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हालात ‘आपातकाल’ के हैं तो नतीजे भी 1977 जैसे मिलने चाहिए!

अरविंद केजरीवाल ने राहुल गांधी की पार्टी के साथ चार राज्यों और चंडीगढ़ की 46 सीटों को लेकर अंततः समझौता कर ही लिया! चार राज्यों में गुजरात भी शामिल है जहां 2022 के विधानसभा चुनावों में केजरीवाल ने लगभग तेरह प्रतिशत वोट प्राप्त करके प्रधानमंत्री के 56 इंच के सीने को 156 सीटों में तब्दील करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ‘आम आदमी पार्टी’ के मेयर-पद  के उम्मीदवार की धोखाधड़ी के ज़रिए चंडीगढ़ में कराई गई हार ने शायद केजरीवाल का हृदय-परिवर्तन कर दिया।

अन्ना आंदोलन का स्मरण करें तो केजरीवाल अब उसी पार्टी (कांग्रेस) के साथ मिलकर मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ेंगे जिन्हें 2014 में सत्ता में लाने के लिए उन्होंने दिल्ली के रामलीला मैदान से मनमोहन सिंह सरकार की बर्ख़ास्तगी की मुहिम चलाई थी। केजरीवाल को अहंकार हो गया था कि मोदी को सत्ता से हटाने की क्षमता भी सिर्फ़ उनमें ही है। कांग्रेस से समझौते से पहले ‘आप’ नेता ने पिछले दिनों यहाँ तक दावा कर दिया था कि मोदी अगर 2024 में फिर सत्ता में आ जाते हैं तो 2029 में वे अकेले (केजरीवाल) ही उन्हें हटा देंगे।

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केजरीवाल के उक्त दावे का तब यही अर्थ लगाया गया था कि महत्वाकांक्षी ‘आप’ नेता भाजपा की बी-टीम की कप्तानी कर रहे हैं। शायद यही कारण था कि 2019 के लोकसभा चुनावों में दिल्ली की सातों सीटों पर कांग्रेस के बाद तीसरे क्रम पर रहने के बावजूद वे अकेले ही लड़ना चाहते थे। कांग्रेस से समझौते के पहले केजरीवाल को ख़बर लग चुकी थी कि राहुल की रैलियों में किस तरह की भीड़ उमड़ रही है और अखिलेश यादव भी ‘मोहब्बत की दुकान’ में अपनी कमाई झोंकने की तैयारी कर चुके हैं। कांग्रेस से समझौते के बाद ‘आप’ नेताओं ने दावा किया कि केजरीवाल को धमकियाँ मिल रही थीं कि विपक्षी गठबंधन में शामिल होने की क़ीमत जेल यात्रा से चुकानी पड़ेगी। 

भाजपा के चुनावी रणनीतिकारों ने इतने घातक विपक्षी गठबंधन के अस्तित्व में आ जाने की कल्पना निश्चित ही नहीं की होगी! गठबंधन की दक्षिण भारत की टीम (स्टालिन+डीके शिवकुमार+रेवंत रेड्डी+ वाय एस शर्मिला) की चर्चा न करें तो भी उत्तर भारत में अखिलेश+तेजस्वी+सोरेन+केजरीवाल के नेतृत्व में जो ताक़त खड़ी हो गई है वह वैकल्पिक राजनीति की स्थाई इबारत बनाने जा रही है। उत्तर और दक्षिण के इन सभी नेताओं को ठीक से अनुमान है कि उनके लिए इस बार नहीं तो फिर कभी नहीं वाली स्थिति है। कहा जा सकता है कि भाजपा को डर राहुल गांधी से नहीं बल्कि विपक्ष के इन नए चेहरों से लगना चाहिये!

