क्या भारत के राष्ट्रपति सर्वोच्च हैं या सुप्रीम कोर्ट? जानिए इस संवैधानिक बहस की पूरी कहानी और क्या कहता है संविधान राष्ट्रपति और न्यायपालिका के रिश्ते के बारे में।
भारत के संविधान में उल्लिखित संवैधानिक पदों में पहला नाम राष्ट्रपति का आता है। राष्ट्रपति भारतीय सेना के तीनों अंगों के सर्वोच्च कमांडर और निर्वाचित केंद्र सरकार के मुखिया होने के बावजूद देश के प्रथम नागरिक हैं। क्या हमारे वर्तमान उपराष्ट्रपति एवं राज्य सभा जैसे संविधान के संघीय गणतांत्रिक ढांचे के प्रतीक विधायी सदन के सभापति रहते भी जगदीप धनखड़ राष्ट्रपति के प्रथम नागरिक होने के संवैधानिक तथ्य को नहीं जानते? इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि सर्वोच्च न्यायालय उस संविधान का संरक्षक है जिसे हम भारत के नागरिकों ने अपने को, अपने द्वारा एवं अपने लिए समर्पित एवं अंगीकृत किया है और राष्ट्रपति स्वयं प्रथम नागरिक हैं। इतना ही नहीं, राष्ट्रपति को उनके पद एवं गोपनीयता की शपथ भी भारत के मुख्य न्यायाधीश ही दिला कर उन्हें देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर प्रतिष्ठित कराते हैं। तो फिर देश के प्रथम नागरिक उस सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से ऊपर अर्थात इम्यून यानी निरपेक्ष कैसे हो सकते हैं जो संविधान का संरक्षक है?
क्या उपराष्ट्रपति स्वयं संविधान विशेषज्ञ होने के बावजूद संविधान के इस बुनियादी तथ्य को नहीं जानते अथवा महज राजनीतिक कारणों से इस महत्वपूर्ण तथ्य को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं? जगदीप धनखड़ संविधान विशेषज्ञ वकील होने के नाते दशकों सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय में संविधान की व्याख्या करते रहे हैं। उपराष्ट्रपति इससे पहले भी राज्यपाल जैसे संवैधानिक और केंद्रीय मंत्री जैसे विधायी पद पर कम कर चुके हैं। इतने महत्वपूर्ण पदों पर आजीवन काम करने के बावजूद देश के प्रथम नागरिक को संविधान के संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से ऊपर बताना क्या ओढ़ी गई अज्ञानता का प्रतीक नहीं है?
अफ़सोस ये कि उपराष्ट्रपति पद पर प्रतिष्ठित होने से पहले बतौर पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ के अनेक बयान उनकी संवैधानिक गरिमा के प्रतिकूल ठहराए जा चुके हैं। क्या उनके इस बयान को भी उसी शृंखला में नहीं रखा जाएगा। अफसोस ये कि उपराष्ट्रपति ने संविधान की ऐसी मनमानी व्याख्या राज्यसभा के उन प्रशिक्षुओं के सामने की है जिन्हें कल देश और समाज में निर्णायक पदों पर काम करना है जिसमें बहुधा संवैधानिक प्रावधानों को समझना और लागू करना होगा। अब यदि प्रशिक्षु, देश के उपराष्ट्रपति के मुँह से संविधान की उसके सुविचारित एवं सुव्याख्यायित प्रावधानों से असंगत व्याख्या सुनेंगे तो संविधान के प्रति उनके मन और काम में क्या निष्ठा रह जाएगी?
उपराष्ट्रपति ने ये प्रतिक्रिया सर्वोच्च न्यायालय के उस ऐतिहासिक निर्णय की आलोचना में व्यक्त की है जिससे देश में निर्वाचित राज्य सरकारों के गणतांत्रिक अधिकार बहाल हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ये निर्णय राज्यों की विधानसभा द्वारा बहुमत से पारित उन विधेयकों को राज्यपालों एवं राष्ट्रपति द्वारा मंजूरी देने की समय सीमा निर्धारित करते हुए सुनाया है जो अनावश्यक लंबित हैं। निर्णय का कारण तमिलनाडु की एम के स्टालिन सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका है। याचिका में राज्यपाल आर एन रवि द्वारा तमिलनाडु की निर्वाचित विधान सभा द्वारा बहुमत से पारित विधेयकों को मंजूर करने में अनावश्यक देरी के समाधान की माँग राज्य सरकार ने की थी। सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में प्रत्यक्ष दखल के बजाए पिछली तारीखों में कुछ ऐसी टिप्पणियां कीं जिनसे नसीहत लेकर राज्यपाल को दो साल से अपने पास अटकाए गए विधान सभा से पारित दस विधेयकों को तत्काल मंजूरी दे देनी चाहिए थी।
पूर्व नौकरशाह रवि ने जब सर्वोच्च अदालत के इशारे को भी अनदेखा किया तो न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की खंडपीठ ने मंज़ूरी की समय सीमा निर्धारित कर दी।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस ऐतिहासिक फ़ैसले में राज्यपाल को पाबंद कर दिया कि विधानसभा द्वारा बहुमत से दोबारा पारित विधेयक को आगे से एक महीने में या तो राष्ट्रपति को अंतिम निर्णय के लिए भेजना होगा अन्यथा स्वयं मंजूरी देकर राज्य सरकार को भेजना होगा। इसी प्रकार न्यायमूर्ति खन्ना की पीठ ने राष्ट्रपति को भी पाबंद किया कि अंतिम निर्णय के लिए राज्यपाल के यहाँ से मिले विधेयक पर उन्हें तीन माह के भीतर अपनी राय प्रकट कर देनी होगी। ज़ाहिर है कि उक्त समयावधि बीतने पर विचाराधीन विधेयकों को स्वतः पारित मानकर उन्हें राज्य सरकार स्वयं अधिसूचित कर सकेगी। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से सत्ता प्रतिष्ठान में खलबली मचना स्वाभाविक है क्योंकि तमिलनाडु ही नहीं, बल्कि केरला और पश्चिम बंगाल के राज्यपालों ने भी निर्वाचित विधानसभाओं द्वारा बहुमत से पारित विधेयकों पर निर्णय में ऐसे ही टालमटोली की थी। गौरतलब है कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ इससे पहले पश्चिम बंगाल के ही राज्यपाल थे। अब वही राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधेयकों को मंजूरी देने के लिए पाबंद करने के ख़िलाफ़ सबसे अधिक मुखर हैं!
