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जयशंकर के रहते भारतीय डिप्लोमेसी ने कई सेल्फ़ गोल किए!

मौजूदा राजदूत विक्रम दोरईस्वामी भारतीय समुदायों के बीच एकजुटता बढ़ाने के बजाय अपने सामाजिक कौशल के लिए अधिक जाने जाते हैं। विदेशों में भ्रमण करते रहने वाले भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह दुनिया एक सीप की तरह है और विदेश मंत्रालय रसोइये के मुख्य सहायक की तरह। लेकिन बीते कुछ दिनों से उनके शत्रुओं ने पश्चिम के देशों में तूफ़ान खड़ा कर रखा है। शरारती खालिस्तानी तत्वों ने विश्व समुदाय पर भारत की पकड़ को कमज़ोर करने के लिए उसे निशाना बनाया है। भारत के प्रधानमंत्री विश्व के नेताओं को प्रिय हैं, यह तमाम हवाई अड्डों पर उनके स्वागत में खड़ी प्रवासी भारतीयों की भारी भीड़, टाउनहॉल सभाओं और आम रैलियों से साफ है।
ऐसे समय जब वे भारत में अपनी तीसरे राजनीतिक समर की तैयारियों में जुटे हैं, समझा जाता है कि मोदी अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए विदेश भ्रमण पर निकल सकते हैं।  वे मई में जापान, पापुआ न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया जाने वाले हैं।

नरेंद्र मोदी जी-7 के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए 20 मई को जापान के हिरोशिमा शहर पहुंचेंगे। यह उनकी पांचवीं जापान यात्रा होगी। इसके बाद वे 23 और 24 मई को क्वैड की बैठक में शिरक़त करने के लिए सिडनी जाएंगे। राष्ट्रपति जो बाइडन अपने चुनाव की तैयारियों में लग जाएं, उसके ठीक पहले मोदी जून में अमेरिका जाएंगे। चूंकि प्रधानमंत्री भारत में जी-20 की बैठकों के बाद विदेश यात्रा शायद न कर पाये लिहाजा उनकी टीम ने विदेशों में उनकी पहचान को पुख़्ता करने के लिए कूटनीतिक दौरों की योजना बनाई है। उनके लोग सामान्य बैठकों, रात्रि भोजों और दूसरे आयोजनों के अलावा अतीत की तरह बड़ी-बड़ी रैलियां करने की संभावनाओं को तलाश रहे हैं। 

