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कर्नाटक: मजदूरों को जबरन रोककर संविधान की धज्जियां उड़ा रहे येदियुरप्पा

कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा का दूसरे राज्यों के हज़ारों मजदूरों को जबरन अपने प्रदेश में रोक कर रखने का फ़ैसला संविधान के ख़िलाफ़ है। आज़ाद भारत में कोई भी सरकारी, अर्ध सरकारी, अशासकीय संस्था भारत के किसी भी व्यक्ति को इच्छा के विरुद्ध इस तरह बंधक बनाकर नहीं रख सकती।
राजेश बादल

कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा ने कई राज्यों के हज़ारों मजदूरों को जबरन अपने प्रदेश में रोक कर रखने का फ़ैसला किया है। उनके लिए केंद्र सरकार की विशेष रेल सुविधा को इस राजनेता ने ठुकरा दिया है। ये मजदूर राज्य सरकार के नियमित, अनियमित, अनुबंधित अथवा किसी अन्य श्रेणी के कर्मचारी नहीं हैं। न ही उनके पास कर्नाटक हुकूमत का कोई अनुबंध पत्र है, जिसकी शर्तें तोड़कर वे अपने गृहराज्य लौट रहे हों। 

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ब्रिटिश हुकूमत जैसा बर्ताव

शायद कर्नाटक के मुख्यमंत्री को अंदाज़ा नहीं है कि जिस संविधान की शपथ लेकर वह उस पद पर काम कर रहे हैं, उनका यह निर्णय उसी पवित्र ग्रंथ की धज्जियां उड़ा रहा है। यह ठीक ब्रिटिश हुकूमत की तरह किया जा रहा बर्ताव है। कर्नाटक में मर्ज़ी के ख़िलाफ़ रोककर रखे गए ये श्रमिक तो गिरमिटिया यानी एग्रीमेंट वाले भी नहीं हैं। 
आज़ाद भारत में कोई भी सरकारी, अर्ध सरकारी, अशासकीय संस्था भारत के किसी भी व्यक्ति को इच्छा के विरुद्ध इस तरह बंधक बनाकर नहीं रख सकती।

उत्तर प्रदेश, बिहार और जिन प्रदेशों के मतदाताओं और मूल निवासियों को वहाँ रोका गया है, उनकी सरकारें भारतीय दण्ड संहिता के तहत इस राज्य सरकार के ख़िलाफ़ उनके लोगों को बलपूर्वक रोक कर रखने का मामला दर्ज कर सकती हैं और सुप्रीम कोर्ट भी जा सकती हैं।

यही नहीं, प्रत्येक मजदूर के परिवार के लोग येदियुरप्पा के विरुद्ध अपने-अपने गाँव के पुलिस स्टेशन में प्रकरण कायम कर सकते हैं। मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ इसलिए क्योंकि न तो कैबिनेट में यह निर्णय लिया गया है और न ही राज्यपाल की मंज़ूरी के बाद इसका गज़ट नोटिफ़िकेशन हुआ है। कह सकते हैं कि कोई अध्यादेश भी जारी नहीं हुआ है, इसलिए यह सरकार के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री के विरुद्ध मामला बनता है।

अगर मजदूरों को रोककर रखे जाने के बारे में सरकारी निर्णय हो भी गया होता तो भी यह अवैधानिक होता। प्रथम दृष्टया यह संविधान के अनुच्छेद 19 की डी, ई और 23 की भावना के अनुरूप नहीं है।

दूसरी बात, अगर राज्य सरकार ने इन मजदूरों को इनकी इच्छा के विरुद्ध रोक ही लिया है तो यह मान लिया जाना चाहिए कि आज से वह उनकी नियोक्ता बन गई है और मजदूरों को जबरन रोके जाने की अवधि में उसे भारत सरकार की निर्धारित न्यूनतम मजदूरी का भुगतान तब तक करना होगा, जब तक वह उन्हें रोक कर रखेगी। 

कर्नाटक सरकार का मानना है कि मजदूरों के जाने से बिल्डिंग निर्माण के काम में बाधा आ सकती है। इसलिए, प्रदेश में इस मानव श्रम की आवश्यकता है जिससे राज्य की आर्थिक रफ़्तार न रुके। 

इस तरह से राज्य सरकार ने उन हज़ारों लोगों को रोज़गार देने का अप्रत्यक्ष वादा कर दिया है। इस वादे के कारण मजदूर अपने-अपने प्रदेश में रोज़गार का अवसर भी खो रहे हैं। किसी को रोज़गार के अवसरों से वंचित करना भी क़ानून सम्मत नहीं है।

चूँकि इस मामले में मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार की पहल और निर्णय से असहमति दिखाई है, जो प्रथम दृष्टया अमानवीय, क्रूर और मौलिक अधिकारों का हनन है। 
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तीसरी बात। इन मजदूरों के परिजन उनके मूल प्रदेशों में हैं। उनमें से किसी के पिता कोरोना से पीड़ित हो सकते हैं, किसी की माँ की सेहत ख़राब हो सकती है, किसी की पत्नी का प्रसव काल आ सकता है। ऐसे में उन्हें अपने परिवार के साथ इन आपात परिस्थितियों में रहने से कोई नहीं रोक सकता। यह भी मानव अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है। 

माननीय सर्वोच्च न्यायालय इस सन्दर्भ में स्व प्रेरणा से अगर इस बेहद संवेदनशील मामले पर ध्यान देता है तो हज़ारों परिवारों के लिए यह राहत की बात हो सकती है।   

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