विधानसभा के चुनाव तो हो गये। कौन जीतेगा और कौन हारेगा, अब इस अटकल में जाने का कोई मतलब नहीं है। एग्ज़िट पोल ने नतीजों को और कन्फ्यूज कर दिया है। सब की निगाह बंगाल पर है। कोई पोल कह रहा है कि बीजेपी की सरकार बनेगी, कोई कह रहा है कि ममता की। इन अटकलबाज़ियों के बीच जो चीज़ निर्विवाद है वो है कि भविष्य में जब भी इन चुनावों का इतिहास लिखा जाएगा, इस काल का इतिहास लिखा जायेगा तो इतिहास बहुत निर्मम होगा। वो निर्मम होगा चुनाव आयोग को लेकर, उसकी भूमिका को लेकर। वो निर्मम होगा प्रधानमंत्री मोदी को लेकर, वो निर्मम होगा बीजेपी और आरएसएस को लेकर, वो निर्मम होगा विपक्ष को लेकर, वो निर्मम होगा समाज को लेकर, वो निर्मम होगा उन तमाम राजनीतिक दलों को लेकर जिन्होंने चुनाव जीतने के लिये इंसानों की ज़िंदगी की परवाह नहीं की। जब इतिहास यह सवाल पूछेगा कि इन चुनावों की कितनी क़ीमत लोगों ने अपनी जान देकर चुकाई है, तो शायद इन लोगों के पास कोई जवाब नहीं होगा। जब इतिहास यह सवाल पूछेगा कि कुंभ में स्नान करने से कितनों की जान गयी तो कोई जवाब नहीं होगा?

जब ये जानलेवा संकट आ रहा था या आने की आशंका थी, तब ये कहाँ थे? तब ये सो रहे थे, कुंभकर्ण की तरह। नहीं, शायद मैं ग़लत कह रहा हूँ। ये सो नहीं रहे थे। ये अपने अंहकार में डूबे थे, आत्म मुग्धता के समुद्र में डुबकियाँ लगा रहे थे, अपनी बेवक़ूफ़ी के दलदल में हँस रहे थे। कोई बेवकूफ ही यह कह सकता है कि उसने कोरोना पर विजय पा ली है।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।