लखनऊ के लोगों ने उद्घाटन के दिन ही राष्ट्र प्रेरणा स्थल से 7000 गमले चुरा कर यह साबित कर दिया कि राष्ट्रीय चरित्र न तो ऊंची ऊंची कांस्य प्रतिमाओं से बनता है, न तो लंबे चौड़े भाषणों से और न ही सुंदरता बढ़ाने वाले गमलों से। राष्ट्रीय चरित्र कुछ मूल्यों से बनता है और उसे दृढ़ता मिलती है उन मूल्यों को अपने जीवन और सामाजिक जीवन में उतारने वाले सामाजिक और राजनीतिक चरित्रों से। आप संघ परिवार और हिंदुत्व की राजनीति से कितने भी असहमत हों लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन में संघर्ष, त्याग, तपस्या, प्रतिभा और विद्वता के कुछ तत्व थे तभी वे एक राजनीतिक धारा को बढ़ा सके और निजी स्तर पर कामयाबी भी पा सके। लेकिन इसी के साथ यह कहने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि उनके युग में जितने विराट चरित्रों के लोग थे उनके सामने इन लोगों का कद इतना बड़ा नहीं था कि इतनी ऊंची मूर्तियां बनवाई और लगवाई जाएं। लेकिन क्या करें, बेचारी भाजपा के पास जब गौरवशाली राजनीतिक विरासत है ही नहीं, तो जो भी छोटी मोटी है उसी से काम चलाना पड़ेगा या फिर दूसरी धाराओं की विरासत को उसी तरह चुराना पड़ेगा जिस तरह राष्ट्र प्रेरणा स्थल के उद्घाटन के तत्काल बाद लोग गमले चुराने लगे थे।

लखनऊ विकास प्राधिकरण के अधिकारी ने कहा है कि जैसे ही कार्यक्रम (राष्ट्र को प्रेरणा देने वाला) समाप्त हुआ वैसे ही लोग स्कूटरों और कारों से गमले उठाकर भागने लगे। वहां पुलिस तैनात थी लेकिन शुरू में उन्होंने रोकने की कोशिश भी नहीं की। अब एक ओर सरकार कानूनी कार्रवाई कर रही है और दूसरी ओर गमलों को वहां से हटा दिया गया है, जहां से चोरी होने की गुंजाइश है।

'जितना लूट सको उतना ही अच्छा!'

इस पूरे घटनाक्रम ने साबित कर दिया है कि लखनऊ शहर के मध्यवर्गीय लोगों ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी के चरित्र से अलग यही प्रेरणा ग्रहण की है कि सरकारी और सार्वजनिक संपत्ति को जितना लूट सको उतना ही अच्छा। वास्तव में यह टिप्पणी संघ परिवार के मूर्तिमान राष्ट्रपुरुषों से अधिक मौजूदा राष्ट्रपुरुषों पर है जो अपनी मूर्तियां लगवाने और अपना नाम पत्थरों पर खुदवाने को आतुर हैं। इस स्तंभकार ने बार बार याद दिलाया है कि मौजूदा राष्ट्रीय नेताओं और सरकार से अधिक चारित्रिक पतन इस समाज का हुआ है जिसे निजी स्वार्थ, तमाशा और चकल्लस से अधिक किसी साहित्य, किसी विचार और किसी प्रेरणा स्थल से कुछ लेना देना नहीं है। और जिसे लेना देना है उसे नफरत और हिंसा से अधिक लेना देना है और उस एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए वह एक ओर अपने नेता को चर्च में भेजता है और दूसरी ओर देश के तमाम स्थलों पर चर्चों और क्रिसमस आयोजन स्थलों पर हमले करता है। बहाना बनाता है कि चर्च में धर्मांतरण चल रहा था और वे उसका निरीक्षण करने गए थे।

प्रेरणा पुरुषों के पार्कों, स्थलों की बाढ़!

पिछले तीस वर्षों में लखनऊ ने जबरदस्त राजनीतिक उथल पुथल और विस्तार देखे हैं। कांग्रेस युग के अवसान के बाद वहां हिंदुत्ववादी, समाजवादी और आंबेडकरवादी विचारधाराओं ने अपने अपने प्रेरणा पुरुषों के पार्क, स्थल, संग्रहालय और मूर्तियों का निर्माण करवाया है। मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव ने डॉ. राम मनोहर लोहिया पार्क और जनेश्वर मिश्र पार्क जैसे विशाल स्मारक स्थलों का निर्माण करवाया। लेकिन पार्कों, मूर्तियों और पत्थरों के स्मारकों के निर्माण में मायावती ने सबको पीछे छोड़ दिया था।

मायावती पर टूट पड़ने वाले कहाँ गये?

राष्ट्रीय दलित प्रेरणा स्थल, आंबेडकर स्मारक पार्क, बहुजन समाज प्रेरणा केंद्र, समता स्थल वगैरह कम से कम आधा दर्जन ऐसे स्थलों का निर्माण मायावती ने करवाया जो दलितों और बहुजन समाज के लिए उनके क्रांतिकारी जागरण और सामाजिक न्याय के प्रतीक थे। लेकिन वे सवर्ण मीडिया और दूसरे राजनीतिक दलों के लिए भ्रष्टाचार, सरकारी धन के दुरुपयोग और आत्म प्रशंसा के प्रतीक थे। इसलिए लगभग सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं उन पर टूट पड़ीं और चुनाव आयोग ने तो एक बार चुनाव के समय नोएडा के हाथी पार्क वाली मूर्तियों को ढंकवा दिया, ताकि मायावती के मतदाता उनके चुनाव चिह्न के दर्शन ही नहीं कर सकें। यह वही चुनाव आयोग है जो आज ऐन चुनाव के वक्त बिहार में महिला मतदाताओं के खाते में दस दस हजार रुपए डाले जाने पर कोई आपत्ति नहीं कर रहा।

सवाल प्रेरणा स्थलों और मूर्तियों के निर्माण में हुए भ्रष्टाचार और मायावती की ईमानदारी का उतना नहीं है जितना इस देश के राष्ट्रीय चरित्र का है। इस देश में बहुजन समाज की आबादी भले ही ज्यादा हो लेकिन उसके प्रेरणा स्थल और उनके महापुरुषों की चंद मूर्तियां सवर्णवादी और पूंजीवादी व्यवस्था को खटकती हैं।

सामाजिक बदलाव की लड़ाई में पिछड़ गए?

