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नेहरू-पटेल को लड़ाने वालों को नेहरू की कितनी समझ?

नेहरू को कैसे याद किया जाए? क्या अमेरिकी सांसद और वहाँ के हाउस ऑफ़ रेप्रेज़ेंटेटिव्स के बहुमत के नेता स्टेनी होयर के कहे शब्दों की तरह जिन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के ‘हाउडी मोदी’ इवेंट में कहा- आप गाँधी और नेहरू के देश से आए हैं? या फिर प्रधानमंत्री की इस ग़लतबयानी की तरह कि नेहरू सरदार वल्लभभाई पटेल की अंतिम यात्रा में शामिल नहीं हुए थे?

सन 1964 में जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु पर न्यूयॉर्क टाइम्स ने ख़बर का शीर्षक दिया था- ‘नेहरू- द मेकर ऑफ़ मॉडर्न इंडिया’ यानी नेहरू- आधुनिक भारत के निर्माता। ‘द इकॉनमिस्ट’ ने आवरण कथा का शीर्षक दिया था ‘वर्ल्ड विदाउट नेहरू- यानी नेहरू के बिना दुनिया’। ध्यान दें, दुनिया, सिर्फ़ भारत नहीं है। इसने आगे जोड़ा कि दुनिया का मंच उनके बिना ग़रीब हो जाएगा। तो एक बात तो साफ़ है कि नेहरू के बारे में दुनिया की राय नहीं बदली है। 1964 से लेकर 2019 तक। भारतीयों के एक बड़े हिस्से की भी नहीं। संघ का दुष्प्रचार तंत्र चाहे जो भी कह ले।

असल सवाल यह है कि नेहरू दरअसल क्या थे? आधुनिक भारत के निर्माता? कश्मीर समस्या के जनक? फिर जूनागढ़ के भारत में विलय के बाद सार्वजनिक भाषण में पाकिस्तान से कश्मीर और हैदराबाद की अदलाबदली करने का प्रस्ताव देने वाले सरदार पटेल कौन थे? यहाँ ज़रा-सा रुकते हैं। जूनागढ़ में सरदार पटेल के भाषण की पंक्ति थी- ‘अगर वे हैदराबाद (देने) पर सहमत हो जाएँ तो हम कश्मीर (देने) पर सहमत हो जाएँगे।’

कमाल यह है कि ठीक यही स्थिति जनसंघ के संस्थापक (और नेहरू सरकार के मंत्री भी) श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भी थी। उनकी जीवनी- भारत केसरी डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी: विद मॉडर्न इम्प्लिकेशंस- के लेखक एससी दास भी तमाम दस्तावेज़ों के साथ यही कहते हैं कि सरदार पटेल कश्मीर के बदले पूर्वी पाकिस्तान लेने को लेकर बहुत उत्सुक थे और इस बात पर ‘डॉक्टर मुखर्जी और भारत के लौह पुरुष सरदार पटेल में सहमति थी।’ हैदराबाद की जगह पूर्वी पाकिस्तान इसलिए हो गया था क्योंकि नेहरू ने सरदार पटेल को ‘पुलिस कार्रवाई’ कर हैदराबाद ले लेने की इजाज़त दे दी थी, और हैदराबाद लिया भी जा चुका था।

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इस बात को बल इस तथ्य से भी मिलता है कि 1947 में 22 साल के हो गए संघ ने बँटवारे के ख़िलाफ़ कोई आंदोलन नहीं किया। दरअसल आंदोलन तो भूल जाइए, जब पूरा देश आज़ादी की आख़िरी लड़ाई में जान लगा रहा था तब संघ के दुलारे श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हिंदू महासभा सिंध और बंगाल में मुसलिम लीग के साथ गठबंधन में सरकार चला रही थी, मुखर्जी ख़ुद फ़ज़लुल हक़ के उपमुख्यमंत्री थे! यह भी ध्यान रहे कि नेहरू ने मुखर्जी को अपनी लोकतांत्रिकता के चलते ‘राष्ट्रीय सरकार’ में शामिल किया था और वह बँटवारे से लेकर सारे निर्णयों के साझीदार थे- कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र संघ जाने ही नहीं, संघ पर प्रतिबंध लगाने तक। 

गाँधी हत्या के बाद सरदार पटेल ने संघ पर प्रतिबंध 4 फ़रवरी 1948 को लगाया, उसके बाद सालों तक वह नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल रहे थे। मुखर्जी ने अंततः इस्तीफ़ा 6 अप्रैल 1950 को दिया, हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों में अल्पसंख्यक समुदाय की रक्षा और अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए अल्पसंख्यक आयोगों की स्थापना के लिए लियाक़त नेहरू समझौते के विरोध में! जी हाँ- यह हिन्दू महासभा/संघ के हिन्दू प्रेम पर भी एक हलफ़िया बयान है- यहाँ रोज़ पूछने वाले कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों का क्या, ये वही हैं जिन्होंने वहाँ के अल्पसंख्यक यानी ज़्यादातर हिन्दू और सिख के अधिकारों के लिए हुए समझौते का विरोध किया!