उपराष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रपति को पाबंद करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को चुनौती देने संबंधी बयान में संसद अर्थात् विधायी सदनों को हमारी संवैधानिक व्यवस्था में सर्वोच्च बताया गया है। उनके अनुसार इसका आधार विधायी सदनों का प्रत्यक्ष निर्वाचित होना है। तो फिर सर्वोच्च न्यायालय ने निर्वाचित विधायी सदनों द्वारा बहुमत से पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा निर्धारित करके क्या विधान सभाओं की स्वायत्तता एवं श्रेष्ठता को बहाल नहीं किया? क्या सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से जन प्रतिनिधियों को चुन कर विधानसभा भेजने वाले उस मतदाता अर्थात् नागरिक को वो विधेयक लागू होने से उसका हक वापस नहीं मिल रहा जिस पर राज्यपाल कुण्डली मारे बैठे थे? आख़िरकार राष्ट्रपति और राज्यपाल भी तो मतदाता और देश के नागरिक ही हैं। उन्होंने भी तो निर्वाचित विधानसभा और लोकसभा के गठन के लिए मतदान किया है। फिर उपराष्ट्रपति की दलीलों में इस बुनियादी तथ्य की अनदेखी क्यों की जा रही है। उपराष्ट्रपति ने भी तो विधानसभा और लोकसभा के निर्वाचन में मतदान किया है!
जगदीप धनखड़ सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना के अतिरेक में क्या ये भी भूल गए कि संविधान यदि संघीय है तो गणतांत्रिक भी है। इसीलिए केंद्र और राज्यों के अधिकार उसमें स्पष्ट परिभाषित हैं। दोनों में समन्वय के लिए समवर्ती सूची भी दूरदृष्टा संविधान निर्माताओं ने संविधान में शामिल की है। इतने स्पष्ट संवैधानिक व्यवस्था के बावजूद संविधान की मनमानी व्याख्या करके धनखड़ क्या उन बाबासाहेब आंबेडकर का अपमान नहीं कर रहे जिनका उसके निर्माण में प्रमुख योगदान है।
संविधान सभा के मुखरतम सदस्य होने के साथ-साथ बाबासाहेब ने ही संविधान का दस्तावेजीकरण किया है। उपराष्ट्रपति के संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के ऐसे बयान क्या उन सरदार वल्लभ भाई पटेल की अवमानना नहीं है जिन्होंने संविधान के साथ-साथ भारत के निर्माण में भी शीर्ष भूमिका निभाई?
सरदार पटेल को तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित समूची बीजेपी/आरएसएस भारत का वास्तविक निर्माता बताते नहीं अघाते! सरदार पटेल को स्वाधीनता आंदोलन के प्रतीकों से वंचित बीजेपी/आरएसएस द्वारा गोद लेने की व्यग्रता में मोदी सरकार ने गुजरात के केवड़िया में उन्हें दुनिया में सबसे ऊँची मूर्ति में प्रतिष्ठित कर दिया है!
ये दीगर है कि परम पावन नर्मदा किनारे आदिवासियों की जमीन पर बना सरदार पटेल का स्मारक आज़ादी की विरासत का तीर्थ बनने के बजाय नवविवाहित और रोमांटिक जोड़ों की क्रीड़ास्थली में ढल गया है। उपराष्ट्रपति के बयान संविधान सभा के अध्यक्ष और प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के विवेक पर भी प्रश्नचिह्न लगाते हैं जिनकी महानता की याद बीजेपी-आरएसएस को सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन के प्रसंग में आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहर लाल नेहरू को नीचा दिखाने के लिए आती है। कुल मिलाकर उपराष्ट्रपति, संविधान के संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय की लोकतांत्रिक व्यवस्था बरकरार रखने में अहम भूमिका को ही तिरोहित नहीं कर रहे बल्कि स्वाधीनता संग्राम की विरासत को बीजेपी-आरएसएस द्वारा कांग्रेस से झपटने के मंसूबों को भी पलीता लगा रहे हैं।