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मालदीव से रिश्ते: क्या कुर्सी की खातिर सब कुछ गवां दिया जाये?

कुर्सी क्या इतनी महत्वपूर्ण चीज बन गयी है कि उसके पीछे लोग अपना सब कुछ गवां देने पर उतारू हैं? ये सवाल आपके मन में आये या न आये किन्तु मेरे मन में बार-बार आ -जा रहा है। कनाडा से बिगाड़ के बाद अब पड़ोसी मालदीव से भी हमारे लिए अच्छी ख़बर नहीं आ रही। मालदीव में 'इंडिया आउट' का नारा देने वाले चीन समर्थक उम्मीदवार मुइज़्ज़ू राष्ट्रपति का चुनाव जीत गए हैं।

मालदीव जनसंख्या और क्षेत्र दोनों ही प्रकार से एशिया का सबसे छोटा देश है। और 1965 में आज़ाद हुआ है। मालदीव है तो इस्लामिक देश किन्तु भारत के साथ मालदीव के रिश्ते पारम्परिक और भौगोलिक रूप से नए नहीं हैं। मालदीव की आज़ादी के पहले से भारत का मालदीव के घरेलू मामलों में दखल रहा, लेकिन अचानक भारत ने मालदीव की उपेक्षा करना शुरू कर दिया। नतीजा ये हुआ कि अब मालदीव चीन की ओर झुक चुका है।

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भारत बीते एक दशक से मालदीव के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करने से बच रहा है। इसका सीधा फायदा चीन को मिलता दिख रहा है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग जब भारत आए थे तब वे मालदीव और श्रीलंका होते हुए आए थे। दोनों देशों में मैरीटाइम सिल्क रूट से जुड़े एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए लेकिन जब राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए तो इस मुद्दे पर पूरी तरह से चुप्पी रही। एक जमाना था जब दक्षिण एशिया को लेकर भारतीय विदेश नीति बेहद आक्रामक थी। ये स्थिति राजीव गांधी सरकार से लेकर नरसिम्हा राव सरकार तक रही। 

भारत ने साल 1988 में मालदीव में तख़्तापलट की कोशिशों को नाकाम किया। लेकिन इसके बाद से भारत का प्रभाव बेहद कम होता गया है। इसके स्थानीय कारण भी हैं क्योंकि मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम भारत के अच्छे दोस्त थे। ये दोनों देशों के बीच गहरे संबंध का कारण था। भारत का प्रभाव इस क्षेत्र में कम हुआ है लेकिन ये कमी चीन के बढ़ते प्रभाव की वजह से ज़्यादा दिखाई पड़ती है। भारत के खिलाफ खड़ा होने वाला मालदीव एक नया देश है। 

पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान में इन दिनों भारत का नहीं, चीन का डंका बज रहा है। सुदूर कनाडा तक में भारत विरोधी खालिस्तानी आंदोलन ने नए सिरे से सर उठा लिया है और हम हैं कि हमें अपनी विदेश-नीति की समीक्षा करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं हो रही। हम इस मुद्दे पर कभी घर के भीतर आपस में बैठकर बात ही नहीं करना चाहते। विपक्ष से हमारा अनबोला है। पड़ोसियों से भी हमारा अनबोला बढ़ता ही जा रहा है। हमारी हर नीति में अदावत और अकड़ भर गयी है।
विदेश नीति को भूल भी जाइये तो घरेलू नीति में भी हम अपने रिश्तों में कड़वाहट भरते जा रहे हैं। कितनी हैरानी की बात है कि तेलंगाना में राजनीतिक अदावत की वजह से तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर लगातार छह बार प्रधानमंत्री की अगवानी करने तक नहीं गए। ये कौन सी सियासत है।

