तिजोरियाँ भरी थीं। इस दौर में रिपब्लिकन पार्टी का शासन था।

1932 का अमेरिका

ऐसे हाहाकार के माहौल में अमेरिकियों ने शासन -परिवर्तन का संकल्प लिया। अमेरिकी संसद के 1932 के चुनावों में डेमोक्रेट और रिपब्लिकन (वर्तमान में ट्रम्प के नेतृत्व में यह पार्टी सत्तारूढ़ है) के मध्य कड़ी  चुनावी जंग हुई। राष्ट्रपति पद के लिए इस ऐतिहासिक जंग में डेमोक्रेट पार्टी के प्रत्याशी प्रसिद्ध फ्रेंक्लिन डी. रूज़वेल्ट धमाके के साथ विजयी हुए, और रिपब्लिकन के राष्ट्रपति प्रत्याशी हर्बर्ट हूवर बुरी तरह से हार गए। 1932 में रूजवेल्ट के नेतृत्व में डेमोक्रेट पार्टी का  संसद के दोनों सदनों- सीनेट और कांग्रेस पर कब्ज़ा हो गया था। देश की राजनीति में ज़बरदस्त बदलाव की शुरुआत हुई थी। रूजवेल्ट की प्रसिद्ध ‘ न्यू डील पॉलिसी या नई आर्थिक नीतियों’ का अभियान शुरू हुआ था। नई सामाजिक -आर्थिक नीतियों के तहत महामंदी के प्रभावों को परास्त करने के लिए बड़े पैमाने पर आर्थिक सुधारों और राहत देने का सिलसिला शुरू किया गया। इसी साल मंदी के माहौल के बावजूद शरत कालीन ओलंपिक्स खेलों का आयोजन किया गया, जिसके माध्यम से जनता में उत्साह और उम्मीदों का संचार हुआ। इतना ही नहीं, इसी साल अमेरिका के इतिहास में पहली बार एक महिला हटती करवाय सीनेट के लिए चुनी गयी थीं। अतः  अमेरिकियों की स्मृतियों में 1932 का वर्ष महामंदी से स्वतंत्रता और महानता की ओर परवाज़ भरने के महाअवसर के रूप में दर्ज़ हो चुका है। याद रहे, अमेरिका के इतिहास में रूजवेल्ट अकेले ऐसे राजनेता हुए हैं जोकि निरंतर चार बार चुने गए थे। उनके काल में ही दूसरे महायुद्ध में अमेरिका की जीत और फासीवादी -नाजीवादी हिटलर व मुसोलिनी की दर्दनाक पराजय हुई थी।

इसलिए ट्रम्प के  ‘अमेरिका महान‘ के नारे को करारा माकूल ज़वाब देने के लिए वर्ष -1932 को जंग के मैदान में उतारा गया है। यह दोधारी तलवार है: एक, महामंदी की याद को ताज़ा करना; दो, आर्थिक स्वतंत्रता व उत्थान और डेमोक्रेट राष्ट्रपति रूजवेल्ट की बहुआयामी ऐतिहासिक भूमिका का स्मरण।

ट्रम्प विरोधियों का यह अभियान कांग्रेस की मोदी+शाह काल में नेहरू-इंदिरा-राव की उपलब्धियों को स्मरण करने की रणनीति के समान है।

ट्रम्प की टैरिफ़ जंग 

अमेरिका के चैनलों, सोशल मीडिया और अख़बारों में ‘अमेरिका को फिर से 1932 बनाएं’ का नारा छाया हुआ है। सभी क्षेत्र के विशेषज्ञ बुद्धिजीवी और पत्रकार बड़ी शिद्दत के साथ 1932 और रूजवेल्ट की नई आर्थिक नीतियों की उपलब्धियों पर अपनी प्रतिक्रियाएँ दे रहे हैं। इसके साथ ही महामंदी के महाविनाशक प्रभावों को भी याद करते हैं। यह जतलाने से नहीं चूकते हैं कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की टैरिफ़ जंग और अन्य नीतियों की बदौलत अमेरिका फिर से 1932 की महामंदी की खाई में गिरने के कगार पर पहुँचता जा रहा है। ट्रम्प देश को उस दिशा में धकेल रहे हैं। रूजवेल्ट और ट्रम्प शासनों के प्रभावों को तुलनात्मक ढंग से सामने रखा जाता है। इस तुलना का प्रभाव लोगों पर पड़ भी रहा है क्योंकि ट्रम्प के 100 दिन के शासन में  महंगाई बढ़ी है, छँटनी तेज़ हुई है और बेकारी दिखाई देने लगी है। संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्रों के लोग प्रभावित हो रहे हैं। 

