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आपातकाल डरावना था लेकिन आज के दौर से लाख दर्जा बेहतर था!

अनुमान लगाने की ज़रूरत ही क्या है? इन दिनों आपातकाल नहीं लगा है। प्रेस सेंसरशिप भी नहीं है। हिंसा, आगज़नी, तोड़फोड़, हत्याएँ, चक्का जाम नहीं हैं। सैनिकों और पुलिस को बग़ावत के लिए नहीं उकसाया जा रहा है। सारे देश में बहुमत से चुनी हुई सरकार है जिसे अगले तीन साल तक कोई ख़तरा नहीं है। पर क्या हम आज़ाद हैं? 
राजेश बादल

मैं उन दिनों कॉलेज में बीएससी का छात्र था। 25 जून 1975 को आपातकाल लगा। सेंसरशिप भी थोपी गई। अख़बार सब कुछ प्रकाशित करने के लिए अब आज़ाद नहीं थे। उससे पहले लोकनायक के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में भी कूदे थे। विचारों की फ़सल जवानी के उस दौर में पकने लगी। चंद रोज़ बाद पत्रकारिता में प्रवेश का अवसर मिला। क्या संयोग था कि उन दिनों के ज़िला कलेक्टर भी सेंसरशिप के ख़िलाफ़ थे। उनकी नौकरी बचाते हुए हम पत्रकारिता करते रहे। वह दिलचस्प दास्तान कभी अलग से लिखूँगा।

स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि जवान ख़ून क्रांति की बातों में बड़ा रस लेता था। इसलिए जेपी आंदोलन में हड़तालों और चक्का जाम का समर्थन लाज़िमी था। लेकिन पत्रकारिता ने विचारों में विवेक का इंजेक्शन भी लगाया था। 

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इमरजेंसी की याद

इसलिए जब वह आंदोलन अराजक होने लगा, रेलों की पटरियाँ उखाड़ी जाने लगीं, बसों और रेलों के पहिए जाम कर दिए गए, पुलिस और सेना के जवानों को अपने अफ़सरों और सरकार के आदेश नहीं मानने का फ़रमान जारी हुआ, कोई भी टैक्स नहीं भरने का हुक़्मनामा जारी हो गया, किसी भी अधिकारी का फ़ैसला नहीं मानने के लिए कहा गया, क्रांति का नारा क्रूर हो गया, हिंसा दाख़िल हो गई, आगज़नी, मारपीट, हत्या और दंगे होने लगे, सरकारी दफ़्तर जलाए जाने लगे, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा कि वे तत्कालीन प्रधानमंत्री के आवेदन पर सुनवाई ही न करें और केंद्र सरकार से जेपी ने ज़िद पकड़ ली कि देश की सारी निर्वाचित विधानसभाओं को भंग कर दिया जाए तो हम अनमने हुए। 
ख़ुद से सवाल किया कि गाँधी के सहयोगी रहे जेपी का यह रूप कितना उचित और नैतिक है? ऐसे किसी आंदोलन में कोई भी प्रधानमंत्री होता तो क्या करता? जो लोग वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मिजाज़ जानते हैं, वे अनुमान लगा सकते हैं कि ऐसी स्थिति में वे क्या करते?

अघोषित आपातकाल?

लेकिन अनुमान लगाने की ज़रूरत ही क्या है? इन दिनों आपातकाल नहीं लगा है। प्रेस सेंसरशिप भी नहीं है। हिंसा, आगज़नी, तोड़फोड़, हत्याएँ, चक्का जाम नहीं हैं। सैनिकों और पुलिस को बग़ावत के लिए नहीं उकसाया जा रहा है। सारे देश में बहुमत से चुनी हुई सरकार है जिसे अगले तीन साल तक कोई ख़तरा नहीं है। पर क्या हम आज़ाद हैं? सेंसरशिप नहीं होते हुए भी उससे कई गुना विकराल रूप में पत्रकारिता दिख रही है। गोरी हुक़ूमत की फूट डालो और राज करो की तर्ज़ पर मीडिया को किसी आरी से चीर दिया गया है। एक पत्रकार दूसरे का ही गला काटने पर उतारू है। हर वह नागरिक जो सरकारी ऑर्केस्ट्रा की धुन पर नहीं नाचता-गाता, वह देशद्रोही क़रार दिया जाता है। लोकतान्त्रिक अराजकता के शिखर बिंदु पर बैठे हम सोच रहे हैं कि देश का भविष्य वाक़ई सुरक्षित है?

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यह सत्य है कि नई नस्लें इमरजेंसी को एक लोकतान्त्रिक अभिशाप के तौर पर जानती हैं। उन्होंने वह दौर नहीं देखा। वे आज के सिलसिले की साक्षी हैं। उन्हें लगता है कि आपातकाल कोई ऐसा भयावह और राक्षसी-काल था जिसने इस देश में सब कुछ चौपट कर दिया था। याद कीजिए गाँधी के एक और अनुयाई संत विनोबा भावे ने आपातकाल को अनुशासन पर्व बताया था। क्यों बताया था - इसलिए कि रेलें, बसें, विमान वक़्त पर चलने लगे थे, सरकारी दफ्तरों में बिना रिश्वत फर्राटे से काम होने लगा था, कारख़ानों में उत्पादन बढ़ गया था, रोज़गार दफ़्तर काम देने लगे थे, महँगाई काबू में थी और देश की गाड़ी पटरी पर आ गई थी। विनोबा भावे लोकनायक से बहुत ऊपर थे। लेकिन उन्हें बदनाम किया गया। उन्हें सरकारी संत कहा गया। इससे विनोबा के क़द पर कोई असर नहीं पड़ा। वह इस देश की आत्मा में दूध-पानी की तरह घुले-मिले हैं। 

विचार से ख़ास

लेकिन जेपी की बैसाखी के सहारे जिन लोगों ने सत्ता हथियाई उन्हीं नेताओं ने जेपी का क्या हश्र किया? लोकनायक के रूप में करोड़ों के दिलों पर राज करते थे लेकिन बेचारे तन्हाई और विवशता में यह छोड़ गए। पूरी ज़िम्मेदारी से कहना चाहता हूँ कि मैंने दोनों दौर देखे हैं। अगर वह आपातकाल डरावना था तो आज के दौर से लाख दर्जे बेहतर था।

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