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नफरती बोल पर 'दर्पण' दिखाने वाले भारत विरोधी साज़िशकर्ता! 

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस पिछले दिनों भारत के आधिकारिक दौरे पर पधारे। उन्होंने आईआईटी मुंबई में भारत में मानवाधिकारों की स्थिति को लेकर ढेर सारी नसीहतें दे डालीं। गुटेरस ने कहा कि भारत की बात वैश्विक मंच पर तभी गंभीरता से ली जाएगी, जब वह अपने घर में मानवाधिकारों को लेकर प्रतिबद्ध रहेगा। उन्होंने यह भी कहा कि भारत को गांधी के मूल्यों पर चलने की ज़रूरत है तथा यह भी कि भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को भी सुरक्षा मिलनी चाहिए।  

गुटेरस ने गंगा यमुनी तहज़ीब पर आधारित भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की तारीफ़ करते हुये कहा कि भारत का स्वतंत्रता आंदोलन प्रेरणादायी रहा और इससे यूरोप के उपनिवेशवाद को दुनिया भर में झटका लगा। यूएन प्रमुख ने यह भी कहा कि ''हेट स्पीच' (नफ़रती भाषणों ) की स्पष्ट रूप से निंदा होनी चाहिए। पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, छात्रों और एकेडमिक्स की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा होनी चाहिए। इसके अलावा भारत की न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी क़ायम रहनी चाहिए। पूरी दुनिया भारत को इसी रूप में जानती है। मैं भारतीयों से आग्रह करता हूँ कि वे समावेशी, बहुलतावादी और विविध समाज की सुरक्षा को लेकर सतर्क रहें।''

                                    

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संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा देश,देश की सरकार तथा देशवासियों की दी जा रही इस सलाह के एक दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई की जिसमें याचिकाकर्ता ने एक समुदाय के विरुद्ध दिये जा रहे आपत्तिजनक भाषणों तथा बहिष्कार आदि को रोकने हेतु अपना दख़ल देने की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसी याचिका पर सुनवाई के दौरान एक बार फिर सरकार को दर्पण दिखाते हुए काफ़ी तल्ख़ टिप्पणियां कर डालीं। माननीय न्यायाधीश जस्टिस के एम जोसेफ़ ने कहा, “यह 21वीं सदी है। हम धर्म के नाम पर कहां आ पहुंचे हैं ? हमें एक धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु समाज होना चाहिए। लेकिन आज घृणा का माहौल है। सामाजिक ताना बाना बिखरा जा रहा है। हमने ईश्वर को कितना छोटा कर दिया है। उसके नाम पर विवाद हो रहे हैं।" जस्टिस जोसेफ ने फैसले में टिप्पणी की - 

आईपीसी में वैमनस्य फैलाने के विरुद्ध कई धाराएं हैं परन्तु अगर पुलिस उनका उपयोग न करे तो नफ़रत फैलाने वालों पर कभी लगाम नहीं लगाई जा सकती।


-जस्टिस के.एम.जोसेफ, सुप्रीम कोर्ट, हेट स्पीच पर

इससे संबंधित याचिका में दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की नफ़रती बयानबाज़ी वाली कई घटनाओं का हवाला दिया गया था। अदालत ने कहा, “हम इन राज्यों को निर्देश दे रहे हैं कि वह ऐसे मामलों में तुरंत केस दर्ज कर उचित क़ानूनी कार्रवाई करें। इसके लिए किसी शिकायत का इंतज़ार न करें।" कोर्ट ने यहाँ तक कहा कि भविष्य में यदि पुलिस क़ानूनी कार्यवाही करने में चूकती है, तो इसे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने तीनों राज्यों से यह भी कहा है कि पिछले कुछ समय में अपने यहां दिए गए सभी नफ़रत भरे बयानों को लेकर की गई कार्यवाही का ब्यौरा भी कोर्ट में जमा करवाएं।

                                            

