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क्या कोरोना संकट को अवसर में बदल रहे हैं प्रधानमंत्री मोदी?

प्रधानमंत्री लगातार राज्य सरकारों, मुख्यमंत्रियों और मुख्य सचिवों से भी संपर्क में रहे और उनकी ज़रूरतों और माँगों पर भी काम किया गया। कुछ शिकायतें तब भी रहीं, लेकिन ज़्यादातर सरकारें लॉकडाउन बढ़ाने की माँग करती रहीं। ऐसा लगता है कि तमाम कोशिशों के बावजूद सरकारें और हमारे जन प्रतिनिधि सबसे निचले तबक़े, ग़रीब श्रमिक की तकलीफ़ को वक़्त रहते समझ नहीं पाए। 
विजय त्रिवेदी

कहा जाता है कि समुद्र में जब ज्वार आता है तब ही मछलियाँ पकड़ी जाती हैं यानी संकट ही अवसर का बेहतर वक़्त होता है। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब लॉकडाउन के दौरान देश को पाँचवीं बार संबोधित किया तो उन्होंने माना कि यह संकट का समय है, आपदा का वक़्त है, लेकिन इसमें मरना, टूटना, बिखरना नहीं है, जीतना है। कोरोना की महामारी से, लड़ाई से हारना नहीं है, हमें ना केवल जीत कर निकलना है, बल्कि बेहतर और मज़बूत होना है।

प्रधानमंत्री मोदी ने इस बार आत्मनिर्भर भारत की बात की है। देश में हर कोई उनसे आर्थिक पैकेज की माँग कर रहा था ताकि अर्थव्यवस्था और देश को पटरी पर लाने का काम फिर से शुरू हो सके। मोदी ने 12 मई की रात आठ बजे जब दूरदर्शन पर अपना संबोधन दिया तो लोगों में अब नवम्बर 2016 वाला डर महसूस नहीं हो रहा था बल्कि लोग एक उम्मीद से देख रहे थे कि प्रधानमंत्री क्या एलान करने वाले हैं। सबको लग रहा था कि लॉकडाउन- 4 तो होगा ही क्योंकि दो दिन पहले मुख्यमंत्रियों के साथ उनकी बैठक में इसके संकेत मिल गए थे। पाँच राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने तो लॉकडाउन बढ़ाने की माँग रखी थी, लेकिन सबको प्रधानमंत्री से राहत और आर्थिक पैकेज की उम्मीद थी। 

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प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज का एलान किया, इसमें क़रीब पाँच लाख करोड़ का एलान पहले ही किया जा चुका है। कुछ लोगों का कहना है कि यह पैकेज असल में दस लाख करोड़ का अब होगा क्योंकि उससे पहले इतनी ही रक़म का एलान सरकार और रिज़र्व बैंक अलग-अलग मौक़ों पर कर चुके हैं। 20 लाख करोड़ का पैकेज भारत की कुल जीडीपी का दस फ़ीसदी है, यानी एक बड़ा आर्थिक पैकेज है। ऐसा नहीं है कि दुनिया में दूसरे देशों ने आर्थिक पैकेज का एलान नहीं किया है। जीडीपी की हिस्सेदारी के हिसाब से भारत इस मामले में पाँचवें नंबर पर है। इसमें जापान पहले नंबर पर है जिसने अपनी जीडीपी का 21.1 फ़ीसदी के आर्थिक पैकेज का एलान किया। फिर अमेरिका ने 13  फ़ीसदी, स्वीडन ने 12 फ़ीसदी और जर्मनी ने 10.7 फ़ीसदी का एलान किया। 

इसमें अमेरिका ने क़रीब एक महीने पहले ही आर्थिक पैकेज का एलान किया था। इसमें अहम बात यह भी है कि उसकी अर्थव्यवस्था के हिसाब और आबादी की तुलना में वो बहुत बड़ा पैकेज है, लेकिन अमेरिका में नुक़सान भी ज़्यादा हुआ है। कुछ लोग कह सकते हैं कि हमारे यहाँ इस पैकेज से अर्थव्यवस्था दौड़ने नहीं लगेगी, यह सच है लेकिन इतने बड़े संकट के बाद पहला क़दम खड़ा होना होता है, यदि इस पैकेज से हम फिर से खड़े हो जाते हैं और आगे क़दम बढ़ाने के लिए मज़बूत हो सकते हैं तो फिर किसी दिन दौड़ भी सकेंगे, फ़िलहाल फिर से खड़ा होना सबसे ज़रूरी है।

पिछले 54 दिनों में प्रधानमंत्री का यह पाँचवाँ संबोधन था। इस बार उनके तेवर बदले हुए थे। 

एक बार प्रधानमंत्री ने जान बचाने की चिंता की थी और कहा था कि 'जान है, तो जहान है'। इसके लिए घर की लक्ष्मण रेखा को पार नहीं करने की सलाह दी थी। फिर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि 'जान भी, जहान भी'।

तब उन्होंने लॉकडाउन के साथ कुछ राहत और ढील देने की घोषणा की। प्रधानमंत्री लगातार राज्य सरकारों, मुख्यमंत्रियों और मुख्य सचिवों से भी संपर्क में रहे और उनकी ज़रूरतों और माँगों पर भी काम किया गया। कुछ शिकायतें तब भी रहीं, लेकिन ज़्यादातर सरकारें लॉकडाउन बढ़ाने की माँग करती रहीं। ऐसा लगता है कि तमाम कोशिशों के बावजूद सरकारें और हमारे जन प्रतिनिधि सबसे निचले तबक़े, ग़रीब श्रमिक की तकलीफ़ को वक़्त रहते समझ नहीं पाए। देखते-देखते फैक्ट्रियों और कंपनियों पर ताले लगने से वे बेरोज़गार होने लगे और उनके लिए जीना दूभर हो गया और वे अब घर लौटना चाहते थे। 

