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राज्यपालों की गाथा: भगत सिंह कोश्यारी ने तो सभी को पछाड़ दिया! 

पंचतंत्र में चालाक बंदर और मूर्ख मगरमच्छ की एक कहानी है, जिसमें बंदर अपना कलेजा खाने को आतुर मगरमच्छ से अपनी जान बचाने के लिए कहता है कि मैं तो अपना कलेजा नदी किनारे जामुन के पेड़ पर संभालकर रखता हूँ और वहाँ से लाकर ही तुम्हारी इच्छा पूरी कर सकता हूँ। हमारे तमाम राज्यपालों का हाल भी पंचतंत्र की कहानी के बंदर जैसा ही है। फर्क सिर्फ़ इतना है कि वह बंदर तो अपनी जान बचाने के लिए अपना कलेजा पेड़ पर रखे होने का बहाना बनाता है, लेकिन हमारे राज्यपाल सचमुच अपना विवेक दिल्ली में रखकर राज्यों के राजभवनों में रहते हैं। दिल्ली में उनके विवेक का इस्तेमाल वे लोग करते हैं जो व्यावहारिक तौर पर उनके 'नियोक्ता’ होते हैं।

हमारे राज्यपालों की यह कहानी कोई आजकल की नहीं, बल्कि बहुत पुरानी है, जिसे आए दिन कोई न कोई राज्यपाल देश को याद दिलाता रहता है। ताज़ा मामला महाराष्ट्र का है, जहाँ राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने राज्य में लागू राष्ट्रपति शासन को हटाने की सिफ़ारिश केंद्र सरकार भेजे जाने सहित अन्य संवैधानिक औपचारिकताएँ पूरी करने से पहले ही बीजेपी विधायक दल के उस नेता को सूबे के मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी, जिसने महज दो सप्ताह पहले ही अपने दल का बहुमत न होने की वजह से सरकार बनाने से इनकार कर दिया था। किसी को भी मालूम नहीं कि आधी रात को कब राज्यपाल के समक्ष सरकार बनाने का दावा पेश किया गया, राज्यपाल ने उस दावे को किस आधार पर विश्वसनीय माना, कब उन्होंने राज्य में राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफ़ारिश केंद्र सरकार को भेजी, कब केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में उस सिफ़ारिश पर विचार हुआ, कब उस सिफ़ारिश को राष्ट्रपति के पास भेजा गया और कब राष्ट्रपति ने उसे अपनी मंज़ूरी दी। 

जब सुबह-सुबह देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री और अजीत पवार को उप मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने की ख़बर आई और यह सारे सवाल उठे तो आधिकारिक तौर पर महज इतना बताया गया कि राष्ट्रपति की ओर से सुबह 5.47 बजे राष्ट्रपति शासन का लागू होने का आदेश जारी हुआ। आज़ाद भारत के इतिहास में यह पहला मौक़ा रहा जब आनन-फानन में इतनी सुबह किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन हटाकर किसी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई हो। बहरहाल राज्यपाल के इस हैरतअंगेज़ कारनामे के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 27 नवंबर तक फ़्लोर टेस्ट कराने का आदेश दिया है।

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दरअसल, राज्यपालों द्वारा अपने दायित्वों के निर्वहन में संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी और मनमानी का सिलसिला क़रीब चार दशक पुराना है जब केंद्र और राज्यों में कांग्रेस का सत्ता पर एकाधिकार टूटा और ग़ैर-कांग्रेसी दलों की सरकारें भी बनने लगीं। इन चार दशकों के दौरान केंद्र में चाहे जिस दल या गठबंधन की सरकार रही हो, सभी ने अपने विरोधी दलों की राज्य सरकारों को परेशान करने और दलबदल को बढ़ावा देकर उन्हें गिराने में राज्यपालों का भरपूर इस्तेमाल किया और राज्यपाल भी ख़ुशी-ख़ुशी इस्तेमाल हुए या केंद्र सरकार को ख़ुश करने के लिए अपने स्तर पर ही राज्य सरकारों को तरह-तरह से परेशान करते रहे या उन्हें अस्थिर करने का खेल खेलते रहे।