चीन को वीटो का अधिकार दे देने से लेकर ऐसे तमाम तथ्य और भी दिए जा सकते हैं जिनसे संघ के दुष्प्रचार की कलई साफ़-साफ़ खुल जाती है। पर सवाल जो है उससे बड़ा है- असली नेहरू कौन थे? कोई महामानव? महानायक? खलनायक? या तमाम इंसानी ताक़तों और कमज़ोरियों से भरा एक प्यारा इंसान?

दरअसल, नेहरू थे असल ‘ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’। एक व्यक्ति जो विदेश में पढ़ते हुए आज़ादी, लोकतंत्र और आदर्शवाद जैसे सिद्धांतों की तरफ़ झुका और भारतीय राजनीति के सबसे कठिन दौर में राजनीति में पहुँच गया। एक बेहद रईस कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में पला यह लड़का स्वाधीनता संग्राम के सबसे बड़े और सबसे लोकप्रिय नेताओं तक में से एक हुआ। 

नेहरू के राजनैतिक जीवन को समझने के लिए उनके जीवन के तीन निर्णायक पड़ाव देखे जाने चाहिए। दक्षिण अफ़्रीका के दूसरे बोयर युद्ध और जापान-रूस युद्ध से उनके अंदर विकसित हो रही राष्ट्रवाद की भावना को किसी परीक्षा में ईनाम में मिली इटली के राष्ट्रवादी, गणतांत्रिक नेता गैरीबाल्डी की किताब से बेहद धार मिली। वह धार जो वकालत की पढ़ाई पूरी कर भारत लौटते ही कांग्रेस के साथ सम्पर्क में बदली, फिर गाँधी जी से मुलाक़ात में और गाँधी के उनमें अपना उत्तराधिकारी पहचान लेने में। गाँधी ने उन्हीं को क्यों चुना? आसान भाषा में कहें तो बस इतना समझ लें कि गाँधी को भारत जैसे बहुलतावादी, बहुधार्मिक, जातीय विभाजनों से घिरे समाज में पूर्वाग्रहों से मुक्त जैसा नेता चाहिए था वैसे बस नेहरू ही थे- वरना सरदार पटेल सहित कांग्रेस के तमाम नेताओं में वह बात नहीं थी- जैसे सरदार पटेल की कश्मीर पर राय में।

गाँधी ने नेहरू को आगे क्यों किया?

आज़ादी की लड़ाई में कोई हिस्सा न लेने वाले संघ के लोग गाँधी और पटेल को पूजते हैं और नेहरू और पटेल को लड़ाने की कोशिश करते हैं। अगर असल में पटेल के साथ कोई अन्याय हुआ तो वह गाँधी ने किया, एक बार नहीं, तीन-तीन बार। नेहरू को पटेल के आगे करके। उनके अपने कारण थे, मगर इस तथ्य की रोशनी में गाँधी को पटेल के साथ पूजना और नेहरू को खलनायक बनाने की कोशिश करना निरा पाखंड है, सच के साथ भद्दा मज़ाक़ है, इतिहास के साथ धोखा है। 

गाँधी ने नेहरू को पटेल के आगे पहली बार तब किया जब कांग्रेस ने उनके दबाव में अक्टूबर 1929 में क़रीब 40 वर्ष की उम्र में नेहरू को अध्यक्ष चुना। इसके पहले गाँधी कई बार कह चुके थे कि ‘जो जवाहरलाल और मेरा रिश्ता जानते हैं वे जानते हैं कि पद पर उसका होना या मेरा होना एक ही बात है। हम दोनों में वैचारिक मतभेद हो सकते हैं पर हमारे हृदय एक हैं।’

नेहरू कैसे बन गए कांग्रेस अध्यक्ष?