भारत एक गणराज्य है, स्वायत्तता सबके लिए महत्वपूर्ण है। एक प्रधानमंत्री की ज़िम्मेदारी है कि वो कम से कम देश के भीतर तो कुर्सी की खातिर रंजिशें न पाले। आज जो तेलंगाना में हो रहा है वो सब पहले पश्चिम बंगाल में हो चुका है। बंगाल की मुख्यमंत्री को अपमानित करने का कोई मौक़ा प्रधानमंत्री जी ने नहीं छोड़ा। कभी-कभी देश के भविष्य को देखकर चिंता और घबराहट होती है। हम न देश के भीतर सामंजस्य स्थापित कर पा रहे हैं और न देश के बाहर। ऊपर से तुर्रा ये है कि हम विश्व मित्र बन गए हैं। 

मौजूदा हालात को देखकर तो ये लगता है कि हम विश्वमित्र नहीं विश्वशत्रु बन गए हैं। हमारा शत्रुता का स्वभाव हमसे सब कुछ छीन ले रही है। हम न अपनी अकड़ छोड़ने को राजी हैं और न सौजन्य बनाने के लिए। हम अहंकार के आठवें आसमान पर हैं। जहां हमारे बराबर कोई दूसरा है ही नहीं। कनाडा तो चलिए सात समंदर पार है लेकिन नेपाल और मालदीव तो हमारे आसपास है। हमारी भौगोलिक सीमाएं इन दोनों देशों से जुड़ी हैं। इन दोनों देशों में भारत विरोधी माहौल बना हुआ है। भूटान जैसे देश से हमारे पारम्परिक दोस्ताना रिश्ते बिगाड़ पर हैं। श्रीलंका हमारे न प्रभाव में है और न दबाब में। बांग्लादेश हमें रोज अपनी अनदेखी का उलाहना दे रहा है। 

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अब हमारे सिर पर न लाल टोपी है और न पांवों में जापानी जूता। हमारी इंग्लिस्तानी पतलून का भी आता-पता नहीं है। फिर भी हम हिन्दुस्तानी हैं। अलग-थलग पड़ते हिंदुस्तानी। हम अपने पारम्परिक मित्र खोते जा रहे हैं और नए मित्र हमसे बनाये नहीं जा रहे। न घर के भीतर और न घर के बाहर। हमारी तमाम नीतियों का ही नतीजा है कि पंजाब फिर से उड़ता दिखाई दे रहा है। और इस सबके पीछे एक दिल्ली की कुर्सी है। हम कुर्सी को लात नहीं मार सकते। दोस्ती को लात मार सकते हैं। लगातार मार रहे हैं। देश इस समय जिन दुर्दिनों से गुजर रहा है उनकी चर्चा करना भी अब राष्ट्रद्रोह है। हम गांधी के भारत हैं। हमारी पहचान ही सहिष्णुता और संभव है, जिसे अब संकीर्णता और अदावत में बदल दिया गया है। मालदीव के नए चीन समर्थक राष्ट्रपति भविष्य में भारत के साथ कैसे निभाएंगे ये हमारी चिंता का विषय होना चाहिए किन्तु हम पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव जीतने की जुगत में बहुत कुछ दांव पर लगा रहे हैं। 

ईश्वर यदि कहीं है तो हमें देश के लिए प्रार्थना करना चाहिए। अब देश प्रार्थनाओं से ही बच सकता है। देश की राजनीति में भरी कड़वाहट करेले से भी ज़्यादा कड़वी हो गयी है। हो भी क्यों न? करेला भी तो नीम पर चढ़ा हुआ है। हमें याद रखना चाहिए कि मालदीव के भारत के साथ पहले से ही सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध रहे हैं। मालदीव लंबे समय से भारत के प्रभाव में रहा है। ये माना जाता है कि मालदीव में अपनी मौजूदगी बनाये रखकर भारत हिंद महासागर के बड़े हिस्से पर निगरानी रखता रहा है। इसलिए हमें मालदीव की फ़िक्र करना चाहिए।

(राकेश अचल के फेसबुक पेज से साभार)

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राकेश अचल
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