यह पहला अवसर नहीं है जब देश की सर्वोच्च अदालत ने बेलगाम होकर ज़हरीले बोल बोलने वालों पर सख़्त टिप्पणी की हो। सुप्रीम कोर्ट तथा देश के विभिन्न हाईकोर्ट पहले भी अनेक बार नफ़रती भाषणों के विरुद्ध सरकार व प्रशासन को चेतावनी देते रहे हैं। परन्तु इसके बावजूद यह सिलसिला बंद होना तो दूर उल्टे दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। कट्टरपंथी धर्मगुरु हो या जनप्रतिनिधि, संवैधानिक पदों पर बैठे अनेक प्रमुख मंत्रीगण बेरोकटोक जो चाहे बोलते ही रहते हैं। यदि सीधे शब्दों में नहीं बोलते तो इनके द्वारा बड़ी चतुराई से संकेतों की भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। उदाहरण के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत दिनों दिल्ली में राष्ट्रीय लॉजिस्टिक नीति के उद्घाटन के अवसर पर कहा है, “देश बदल रहा है, पहले हम कबूतर छोड़ते थे, पर आज चीता छोड़ रहे हैं।”

आख़िर इस बात का क्या अर्थ निकाला जाये ? कुछ दिनों पहले ही सेन्ट्रल विस्टा में स्थापित उस अशोक स्तंभ को लेकर भी काफ़ी विवाद हुआ था जिसमें अशोक स्तंभ में दर्शाये गये शेर को हिंसक रूप में दिखाया गया था। इसकी काफ़ी आलोचना हुई थी।

                                                

भारत की विश्वव्यापी पहचान शांति, सद्भाव व अहिंसा की ही रही है। इसी लिये पूरी दुनिया कबूतर जैसे पक्षी को शांति का प्रतीक मानकर विभिन्न अवसरों पर उन्हें उड़ाती है। आज जब दुनिया विद्वेष, नफ़रत, हिंसा व युद्ध की आग में झुलस रही है, यहाँ तक कि विश्वयुद्ध और परमाणु युद्ध तक की बातें होने लगीं हैं, तब हिंसक व आक्रामक विश्वव्यापी वातावरण में शांति का प्रतीक कबूतर छोड़ कर भारत की तरफ़ से शान्ति व अहिंसा का सन्देश दिये जाने की ज़रुरत है न कि आक्रामक शेर या चीता को प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किये जाने की। 

वोटिंग मशीन का बटन इतनी ज़ोर से दबाओ कि ‘करंट शाहीन बाग़ में लगे’, ‘क़ब्रिस्तान-श्मशान’, ‘बिहार में ये जीते तो पटाख़े पाकिस्तान में फूटेंगे’, ‘उपद्रवियों की पहचान उनके कपड़ों से की जा सकती है’ जैसी अनेकानेक "सांकेतिक " शब्दावलियों ने ही देश के ज़हरीले बोल बोलने वाले नेताओं के हौसले बुलंद किये हैं। आज जब देखिये सरकार से सवाल करने या उसकी आलोचना करने वाले किसी न किसी पत्रकार को जेल भेज दिया जाता है। किसी को विदेश जाने से रोका जाता है।

इन्हीं कारणों से दुनिया के कई देशों के प्रमुखों द्वारा उनकी भारत यात्रा के दौरान तो कभी उनकी संसदों में भारत में मानवाधिकारों की चर्चा होते देखी गयी। यहां के मीडिया की निष्पक्षता पर सवाल उठे। नफ़रती भाषणों पर आवाज़ें उठीं। कई बार तो भारत सरकार को संज्ञान भी लेना पड़ा। तो कभी भारत ने यह कहकर अपना पीछा छुड़ाया कि यह भारत को बदनाम करने की साज़िश है या फिर यह भारत का आंतरिक मामला है।

                                             

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ऐसे में सवाल यह है कि नफ़रती भाषणों  व मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर अथवा गांधी दर्शन के बारे में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस की टिप्पणी हो या समय समय पर हमारे ही देश की अदालतों द्वारा जारी आदेश, निर्देश या टिप्पणियां, या फिर देश के पूर्व न्यायाधीशों व नौकर शाहों, वरिष्ठ पत्रकारों व बुद्धिजीवियों द्वारा व्यक्त की जाने वाली चिंतायें, क्या ये सभी  'दर्पण' दिखाने वाले, सरकार की नज़र में भारत विरोधी साज़िशकर्ता हैं या फिर सरकार को ही आत्मावलोकन की ज़रूरत है?          

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क़मर वहीद नक़वी
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