ट्रंप के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन

राजधानी वाशिंगटन से लेकर दूरदराज़ अलास्का क्षेत्र में भी प्रतिरोध का परचम लहराने लगा है। सोशल मीडिया में हर दिन के प्रतिरोध के जुलूसों को दिखाया जा रहा है। प्रदर्शनकारियों के होठों पर आक्रामक  नारे और मुट्ठियों में ट्रम्प को दण्डित करने की मांग को लेकर  तख्तियां रहती हैं। बानगी देखिए: 1. डोनाल्ड ट्रम्प को जेल भेजो, 2. ट्रम्प के फासीवाद का विरोध करो, 3. फासीवाद से दूर रहो, 4. अराजकता का राजा दूसरी बार, 5. ट्रम्प अपने हाथों को लोकतंत्र से दूर हटो, 6. ट्रम्प हमें महान नहीं बनाएगा, 7. शिक्षा का निकासी बंद करो, 8. एलोन मस्क से ख़बरदार रहो (अब मस्क और ट्रम्प के मध्य मतभेदों का विस्फोट हो चूका है), 9. अमेरिका को फिर से सशक्त बनाओ, 10. सत्य के लिए लड़ो, 11. कानून के शासन के लिए खड़े हो, 12. ट्रम्प -2025 प्रोजेक्ट का विरोध करो, 13. आज्ञा नहीं, प्रतिरोध, 14. कांग्रेस ट्रम्प से मुक्ति ले, यह खा जायेगा, 15. ट्रम्प पर महाभियोग चलाओ, 16. निक्सन -मैकार्थी इतने बुरे नहीं थे ( ट्रम्प के साथ तुलना), 17, हम लोगों में से कितनों को मारेंगे?, 18. दोस्तों, मुझे उस गैंग का सदस्य नहीं बनाना, 19. वह (ट्रम्प) जिस भी हमारी चीज़ (लोकतंत्र, अर्थव्यवस्था और हमारी मानवता)  को छूता है वह कीट बन जाता है और 20. प्रतिरोध करो। ऐसे ही बेशुमार नारे, तख्तियां और झंडे रहते हैं जुलूसों में। पुलिस भी रहती है, लेकिन आंदोलनकारी शांतिपूर्वक अपना प्रदर्शन और भाषण जारी रखते हैं। 
विचार से और

अमेरिका में आज़ादी की ढाई सदी

चूंकि, अमेरिका अपनी आज़ादी की ढाई सदी मना रहा है, इसलिए छोटे छोटे से कस्बे -गांव में  स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियों को दोहराया जाता है। याद दिलाया जाता है कि ट्रम्प -हुकूमत के सामने आत्मसमपर्पण कभी मत करें और तन कर चलें। अब तो प्रसिद्ध हार्वर्ड विश्विविद्यालय ने भी ट्रम्प शासन से कानूनी लड़ाई लड़ने का फैसला किया है। ट्रम्प ने विश्विविद्यालय के अनुदान को बंद करने की धमकी दी है। बुद्धिजीवियों ने विश्विविद्यालय के इस कदम का समर्थन भी किया है। 

ट्रम्प भक्त भी पीछे नहीं हैं। वे भी सोशल मीडिया पार सुनहरे सपने दिखाते रहते हैं। उनकी आस्था ट्रम्प की व्यक्तिपूजा या हीरोवरशिप में अधिक है। यद्यपि, वे  अपने विरोधियों के साथ सड़कों पर पंगा नहीं ले रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि राजसत्ता उनके साथ है। वे ‘अमेरिका को फिर से महान बनाओ’ के अभियान में ख़ामोशी के साथ लगे हुए हैं। ट्रम्प समर्थक ऐसी बस्तियों में ख़ामोशी के साथ काम कर रहे हैं जोकि पहले डेमोक्रेट की हुआ करती थी। एक प्रकार से ट्रम्प भक्तों ने संघ की गुप्त सेंधमारी शैली को अपना रखा है। देखना यह है कि  1932 में वापसी का अभियान कितने समय और कहाँ तक अपनी रफ़्तार बनाये रखता है? कुछ राज्यों में दो वार्षिकी चुनाव होंगे। आर्थिक विशेषज्ञों का मत है कि ट्रम्प का टैरिफ जंग लम्बे समय तक अपनी गति को बनाये नहीं रख सकेगी। प्रतिरोध में भी कितना दम रहता है, यह देखना भी कम रोचक नहीं होगा। प्रतिरोधियों के वर्तमान  तेवरों में  लम्बी लड़ाई का संकल्प ज़रूर चमकता है। संघीय ढांचे को भी खतरा दिखाई दे रहा है। ट्रम्प  की कोशिश है कि अमेरिकी संविधान में दी गयी ‘check and balance’  की व्यवस्था के तहत उन्हें निरंकुश अधिकार मिल जाए। ट्रम्प की केंद्रीय सरकार  और डेमोक्रेट शासित राज्यों के बीच रिश्ते तनावपूर्ण दिखाई दे रहे हैं। 
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ट्रंप के सामने चुनौतियाँ

अवैध आप्रवासियों की गिरफ्तारी व निष्कासन के सवाल पर ट्रम्प और डेमोक्रेट आमने -सामने हैं; लॉस एंजेल्स का गवर्नर और राष्ट्रपति ट्रम्प के बीच ठन गई; गवर्नर ने ट्रम्प द्वारा नेशनल गार्ड (अर्द्ध सैन्य बल) की तैनाती का विरोध किया है। वैसे, प्रान्त के अधीन होता है कानून-व्यवस्था का विषय। लेकिन, ट्रम्प केंद्रीय बल की तैनाती पर आमादा है। इससे लोकतंत्र कमज़ोर होता जायेगा। संघीय व्यवस्था चरमराती जाएगी। ज़ाहिर है,  यदि  अमेरिका  में अस्थिरता, अशांति और हिंसा का माहौल बनता है तो ऐसा भी समय आ सकता है जब मीडिया पर सेंसरशिप लगे और भारतीय गोदी मीडिया का अमेरिकी संस्करण छाने लगे! याद रखें, डोनाल्ड ट्रम्प  मूलतः व्यवसायी हैं और मुनाफ़ा व घाटा के सिद्धांत से राजसत्ता का संचालन करते हैं। अब भारत भी इस सिद्धांत का अपवाद कहां रह गया है?