वे राष्ट्र प्रेरणा स्थलों पर वाहवाही करते नहीं थकते लेकिन बहुजन समाज के महापुरुषों को भ्रष्टाचार से निर्मित बताने और उनके विचारों पर लानत भेजने में अपना पूरा जोर लगा देते हैं। लेकिन यह मामला इससे कहीं अधिक गहरा है। इस मामले का संबंध हमारे पूरे स्वतंत्रता आंदोलन से है। स्वतंत्रता आंदोलन में उभरे स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के महान मूल्यों की तारीफ करने के साथ यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि वहाँ राजनीतिक स्वतंत्रता और सामाजिक परिवर्तन का तालमेल नहीं बैठ पाया। अगर महात्मा गांधी (और डॉ. लोहिया) को छोड़ दिया जाए तो ऐसे नेता बहुत कम हुए जिन्हें दोनों काम ज़रूरी लगता था और वे उन दोनों में एक समन्वय बिठाने के हिमायती रहे हों। कई अध्येता मानते हैं कि अगर भारत की आजादी की लड़ाई और सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई एक साथ चली होती तो शायद धार्मिक और जातिगत स्तर पर विभेद कम रहते और भारत के विभाजन को टाला जा सकता। स्थितियां जो भी होतीं लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सच्चे राष्ट्र निर्माण के लिए समता और बंधुत्व भी बेहद जरूरी है और आज देश उसी की कमी से गुजर रहा है।

आज जब बहुजन समाज पार्टी लगभग समाप्त हो चुकी है और वह महज अपने वोटों की सौदागार हो चुकी है, तब यह सवाल उठता कि भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल क्या राष्ट्रवाद और सामाजिक न्याय का समन्वय करने में सक्षम हैं? क्या वह यह कार्य कर रहे हैं? कांग्रेस पार्टी की कोशिश कितनी अधूरी है यह उसकी विफलता से जाहिर है। भाजपा ने अपने हिंदुत्ववादी उग्र राष्ट्रवाद से सवर्ण समाज और तथाकथित सोशल इंजीनियरिंग के माध्यम से बहुजन समाज के वोटों को अपनी ओर खींचने में कामयाबी हासिल कर ली है। लेकिन उसका उद्देश्य वर्णव्यवस्था पर आधारित विचारों का पूंजीवादी व्यवस्था से तालमेल बिठाना है। उसका उद्देश्य समतामूलक सामाजिक परिवर्तन नहीं बल्कि उसी दिशा को पलट देना है।

विश्व गुरु बनने की योजना!

स्कूटर और कार से राष्ट्रीय प्रेरणा स्थल से गमले की चोरी करने वाला मध्य वर्ग वही है जिसे याराना पूंजीवाद की ओर से की जा रही राष्ट्रीय संसाधनों की लूट नहीं दिखाई पड़ती और न ही दिखती है बस्तर के हसदेव अरण्य जैसे जंगलों की कटाई और अरावली का विनाश। उसकी नजर में संसाधनों की राष्ट्रीय लूट और पर्यावरण का विनाश दोनों वास्तव में आर्थिक तरक्की में दुनिया को पछाड़ देने और विश्व गुरू बनने की योजना के हिस्से हैं। यह हिंदू राष्ट्र की व्यापक योजना का चरित्र है। यह चरित्र उस समय भी दिखा था जब अयोध्या में प्रधानमंत्री के कार्यक्रम के बाद गमले लूट जा रहे थे। यह चरित्र उस अभावग्रस्त समाज के चरित्र से भिन्न है जो नए घाट पर होने वाले दीपोत्सव कार्यक्रम से बचे हुए दीयों के तेल बटोरता है। तेल निकालना बर्बाद होते संसाधनों को संवारने का दरिद्रनारायण का आंदोलन है, जबकि गमलों की चोरी खाए अघाए लोगों की अतिक्रमण से बनाए गए लान और पोर्टिको को सजाए जाने की उपभोक्तावादी दृष्टि का भाग।

यह उसी राष्ट्रीय चरित्र का हिस्सा है जहां बलात्कार और हत्या के आरोप में सजा पाए सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक को हाई कोर्ट से छोड़ दिया जाता है और अखलाक को पीट पीटकर मारने वालों से मुकदमा वापस लेने का आवेदन किया जाता है। यह न्याय का पाखंड है जो अपराध मुक्त प्रदेश के नाम पर चलाया जा रहा है। अगर इस समाज का राष्ट्रीय चरित्र यही रहने वाला है जो यहां न तो लोकतंत्र बचने वाला है और न ही विकास की किसी उपलब्धि का लाभ राष्ट्र यानी उसकी व्यापक आबादी को मिलने वाला है। अब हम भारत के इस पाखंडी चरित्र का दोष दो सौ साल की अंग्रेजों की गुलामी पर डालकर बच नहीं सकते। यह हमारा वह पौराणिक चरित्र है जिसमें एक ओर अद्वैतवाद है तो दूसरी ओर छुआछूत। इससे उबरे बिना भारत का कल्याण नहीं है।