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क्या ‘पाताल लोक’ का मक़सद एक धर्म विशेष को बदनाम करना है?

वेब सीरीज़ की स्वच्छंद दुनिया में एक नए सीरियल का पदार्पण हुआ है। नाम है पाताल लोक। यह वेब सीरीज़ जिस प्लेटफ़ॉर्म पर दिखाए जाते हैं वो प्लेटफ़ॉर्म ही स्वच्छंद हैं तो ज़ाहिर सी बात है इन वेब सीरीज़ में स्वच्छंदता होगी ही। जब कहीं से किसी प्रकार का बंधन नहीं होता और किसी प्रकार का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता तो बहुधा ये स्वच्छंदता अराजकता में बदल जाती है। वेब सीरीज़ की दुनिया को देखने के बाद यह लग रहा है कि यह दुनिया स्वच्छंदता से स्वायत्तता की ओर न बढ़कर स्वच्छंदता से अराजकता की ओर बढ़ने के लिए व्यग्र है। वेब सीरीज़ पर दिखाए जानेवाले कंटेंट को लेकर कई बार चर्चा हो चुकी है। इस स्तंभ में ओवर द टॉप प्लेटफ़ॉर्म (ओटीटी) पर दिखाए जाने वाले कई बेव सीरीज़ में दिखाए गए भयंकर हिंसा, जुगुप्साजनक यौनिक प्रसंग के अलावा समाज को बाँटनेवाले कंटेंट को रेखांकित किया जा चुका है। 

अमेज़न प्राइम पर वेब सीरीज़ पाताल लोक इन दिनों काफ़ी चर्चित हो रहा है। इस वेब सीरीज़ की प्रोड्यूसर फ़िल्म अभिनेत्री अनुष्का शर्मा हैं और कहानी लिखी है सुदीप शर्मा और तीन अन्य लेखकों ने मिलकर। इस वेब सीरीज़ के कंटेंट पर बाद में आते हैं, पहले बात कर लेते हैं कहानी की। 

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इस वेब सीरीज़ की जो कहानी है वो पत्रकार तरुण तेजपाल के उपन्यास ‘द स्टोरी ऑफ़ माई एसेसिन्स’ पर बनाई गई प्रतीत होती है क्योंकि कहानी के प्लॉट से लेकर कुछ पात्रों के नाम और काम दोनों में समानता दिखाई देती है। अगर ऐसा है तो अब तक तरुण तेजपाल को इस वेब सीरीज़ पर अपनी साहित्यिक कृति की चोरी का आरोप लगा देना चाहिए था क्योंकि उनको कहीं क्रेडिट नहीं दिया गया है। साहित्यिक हलके में ऐसी चर्चा है कि तरुण तेजपाल की मर्ज़ी से ऐसा हुआ है। सचाई या तो तरुण तेजपाल बता सकते हैं या फिर सुदीप शर्मा। एक स्टिंग ऑपरेशन के बाद तरुण तेजपाल की हत्या की साज़िश की बात सामने आई थी और दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में बिहार के एक बाहुबली राजनेता का नाम भी आया था। इस बात की पर्याप्त चर्चा हुई थी कि दुबई में बैठे एक माफिया डॉन ने तरुण तेजपाल की सुपारी दी थी। उस वक़्त की चर्चा में दोनों चरित्र मुसलमान थे लेकिन अगर कहानी तरुण तेजपाल के उपन्यास से प्रेरित है तो वेब सीरीज़ में दोनों को बदल दिया गया है, न तो सुपारी लेनेवाला और न ही देनेवाला मुसलमान है। ये कलात्मक सृजनात्मक की कैसी स्वतंत्रता है इसपर देशव्यापी बहस की आवश्यकता है।

अब जब पाताल लोक रिलीज़ हुई तो एक बार फिर से इन बातों की चर्चा शुरू हो जाना स्वाभाविक है। कहानी चाहे तरुण के उपन्यास की हो, उससे प्रेरित हो या फिर सुदीप ने ख़ुद लिखी हो, इतना तो तय है कि इस कहानी के पीछे मंशा उस नैरेटिव को मज़बूती देने की है जिसमें भगवा झंडा लेकर चलनेवाले मॉब लिंचिंग करते हैं। अपराधी अपराध करने के बाद मंदिर में जाकर शरण लेते हैं, आदि आदि। यह कहानी एक टेलीविजन संपादक की असफल हत्या के प्रयास की कहानी और हत्यारों की गिरफ्तारी को लेकर शुरू होती है। कहानी दिल्ली की ज़मीन पर चलती है। 

जिस न्यूज़ चैनल संपादक की हत्या का प्लॉट दिखाया गया है वो बेहद लोकप्रिय है। न्यूज़ चैनल के संपादक का उसके सहकर्मी के साथ इश्क और शारीरिक संबंध दोनों दिखाए गए हैं।