इस सिलसिले में सबसे पहले और कुख्यात उदाहरण के तौर पर जीडी (गणपतराव देवजी) तपासे का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने हरियाणा का राज्यपाल रहते हुए 1982 में लोकदल के नेता चौधरी देवीलाल के पास विधायकों का बहुमत होते हुए भी अल्पमत वाली कांग्रेस के नेता भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी और बाद में भजनलाल ने लोकदल के कुछ विधायकों से दलबदल करा कर अपना बहुमत साबित किया था। इस सिलसिले में दूसरा नाम आता है ठाकुर रामलाल का, जिन्होंने आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के रूप में 1983 में तेलुगू देशम पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री एनटी रामाराव को उस समय बर्खास्त कर उनके ही एक बाग़ी मंत्री एन भास्करराव को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी, जब रामाराव अपने दिल का ऑपरेशन कराने अमेरिका गए हुए थे। ठीक इसी तरह का एक काला अध्याय 1983 में ही जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल रहते हुए रचा था। उन्होंने मुख्यमंत्री फारूक़ अब्दुल्ला को बर्खास्त कर उनके बहनोई गुल मुहम्मद शाह को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी।

बोम्मई केस का फ़ैसला नजीर

राज्यपालों की मनमानी के इस सिलसिले में 1989 कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई की बर्खास्तगी का मामला तो भारत के संसदीय इतिहास का एक अहम अध्याय है। बोम्मई की सरकार को तत्कालीन राज्यपाल पी वेंकट सुबैया ने मनमाने तरीक़े से यह कहते हुए बर्खास्त कर दिया था कि सरकार विधानसभा में अपना बहुमत खो चुकी है। बोम्मई ने अपनी बर्खास्तगी को कर्नाटक हाई कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन हाई कोर्ट ने राज्यपाल के फ़ैसले को सही ठहरा दिया। बोम्मई ने हाई कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। एसआर बोम्मई बनाम भारत सरकार के नाम से मशहूर हुए इस मामले में 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने जो फ़ैसला दिया वह अनुच्छेद 356 के इस्तेमाल यानी राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने के संदर्भ में मील का पत्थर बन गया। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि बोम्मई सरकार की बर्खास्तगी असंवैधानिक थी और उन्हें बहुमत साबित करने का मौक़ा मिलना चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी भी सरकार के बहुमत या अल्पमत में होने का फ़ैसला संबंधित सदन यानी लोकसभा या विधानसभा ही हो सकता है। 

इसी फ़ैसले में शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने की पुष्टि संसद के दोनों सदनों से भी होना ज़रूरी है और दोनों सदनों से पुष्टि हो जाने के बाद भी उस फ़ैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है।

इसी के साथ अनुच्छेद 356 लागू करने में केंद्र सरकार की शक्ति को सीमित करने के लिए कई शर्तें भी कोर्ट ने जोड़ी थीं।

अनुच्छेद 356 के इस्तेमाल और राज्यपाल के अधिकारों के बारे में जो बातें सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कही थीं, लगभग उन्हीं से मिलती-जुलती बातें केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा और शक्ति संतुलन पर राय देने के लिए गठित सरकारिया आयोग ने भी अपनी सिफ़ारिशों में कही थीं। यह और बात है कि सरकारों ने इन बातों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। नतीजा यह रहा कि राज्यपालों की ‘कलंक-कथा’ में नए अध्याय जुड़ने का सिलसिला जारी रहा।

यूपी, बिहार, झारखंड में भी 'खेल'

उत्तर प्रदेश में 1998 में कल्याण सिंह की अगुवाई में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की सरकार थी, जिसे एक नाटकीय घटनाक्रम के बीच तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने बर्खास्त कर जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। हालाँकि वे महज डेढ़ दिन ही मुख्यमंत्री रह सके थे, क्योंकि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कल्याण सिंह की बर्खास्तगी को असंवैधानिक क़रार दे दिया था। कल्याण सिंह दोबारा मुख्यमंत्री बने थे। इसी तरह 1998 में बिहार में राबड़ी देवी की सरकार को तत्कालीन राज्यपाल विनोदचंद्र पांडे ने बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था। केंद्र में उस दौरान अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। राष्ट्रपति शासन का फ़ैसला लोकसभा में पारित होने के बावजूद राज्यसभा में पारित नहीं हो सका था, लिहाज़ा वाजपेयी सरकार को मजबूरन राबड़ी देवी की सरकार को फिर से बहाल करना पड़ा था। 

