इस्लाम में रमज़ान का महीना बहुत पवित्र माना जाता है। लेकिन दूसरी तरफ अफगानिस्तान की मस्जिदों में बम धमाके हो रहे हैं, जिनमें अनगिनत नमाज़ी मारे गए हैं। आखिर वो कौन मुसलमान हैं जो ऐसे कारनामों को अंजाम दे रहे हैं। क्या उन्हें मुसलमान कहा जाना चाहिए।
मुसलमान इस्लाम को चाहे जितना शांति सद्भाव तथा समानता वाला धर्म क्यों न बतायें परन्तु अपने उद्भव काल से ही यानी इस्लाम धर्म के प्रवर्तक व अंतिम पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के जीवन काल में ही इस्लाम उदार व कट्टरवाद की दो अलग अलग धाराओं में बंट गया था। मस्जिदों में नमाज़ियों को क़त्ल करने की प्रवृति भी कोई नई नहीं है। यह तालिबान, इस्लामिक स्टेट अथवा अलक़ायदा द्वारा शुरू किया गया सिलसिला नहीं है। बल्कि इसकी शुरुआत 19 रमज़ान 40 हिजरी तदानुसार 26 जनवरी 661 ईस्वी को उसी समय हो गयी थी जबकि पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के चचेरे भाई और दामाद अर्थात हज़रत मुहम्मद की इकलौती बेटी हज़रत फ़ातिमा के पति हज़रत अली को इराक़ के कूफ़ा शहर की मशहूर 'मस्जिद-ए-कूफ़ा ' में नमाज़ अदा करते वक़्त उस समय शहीद किया गया था जबकि वे नमाज़ में सजदे की हालत में थे। उनका हत्यारा इब्न-ए-मुल्जिम था।
इतिहास गवाह है कि पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के देहान्त के फ़ौरन बाद ही इस्लाम पर वर्चस्व की लड़ाई और धर्म व सत्ता के गठजोड़ की जो ख़तरनाक सियासत शुरू हुई थी उसी का शिकार स्वयं इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद का पूरा परिवार हुआ। हज़रत अली की कूफ़े की मस्जिद में हत्या, हज़रत मुहम्मद की बेटी व हज़रत अली की पत्नी फ़ातिमा पर जानलेवा हमला, उनके अधिकारों व संपत्ति पर क़ब्ज़ा, अली के बड़े बेटे इमाम हसन को ज़हर देकर शहीद कर देना, फिर क्रूरता की इंतेहा करने वाली वह दास्तान-ए-करबला जिसमें अस्सी साल के बुज़ुर्ग से लेकर छः महीने के बच्चे तक को शहीद किया गया।