मज़दूरों पर लाठियाँ

वे बिना किसी सरकारी इंतज़ाम के पैदल ही अपने घरों की तरफ़ लौटने लगे। पहले सरकारों ने उन पर लाठियाँ बरसाईं, फिर घरों की तरफ़ धकेला, देर से समझ आया कि घर वापसी उनकी मानसिक और आर्थिक ज़रूरत है। कुछ सरकारों ने कुछ लोगों, दूसरे शहरों में फँसे पढ़ने वाले बच्चों को वापस लाने की कोशिश शुरू की और आख़िर में नंबर आया श्रमिकों का जब उनके लिए बसों और श्रमिक एक्सप्रेस चलाने का काम शुरू हुआ। इसमें भी उनसे किराया लेने को लेकर ‘कन्फ्यूजन’ रहा और सरकारें अपनी तरफ़ से सफ़ाई देती रहीं। इसके बावजूद प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में प्रवासी श्रमिकों की इस तकलीफ़ का ज़िक्र नहीं किया है।

बहुत से लोगों को प्रधानमंत्री का यह संबोधन चुनावी भाषण जैसा भी लगा। यह उनकी शैली है, इसकी एक वजह शायद यह भी है कि हम अभी तक पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सपाट भाषण शैली से बाहर नहीं निकल पाए हैं। 

यह भी सच है कि प्रधानमंत्री मोदी हमेशा चुनावी मोड में रहते हैं यानी वो जनता से ख़ुद को जोड़ने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते। इसलिए वह कभी कोरोना वॉरियर्स के लिए थाली और ताली बजाने के लिए कहते हैं तो कभी रात को नौ बजे नौ मिनट के लिए दीया जलाने को और फिर आत्मनिर्भर भारत बनाने को। 

संकट के समय पस्त होती जनता को हौसला देना भी नेतृत्व का गुण और ज़िम्मेदारी होती है। इसलिए प्रधानमंत्री कहते हैं कि यह संकट बड़ा है, लेकिन संकल्प इससे ज़्यादा मज़बूत होना चाहिए। थकना, हारना, टूटना, बिखरना मानव को मंज़ूर नहीं है।

वह गुजरात में 2001 में आए भूंकप की याद दिलाते हैं जहाँ कच्छ और भुज में मौत की चादर फैल गई थी, लेकिन कच्छ और भुज खड़ा हो गया। कोरोना संकट से निकल कर हम भी फिर से खड़े हों, इसके लिए मोदी ने आत्मनिर्भर होने की बात की, लोकल के वोकल और लोकल के ग्लोबल होने पर ज़ोर दिया। भाषण में तो यह अच्छा लगता है, लेकिन ज़मीन पर इसे उतारना उतना ही मुश्किल काम है। अभी तो मज़दूरों की घर वापसी हो रही है, लेकिन उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण और मुश्किल काम होगा उन्हें फिर से अपने गाँव और घरबार को छोड़कर काम पर लाना, जब तक वो नहीं लौटेंगे तब तक अर्थव्यवस्था नहीं सुधरेगी। प्रधानमंत्री जब संकट के वक़्त रोज़ाना दो लाख पीपीई किट और मॉस्क बनाने की बात करते हैं तो इसे हिंदुस्तानियों की फितरत की तारीफ़ मानना चाहिए। बीस लाख करोड़ के पैकेज और 2020 को जोड़ना मोदी की भाषण शैली का हिस्सा है, लेकिन अहम होगा कि इस पैसे का किस तरह इस्तेमाल होगा। श्रमिकों, कामगारों, लघु और कुटीर उद्योंगों के साथ छोटे मंझले उद्योगों पर ध्यान देना तो ज़रूरी है ही, बड़े उद्योगों के बिना हाल नहीं सुधरने वाले और समाजवादियों और साम्यवादियों के अंदाज़ में बड़े पूंजीपतियों और उद्योगपतियों को सरकारी मदद के लिए आलोचना करने से पहले यह भी समझना चाहिए कि उन उद्योगों से ही करोड़ों लोगों को रोज़गार मिलता है और अर्थव्यवस्था मज़बूत होती है। 

विचार से ख़ास
प्रधानमंत्री मोदी हमेशा ही 21वीं सदी को एशिया और ख़ासतौर से भारत की सदी बताते रहे हैं। इस दौरान भारत की रफ्तार भी बढ़ी थी, लेकिन कोरोना संकट के बाद अगर वो देश को आगे बढ़ा सकेंगे तो फिर कम ही लोग होंगे जो उनके नेतृत्व पर सवाल उठाएँगे। मेरे एक मित्र ने फ़ोन करके पूछा कि क्या आपने ढपोर शंख की कहानी नहीं सुनी? मैंने जवाब दिया –सुनी है, लेकिन सच यह भी है कि जो बड़े सपने देखने की हिम्मत करते हैं और रास्ता निकालने की कोशिश करते हैं, मंज़िल सिर्फ़ उन्हें मिलती है। सिर्फ़ आलोचनाओं से आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
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