इसके बाद 2005 में ऐसा ही खेल खेलते हुए झारखंड में राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने अल्पमत के नेता शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री की पद की शपथ दिला दी थी, लेकिन बहुमत साबित न कर पाने के कारण उन्हें महज नौ दिन में ही इस्तीफ़ा देना पड़ा। बाद में अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में बीजेपी नीत एनडीए की सरकार बनी थी। बिहार के राज्यपाल के रूप में ऐसी ही मनमानी सरदार बूटासिंह ने की थी। फ़रवरी 2005 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में किसी भी दल या गठबंधन को सरकार बनाने लायक बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था, लिहाज़ा बूटा सिंह की सिफ़ारिश पर मई 2005 में विधानसभा भंग कर दी गई थी। उस समय केंद्र में कांग्रेस नीत यूपीए की सरकार थी। हालाँकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा भंग करने के फ़ैसले को असंवैधानिक क़रार दिया था।
यह तो कुछ बड़े और महत्वपूर्ण उदाहरण मौजूदा सरकार के पहले के हैं, लेकिन 2014 में मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद तो राजभवन और सत्तारूढ़ दल के दफ़्तर में व्यावहारिक तौर पर कोई भेद ही नहीं रहा।

पिछले पाँच वर्षों के दौरान केंद्र सरकार और राज्यपालों के लिए सरकारें बनाने-गिराने के खेल में संवैधानिक प्रावधानों और लोकतांत्रिक परंपराओं की बेरहमी से धज्जियाँ उड़ाई गई हैं। हालाँकि इस दौरान दो मामलों में केंद्र सरकार को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुँह की खानी पड़ी, लेकिन उसने कोई सबक़ नहीं लिया, लिहाज़ा राज्यपालों के रवैये में भी कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आया।

केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद किसी राज्य सरकार को दलबदल के ज़रिए अस्थिर करने और फिर अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की शुरुआत दिसंबर 2014 में अरुणाचल प्रदेश से हुई। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अपने फ़ैसले में राज्यपाल के रवैये पर सख़्त टिप्पणियाँ करते हुए राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफ़ारिश को असंवैधानिक क़रार देते हुए राज्य की कांग्रेस सरकार को फिर से बहाल करने का आदेश दिया।

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उत्तराखंड का राष्ट्रपति शासन

ऐसे ही मामले में मोदी सरकार को दूसरा झटका उत्तराखंड के मामले में नैनीताल हाई कोर्ट से मिला। मार्च 2016 में हरीश रावत की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार उस समय अल्पमत में आ गई थी, जब कांग्रेस के नौ विधायक बाग़ी होकर बीजेपी में शामिल हो गए थे। मुख्यमंत्री हरीश रावत को बहुमत साबित करने के लिए पाँच दिन का वक़्त दिया गया था, लेकिन उनके बहुमत का परीक्षण होने से पहले ही केंद्र सरकार ने राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफ़ारिश कर दी थी, जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार भी कर लिया था। हरीश रावत ने राष्ट्रपति के फ़ैसले को नैनीताल हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। 

उत्तराखंड में हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को असंवैधानिक क़रार दिया था। केंद्र सरकार ने हाई कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी लेकिन वहाँ भी उसे निराशा हाथ लगी और हरीश रावत सरकार फिर बहाल हो गई।