तमाम अवरोधों के बावजूद अगर राहुल गांधी मोहब्बत के शहर आगरा में अखिलेश की प्रतीक्षा कर रहे थे तो इसके पीछे के करण को यूँ समझा जा सकता है कि चुनाव का कुरुक्षेत्र यूपी ही बनने वाला है। भाजपा को सबसे ज़्यादा चिंता भी इसी राज्य से है। राहुल-प्रियंका की रैलियों में उमड़ी भीड़ और व्यापक युवजन-असंतोष इसका कारण बन सकता है।
राहुल-अखिलेश ने यूपी में अगर 2009 दोहरा दिया तो राजनीति में तूफ़ान मच जाएगा। उस वक्त भाजपा को तब सिर्फ़ दस सीटें प्राप्त हुई थीं। कांग्रेस ने 21 और सपा ने 23 पर जीत दर्ज कराई थी। यूपी में कांग्रेस का चुनावी नेतृत्व तब राहुल के ही पास था।

याद करना ज़रूरी है कि 2014 के ‘ऐतिहासिक’ चुनावों के पहले अगस्त 2013 में यूपी के मुज़फ़्फ़रनगर में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों में 65 जानें गई थीं और 93 लोग हताहत हुए थे। 2019 के चुनावों के ठीक पहले पुलवामा हादसा हो गया था। दोनों घटनाओं के कारण उत्पन्न हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने चुनाव परिणामों की सूरत बदल कर रख दी थी। भगवान द्वारिकाधीश की राष्ट्र पर कृपा है कि वैसी कोई विपत्ति उत्पन्न नहीं हुई है।

जनता का ध्यान मुँडेरों पर बैठे आलोचकों की इस आशंका की तरफ़ भी आकर्षित किया जाना ज़रूरी हो गया है कि भाजपा को साधारण बहुमत जितनी सीटें भी प्राप्त नहीं होने का जो विश्वसनीय माहौल आँकड़ों की मदद से देश में बनना प्रारंभ हुआ है वह कहीं विपक्षी गठबंधन को ज़मीनी ज़रूरतों से दूर कर अतिरंजित आत्मविश्वास से नहीं भर दे? आलोचकों का यह भी पूछना है कि चुनाव जीतने के लिए भाजपा द्वारा अपनाए जा रहे आक्रामक रुख़ का विपक्षी गठबंधन किस तरह मुक़ाबला कर पाएगा? किसी भी क़ीमत पर चुनाव जीतने को कटिबद्ध भाजपा द्वारा ईजाद किए जा रहे तरीक़े राहुल की ‘मोहब्बत की दुकान’ के ईमानदार क़ानून-क़ायदों से बिलकुल अलग हैं।

विचार से और

उदाहरण के लिए गृहमंत्री अमित शाह ने हाल ही ग्वालियर में पार्टी-कार्यकर्ताओं को चुनाव जीतने का मंत्र दे डाला कि : 'कांग्रेस के बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं को चुनाव से पहले भाजपा में लाएँ। सांसद, विधायक और बड़े नेताओं को पार्टी में लाने के काम पर नेतृत्व विचार करेगा। अन्य दलों के कार्यकर्ताओं को पार्टी में लाने से डरो मत।’ अमित शाह के फ़ार्मूले के क्या अर्थ निकाले जाएँ? कि पार्टी अपनी पराजय को लेकर डरी हुई है? कि पार्टी के पास जनता को बताने के लिए अपनी ही सरकारों के कोई काम नहीं हैं? कि भाजपा विपक्षी दलों को ख़त्म कर देश में सिर्फ़ एक पार्टी की हुकूमत चाहती है? 

अमित शाह से चुनाव जीतने के गुर प्राप्त करने के लिए खजुराहो में भाजपा के 23,000 बूथ कार्यकर्ता उपस्थित थे। बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं की इतनी बड़ी उपस्थिति के बावजूद पार्टी में सत्ता के हाथ से चले जाने का डर व्याप्त है और दूसरे दलों के लोगों को तोड़ने का खुला आह्वान किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में विपक्षी गठबंधन क्या उम्मीद कर सकता है कि सत्तारूढ़ दल लोकसभा चुनाव ‘चंडीगढ़ मॉडल’ से नहीं बल्कि लोकतांत्रिक तरीक़ों से लड़ने की तैयारी कर रहा है? ऐसा नहीं है तो क्या राहुल गांधी को अपनी तीसरी यात्रा की तारीख़ें भी अभी से घोषित नहीं कर देना चाहिए? जनता की उम्मीदें इस समय यही हैं कि परिस्थितियां अगर 1975 के ‘आपातकाल’ के तरह की हैं तो नतीजे भी 1977 जैसे ही प्राप्त होने चाहिए!

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श्रवण गर्ग
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