इसे वह निर्णायक घटना माना जा सकता है जिसने आधुनिक और लोकतांत्रिक भारत का इतिहास तय कर दिया। उस चुनाव में कांग्रेस की सबसे ज़्यादा 10 प्रांतीय समितियाँ गाँधी को अध्यक्ष बनाना चाहती थीं, 5 पटेल को और 3 ख़ुद नेहरू को। पर गाँधी जी ने ख़ुद और पटेल को पीछे कर नेहरू को चुना- उनकी उम्र से लेकर तमाम कारण हैं, पर सबसे बड़ा यह कि कुछ ही वक़्त पहले जिन्ना कांग्रेस से अलग हो गए थे- और उनके साथ तमाम मुसलिम भी। सरदार पटेल और नेहरू में से कांग्रेस ही नहीं, तब देश के मुसलिम मानस को जिन्ना के अलगाववाद के रास्ते से रोक पाने में नेहरू ही सक्षम थे। इसके साथ नेहरू की तमाम और स्वीकार्यताएँ भी थीं जो कांग्रेस के किसी और नेता को हासिल नहीं थीं- अंतरराष्ट्रीय पहचान और कूटनीति की समझ के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय आंदोलनों के साथ साझेदारी, युवाओं पर शानदार पकड़, समाजवादी छवि जो तमाम युवाओं को कम्युनिस्ट पार्टी में जाने से रोक सकती थी, अखिल भारतीय पहचान और स्वीकार्यता, सेकुलर छवि, और बेशक ग्लैमर! पटेल कभी दक्षिण भारत में बड़ा नाम नहीं हो पाए और राजगोपालाचारी उत्तर में।

कमाल यह कि नेहरू ख़ुद कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर नाराज़ थे, और उन्होंने अगस्त में भी गाँधी जी को टेलीग्राम भेज अपना नाम आगे न करने का अनुरोध किया था। वे अंत तक अड़े रहे पर इन दोनों की ज़िद में किसकी ज़िद बड़ी थी यह पूरा भारत जानता है।

नेहरू ने अपनी नाराज़गी जताई भी- बाद में लिखा कि ‘मुख्य दरवाज़े से क्या मैं बग़ल के दरवाज़े से भी नहीं आया, मैं तो अचानक एक छुपे दरवाज़े से सामने कर दिया गया जिससे स्तब्ध जनता को मुझे चुनना पड़ा।

ख़ैर, इसके बाद का इतिहास यहीं से तय हुआ इतिहास है- 29 दिसंबर को नेहरू का रावी तट पर तिरंगा फहराने और पूर्ण स्वतंत्रता की माँग का, और नेहरू के गाँधी के बाद सबसे बड़ा नेता बनने का।

गाँधी जी ने यह 2 बार और किया- 1936 में जब सी राजगोपालचारी ने अपने नाम के व्यापक समर्थन के बावजूद अपने नाम की जगह नेहरू का नाम बढ़ाया और गाँधी जी ने मान लिया। फिर 1946 में जब आज़ादी तय हो गई थी, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आज़ाद ख़ुद दुबारा अध्यक्ष बनना चाहते थे और फिर भी गाँधी ने नेहरू का नाम आगे कर दिया जबकि साफ़ था कि कांग्रेस अध्यक्ष का नई कार्यवाहक सरकार में प्रधानमंत्री के समकक्ष ही होना है। उसके बाद का इतिहास थोड़ा सा भ्रामक है- संघ के लोगों के दावे हैं कि पटेल को कांग्रेस की प्रांतीय समितियों का ज़्यादा समर्थन था जिसके प्रमाण में वे कुछ दिखाते नहीं। वह यह भी नहीं बताते कि मौलाना आज़ाद द्वारा नेहरू के नाम के प्रस्ताव के बाद स्वयं पटेल ने इसका विरोध क्यों नहीं किया- ख़ासतौर पर तब जब तमाम दावों के मुताबिक़ उन्हें राजेंद्र प्रसाद का समर्थन तक हासिल था।

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नेहरू का विरोध क्यों नहीं हुआ?