परोक्ष रूप से किसी लड़की की अपनी देह का उपयोग कर अपने करियर में आगे बढ़ने की बात को बल देने की हद तक। यहाँ तो संपादक और उसकी सहयोगी के बीच चलनेवाले संबंध बेहद सहजता के साथ दिखा दिए गए हैं लेकिन तरुण तेजपाल की असल ज़िंदगी में तो उनपर उनके साथ काम करनेवाली एक लड़की ने बेहद गंभीर आरोप लगाए थे जिसके बाद वो गिरफ्तार भी हुए थे और जेल में लंबे समय तक रहना भी पड़ा था। पूरी कहानी में टेलीविजन चैनल को लेकर जो कहानी बुनी गई है वो बहुत हद तक कमज़ोर सी लगती है और ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक और निर्देशक को न्यूज़ चैनलों के कामकाज करने के तरीक़े को लेकर और काम करने की ज़रूरत है। न्यूज़ रूम की वर्किंग भी वास्तविकता से थोड़ी दूर है।

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सृजनात्मकता के नाम पर समाज को बाँटने की छूट?

अब हम आते हैं पाताल लोक की उस कहानी पर या उन संवादों या दृष्यों पर जिसको लेकर यह धारणा बनती है कि इस वेब सीरीज़ का मक़सद एक धर्म विशेष को बदनाम करना भी है। कला की सृजनात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर समाज को बाँटने की छूट न तो लेनी चाहिए और ना ही दी जानी चाहिए। अब इस वेब सीरीज़ में साफ़ तौर पर पुलिस और सीबीआई दोनों को मुसलमानों के प्रति पूर्वग्रह से ग्रसित दिखाया गया। थाने में मौजूद हिंदू पुलिसवालों के बीच की बातचीत में मुसलमानों को लेकर जिस तरह के विशेषणों का उपयोग किया जाता है उससे यह लगता है कि पुलिस फ़ोर्स सांप्रदायिक है। इसी तरह से जब इस वेब सीरीज़ में न्यूज़ चैनल के संपादक की हत्या की साज़िश की जाँच दिल्ली पुलिस से लेकर सीबीआई को सौंपी जाती है, और जब सीबीआई इस केस को हल करने का दावा करने के लिए प्रेस कांफ्रेंस करती है तो वहाँ तक उसको मुसलमानों के ख़िलाफ़ ही दिखाया गया है। 

मुसलमान हैं तो आईएसआई से जुड़े होंगे, नाम में एम लगा है तो उसका मतलब मुसलमान ही होगा आदि आदि। संवाद में भी इस तरह के वाक्यों का ही प्रयोग किया गया है ताकि इस नेरेटिव को मज़बूती मिल सके। और अंत में ऐसा होता ही है कि सीबीआई मुसलिम संदिग्ध को पाकिस्तान से और आईएसआई से जोड़कर उसे अपराधी साबित कर देती है। कथा इस तरह से चलती है कि जाँच में क्या होना है ये पहले से तय है, बस उसको फ्रेम करके जनता के सामने पेश कर देना है। 

अगर किसी चरित्र को सांप्रदायिक दिखाया जाता तो कोई आपत्ति नहीं होती, आपत्तिजनक होता है पूरे सिस्टम को सांप्रदायिक दिखाना जो समाज को बाँटने के लिए उत्प्रेरक का काम करती है।

बात यहीं तक नहीं रुकती है, इस वेब सीरीज़ में तमाम तरह के क्राइम को हिंदू धर्म के प्रतीकों से जोड़कर दिखाया गया है।

यह पहला मौक़ा नहीं है जब कोई वेब सीरीज़ इस तरह से हिंदू धर्म और प्रतीकों के ख़िलाफ़ माहौल बनाने में जुटा है। नेटफ्लिक्स पर एक वेब सीरीज़ आई थी लैला, यह सीरीज़ प्रयाग अकबर के उपन्यास पर आधारित थी। इसको देखने के बाद यह बात साफ़ तौर पर उभर कर आई थी कि ये हिंदुओं के धर्म और उनकी संस्कृति की कथित भयावहता को दिखाने के उद्देश्य से बनाई गई है। लैला का निर्देशन दीपा मेहता ने किया था। 

अभी चंद दिनों पहले दैनिक जागरण के एक कार्यक्रम में सूचना और प्रसारण मंत्री ने ज़ोरदार तरीक़े से वेब सीरीज़ के स्वनियमन पर बल दिया था। ये तो सरकार का काम है जब चाहे करे लेकिन वेब सीरीज़ के माध्यम से खड़ा किए जा रहे फ़ेक नैरेटिव का रचनात्मक प्रतिकार ज़रूरी है। समय और समाज का सही चित्रण करें और यहाँ इस काम में सरकार पहल कर सकती है। उसके पास नेशनल फ़िल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन है। उसका उपयोग किया जा सकता है। अगर ‘पाताल लोक’ या ‘लैला’ के माध्यम से हिंदू धर्म का काल्पनिक चित्रण हो रहा है तो किसी और वेब सीरीज़ के माध्यम से उसका यथार्थ चित्रण भी होना चाहिए जिसमें महिमामंडन की बजाए उन सकारात्मक पक्षों की बात हो जो लोक-कल्याणकारी है।
(दैनिक जागरण से साभार)
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अनंत विजय
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