जो लोग हुकूमत में हैं वे समाज में बढ़ती हिंसा को लेकर किसी भी सांसद या उसकी बेटी की पीड़ा को सुनने-समझने की क्षमता और क़ाबिलियत खो चुके हैं। वैचारिक अथवा धार्मिक प्रतिबद्धताओं के आधार पर सेंसर बोर्ड में भर्ती होने वाली प्रतिभाओं से फ़िल्मों में हिंसा के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ फ़ैसले लेकर ताकतवर फ़िल्म उद्योग को नाराज़ करने के साहस की उम्मीद नहीं की जा सकती।
फ़िल्मों में प्रदर्शित की जानी वाली अतिरंजित हिंसा और सड़कों पर व्यक्त होने वाली असली सांप्रदायिक हिंसा से फ़िल्म उद्योग, सेंसर बोर्ड ,राजनीति, धर्म और समाज किसी को कोई परेशानी नहीं है। सत्ताधीशों के लिए जिस तरह से धर्म पैंतीस पार की आबादी को व्यस्त रखने का अचूक मंत्र बन गया है ,फ़िल्मों में हिंसा का प्रदर्शन युवाओं को बेरोज़गारी की चिंता से मुक्त रखने का तिलस्मी औज़ार साबित हो रहा है।