इस सवाल के जवाब उसी स्वीकार्यता में छुपे हैं जिसका ज़िक्र पहले कर चुका हूँ, जो नेहरू को हासिल थी- जनता से लेकर भारतीय समाज के तमाम अंतर्विभाजनों तक। वह स्वीकार्यता जो पटेल के पास नहीं थी। जिसकी तरफ़ ख़ुद मौलाना आज़ाद ने इशारा किया था। जिसके संकेत तब कांग्रेस के सबसे बड़े दक्षिण भारतीय नेता सी राजगोपालाचारी के नेहरू के समर्थन में मिलते हैं। और यह स्वीकार्यता यहीं ख़त्म नहीं होती, अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता तक जाती है। 

नेहरू आज़ादी के पहले ही वैश्विक स्तर के नेता बन चुके थे जबकि पटेल को भारत के बाहर कम ही लोग जानते थे। पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री बने होते तो कुछ होता न होता- जैसे शायद कश्मीर भारत का न होता- हैदराबाद से बदल लिया जाता, या बाद में पूर्वी पाकिस्तान से, श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे लोग मंत्रिमंडल में हिस्सा न पाते (यह ठीक होता), वग़ैरह।

पटेल ब्रिगेड क्यों नहीं?

पर इन सबके ऊपर नेहरू की स्वीकार्यता वह स्वीकार्यता है जो कांग्रेस से अलग होकर आज़ाद हिंद फ़ौज बनाने के बाद नेताजी के अपनी ब्रिगेड का नाम रखने में दिखती है- गाँधी ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड, सुभाष ब्रिगेड और आज़ाद ब्रिगेड- बाद में स्त्रियों के भी आने पर लक्ष्मीबाई ब्रिगेड। नेहरू के बरअक्स पटेल ही नहीं, सुभाष को भी खड़ा करने वालों को बताना चाहिए कि असल में पटेल का क़द नेहरू से बड़ा था, असल में नेहरू ने छल किया, आज़ाद हिंद फ़ौज में नेहरू ब्रिगेड क्यों थी, पटेल ब्रिगेड क्यों नहीं? 

ख़ैर, महान नेताओं को, दूरदर्शियों को यह सब दिखता है- गाँधी, नेहरू, सुभाष और पटेल को भी दिखा। वे आजीवन मित्र रहे, राष्ट्र निर्माण के काम में साथ शामिल हुए, आजीवन एक-दूसरे का सम्मान किया। वह सम्मान जिसने भारत को वह जगह दी जहाँ आज वह है- गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेता भारत, आज़ादी के दो साल के अंदर भारत पहले कोरिया में और फिर भारत का प्रधानमंत्री ख़ुद वियतनाम में वियतकांग और फ़्रांस के बीच युद्धविराम की निगरानी करने वाला भारत, औपनिवेशिक पुर्तगाल से नेहरू के नेतृत्व में गोवा वापस छीन लेने वाला भारत, सिक्किम को शांति से वापस पा लेने वाला भारत, 1971 में अमेरिकी धमकियों और जंगी बेड़े की परवाह किए बिना बांग्लादेश को आज़ाद करा लेने वाला भारत।
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नेहरू ने भी की ग़लतियाँ

तो क्या नेहरू ने कोई ग़लती नहीं की? वे महामानव थे? 

बिलकुल नहीं। नेहरू के नाम तमाम उपलब्धियाँ हैं तो महाराजा हरि सिंह के पहले आज़ाद कश्मीर फिर पाकिस्तान में शामिल होने की धमकियों और अक्टूबर 1947 तक भारत में न शामिल होने के बीच कश्मीर बचाने में कंधा से कंधा मिलाकर खड़े शेख़ अब्दुल्ला को बार-बार गिरफ़्तार करवाना भी है। और यह करके कश्मीर समस्या में एक और पहलू बढ़ा देना भी। दिल्ली और श्रीनगर में एक-दूसरे पर संशय पैदा करना भी। ब्रिटिश भारत में भी हमेशा केवल रस्मी नाम पर हिस्सा रहे नगालैंड के साथ खड़े फ़िज़ो से स्वायत्तता और सम्मान के साथ उसे भारत की मुख्यधारा में और विश्वास में लाने की जगह फ़िज़ो को गिरफ़्तार करवा लेने की ग़लती भी है, तो पंचशील के सिद्धांत के बाद चीन का धोखा भी। 

पर नेहरू की ग़लतियाँ भी अनजाने की हैं, नीयत की नहीं। आज नेहरू पर सवाल उठाते लोग उनकी महानता का सबसे बड़ा प्रमाण हैं- लगभग बिना विपक्ष, भारत का 17 साल तक एकक्षत्र नेता रहा नेहरू उनके कहे मुताबिक़ होता तो आज वे नहीं होते।

बाक़ी बस ख़ुद अटल बिहारी वाजपेयी की नेहरू के निधन पर उनको श्रद्धांजलि बहुत है।

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समर अनार्य
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