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मार्च 2023 तक नरेंद्र मोदी 69 बार विदेश यात्रा पर जा चुके हैं। वे पांच लाख मील से अधिक की हवाई यात्रा कर चुके हैं और 80 देश घूम चुके हैं। वे इन नौ सालों में अमेरिका सात बार, जापान छह बार, चीन पांच बार, ब्रिटेन और रूस तीन-तीन बार जा चुके हैं।
विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय सावधानी प्रधानमंत्री के दौरों  का कार्यक्रम बनाते हैं, बीजेपी के नेता व सरकारी अधिकारी समय से पहले ही इन देशों में पहुंच जाते हैं। लेकिन अब लगता है कि विश्व गुरु की विदेश यात्रा में अलगाववादियों की ओर से अड़चन डालने की तैयारी कर रहे हैं। 
खालिस्तानी बदमाशों ने भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र की योग्यता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। ऑस्ट्रेलिया में भारतीय मिशन के बाहर हिंसक प्रदर्शनों से इन ख़ुफ़िया तंत्रों के कामकाज पर धब्बा लगा है। दूसरी ओर, स्थानीय सरकार अपनी ज़मीन पर भारतीय मंदिरों को अपवित्र करने के लिए अलगाववादियों को सज़ा देने नें नाकाम रही है।  खालिस्तानी समर्थकों ने अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में भारतीय वाणिज्य दूतावास में आग लगाने की कोशिश की, उन्होंने अमेरिका भर में और विरोध प्रदर्शनों की धमकी दी है।
कनाडा में उच्चायुक्त समेत तमाम भारतीय राजनयिक खुले आम घूम फिर नहीं सकते, उन्हें खुद पर हमले का डर है। खुफिया रिपोर्ट है कि मोदी के ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका दौरे पर खालिस्तान समर्थक बड़े-बड़े प्रदर्शन करेंगे। इससे बेफिक्र सत्ता प्रतिष्ठान ने संघ परिवार और विदेशों में बसे दूसरे राष्ट्रवादी तत्वों, जिनमें सिख भी हैं, की मदद से प्रधानमंत्री के स्वागत में भारी भीड़ एकत्रित करने की योजना बनाई है। प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय भारत-विरोधी गतिविधियों के यकायक बढ़ने से परेशान ज़रूर है।
पहली चिंता तो यह है कि स्थानीय एजंसियां और भारतीय मिशन इस अराजकता का पहले से अनुमान नहीं लगा पाए, वे इसे रोक नहीं पाए और केंद्र को पहले से सूचना नहीं दे पाए ताकि स्थानीय सरकार पर दबाव डाला जा सके। ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन में स्थानीय स्तर पर भारत-समर्थक वातावरण बनाने में इन देशों में तैनात उच्चायुक्तों की क्षमता की जांच की जा रही है।
हालांकि 2024 के चुनावों के पहले मोदी के ब्रिटेन जाने की संभावना नहीं है, प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय इस पर बेहद गुस्से में है कि अलगाववादियों ने लंदन स्थित भारतीय उच्चायोग भवन से तिरंगा उतार दिया। यह शायद पहली बार हुआ है कि दुनिया में कहीं भी उग्र भीड़ ने भारतीय झंडे को उतारा है।  भारतीय मूल के ब्रिटिश नेताओं का मानना है कि उच्चायोग ने स्थानीय हिन्दुओं और सिखों के बीच पैठ बनाने के लिए पर्याप्त पहल नहीं की है। मौजूदा राजदूत विक्रम दोरईस्वामी भारतीय समुदायों के बीच एकजुटता बढ़ाने के बजाय अपने सामाजिक कौशल के लिए अधिक जाने जाते हैं।
भारत में सरकारें आईं, गईं, लेकिन चीन के एक विशेषज्ञ पिछले पंद्रह साल से ऊंचे पद पर विराजमान हैं, उन्हें 30 साल में 15 नियुक्तियां मिलीं। बांग्लादेश में तैनात भारतीय उच्चायुक्त के रूप में उनका कार्यकाल थोड़े समय के लिए था क्योंकि प्रधानमंत्री शेख हसीना ने महीनों लटकाए रखने के बाद उन्हें मिलने का समय दिया था। ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों को भी वहां के भारतीय राजनयिकों से ऐसी ही शिकायतें हैं।
मिशन के लोगों से लगातार संपर्क में रहने वाले कुछ प्रमुख भारतीयों के मुताबिक़, वर्तमान भारतीय उच्चायुक्त मनप्रीत वोरा के पास नस्लीय संघर्षों और स्थानीय सिविल सोसाइटी समूहों से निपटने का अनुभव नहीं है। उन्होंने अप्रैल 2021 में कार्यभार संभाला था। पच्चीस साल की सेवा में उन्हें कभी भी ऐसे देश में नियुक्त नहीं किया गया, जहां सिखों और भारतवंशियों की अच्छी खासी तादाद हो।
इसलिए प्रधानमंत्री मोदी पर छोड़ दिया गया कि वे ऑस्ट्रेलिया के पीएम से सीधे बात करें। प्रधानमंत्री कार्यालय अमेरिका के लॉस एंजिलिस में आगजनी की कोशिश पर पागलों की तरह बिफरा हुआ है। अमेरिका अब तक खालिस्तानियों का सुरक्षित पनाहगाह रहा है। लेकिन विरोध प्रदर्शनों की शैली और आक्रामकता ने सरकार को इन राजनयिकों की भूमिका पर विचार करने को मजबूर किया है।
अमेरिका में भारत के राजदूत, जो अभी एक्सटेंशन पर हैं, पुराने अमेरिका विशेषज्ञ हैं। साल 2020 में राजदूत बनने से पहले उन्होंने 11 साल अमेरिका में बिताए थे। हालांकि वे मोदी के संपन्न और सफल भारतीय प्रशंसकों का इस्तेमाल कर खालिस्तानी तत्वों का विरोध करने और उन्हें निष्क्रिय करने में नाकाम रहे, ये अलग बात है कि हर अमेरिका यात्रा में प्रधानमंत्री मोदी का ज़ोरदार स्वागत हुआ है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ा खिलाड़ी बनने के लिए यह पर्याप्त नहीं है कि कोई नेता अपने ही देश में पूजा जाए। कोई सरकार विदेशों में कितनी कामयाब होती है, यह इससे तय होता है कि वह किस क्वालिटी के राजनयिकों को विदेशों में तैनात करती है। फिलहाल 193 विदेशी मिशनों और दिल्ली के साउथ ब्लॉक में 900 आईएफ़एस तैनात हैं। कई संवेदनशील मिशनों के प्रमुखों को उनके कूटनीतिक कौशल की वजह से नहीं बल्कि वफ़ादारी के कारण चुना गया है। 
नटवर सिंह को छोड़ विदेश मंत्रालय की कमान उन लोगों के हाथों रही है जो कूटनीति की राजनीति समझते थे। नटवर सिंह तो ग़ैर-कूटनीतिक दुस्साहस के कारण पद गंवा बैठे थे। मोदी ने विदेश मंत्री के रूप में एक ऐसे आईएफ़एस को चुना, जिसकी राजनीतिक पहचान नहीं थी।
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दुर्भाग्यवश एस. जयशंकर एक ऐसे दंभी कूटनीतिक जीनियस हैं, जिन्होंने ग़ैर-कूटनीतिक आक्रामकता में विशेषज्ञता हासिल कर रखी है। वे बेरोकटोक पांच साल तक भारतीय कूटनीति के गोलकीपर बने रहे और इसी दौरान भारतीय राजनय ने सबसे ज़्यादा गोल अपने ही पाले में किए और उग्रवाद की बुदबुदाहट को रोकने में नाकाम रहा। ऐसे समय जब मोदी ने विदेशों में भारत का झंडा बुलंद कर रखा है, संवेदनशील देशों में भारतीय कूटनीति का झंडा आधा झुका हुआ है। 

कूटनीति जब तक घरेलू दुश्मनों को विदेशों में कुचलने की इच्छा शक्ति और राजनीतिक दृष्टि हासिल न कर ले, तब तक उत्सव मनाने का मोदी मंत्र भारतीय विदेश नीति का डबल इंजन नहीं बन सकता। जैसा कि क्लॉज़वित्ज़ ने कहा था, कूटनीति युद्ध करने का दूसरा तरीका है। भारत पहले से ही उग्रवाद के साथ एक ऐसे युद्ध में है, जिसमें नए भारत के विचार, प्रधानमंत्री और उनकी विरासत को निशाना बनाया जा रहा है। यह युद्ध तो अभी शुरू ही हुआ है। भारतीय मिशन का एक मिशन होना ही चाहिए, आंखें बंद कर शून्य में विचरण करने से कुछ नहीं होगा। 

(यह लेख 'द संडे स्टैंडर्ड' और 'न्यू इंडियन एक्सप्रेस' के 'पावर एंड पॉलिटिक्स' कॉलम में प्रकाशित हो चुका है।) 

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प्रभु चावला
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