दो-दो बार सुप्रीम कोर्ट में किरकिरी हो जाने के बावजूद 'दिल है कि मानता नहीं’ की तर्ज पर राज्यपालों के ज़रिए राज्यों में येनकेन प्रकारेण अपनी सरकार बनाने और विपक्षी दलों की सरकार गिराने का खेल थमा नहीं। गोवा विधानसभा के चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था। वहाँ 40 सदस्यीय विधानसभा में 17 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई थी, जबकि बीजेपी को 13 सीटें हासिल हुई थीं। सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने का न्यौता देने की स्थापित परंपरा को नज़रअंदाज़ करते हुए राज्यपाल मृदुला सिन्हा ने बीजेपी के इस मौखिक दावे को स्वीकार कर लिया कि उसके पास बहुमत है, जिसे वह विधानसभा में साबित कर देगी। मनोहर पर्रिकर को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गई। बाद में बीजेपी ने छोटे-छोटे स्थानीय दलों के विधायकों से दलबदल कराकर और उन्हें मंत्री पद देकर अपना बहुमत बना लिया। ठीक यही कहानी मणिपुर में भी दोहराई गई थी। 

विचार से ख़ास

जम्मू-कश्मीर की 'फ़ैक्स मशीन ख़राब'

एक साल पहले नवंबर महीने में ही जम्मू-कश्मीर में जब महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने नेशनल कॉन्फ़्रेंस और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश करने की सूचना फ़ैक्स के ज़रिए राज्यपाल सत्यपाल मलिक को भेजी तो राज्यपाल ने अपने निवास पर लगी फ़ैक्स मशीन ख़राब होने की हास्यास्पद दलील देते हुए महबूबा की ओर भेजी गई सूचना मिलने से इनकार कर दिया और विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफ़ारिश कर दी। कर्नाटक में भी कुछ महीनों पहले जनता दल (सेक्यूलर) और कांग्रेस की साझा सरकार को अपदस्थ कर बीजेपी सरकार बनाने के लिए वहाँ के राज्यपाल वजूभाई वाला ने जिस तरह का उतावलापन दिखाया, वह किसी से छिपा नहीं है। यही नहीं, उन्होंने अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर जनता दल (एस) तथा कांग्रेस के दलबदलू विधायकों को दलबदल निरोधक क़ानून से बचाने के लिए विधानसभा स्पीकर के अधिकार क्षेत्र में भी अनावश्यक दख़लअंदाज़ी की।

इस सिलसिले में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने तो अपनी 'ऐतिहासिक’ करनी से सभी राज्यपालों को पीछे छोड़ दिया है।

पिछले पाँच वर्षों के दौरान राज्यपालों ने सिर्फ़ सरकार बनाने-गिराने के खेल में ही सक्रियता नहीं दिखाई, बल्कि कई राज्यपालों ने तो राजनीतिक और भड़काऊ सांप्रदायिक बयानबाज़ी करने से भी गुरेज नहीं किया। कुछ दिनों पहले तक मध्य प्रदेश की और इस समय उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने तो मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले अपने दौरों के दौरान कई जगह लोगों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ मज़बूत करने की अपील तक की। हाल में राजस्थान के राज्यपाल पद से सेवानिवृत्त हुए कल्याण सिंह ने पद पर रहते हुए बीजेपी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ रहे अपने बेटे का चुनाव प्रचार किया। कुछ समय पहले तक उत्तर प्रदेश में राज्यपाल रहे राम नाईक तो समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान अपने बयानों से ऐसा आभास कराते रहे मानो वह राज्यपाल न होकर नेता प्रतिपक्ष हों। थोड़े दिनों पहले तक त्रिपुरा के राज्यपाल रहे तथागत रॉय तो अपने पूरे कार्यकाल के दौरान भड़काऊ और नफ़रत फैलाने वाले सांप्रदायिक बयान देते रहे और महात्मा गाँधी के ख़िलाफ़ भी उन्होंने कई अपमानजनक टिप्पणियाँ कीं।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि राज्यपाल पद के अवमूल्यन में कांग्रेस शासन के दौरान जो कमियाँ रह गई थीं, वह पिछले पाँच वर्षों के दौरान तमाम राज्यपालों ने पूरी कर दी है। राज्यपालों के अमर्यादित, असंवैधानिक और गरिमाहीन आचरण के जो रिकॉर्ड इन पाँच वर्षों के दौरान बने हैं, उनको अब शायद ही कोई तोड़ पाएगा।

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अनिल जैन
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