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फ़ोटो साभार: वन ग्रीन प्लैनेट

प्रिंगल का कोटा

कोटा जानते हैं न! जगह नहीं, वो जो राशन का कोटा होता है उसकी बात कर रही हूँ। वैसा ही होता है प्यार का कोटा। इस ‘कोटा’ शब्द को सुनकर मुँह नहीं बिचकाइए। आरक्षण और मजबूरी या हक़ की बहस में नहीं जाना है मुझे। यह सीधे-सीधे किसी के हिस्से की बात हो रही है।

‘किसी’ क्यों कहूँ? मैं प्रिंगल की बात कर रही हूँ। पाँच साल की होने को आई। घर आए भी उसे पौने पाँच साल हो गए। बेटी की साथी तो वह है, लेकिन कब हमारी साथी हो गई, पता नहीं चला। अपरिचय नाम से था, नस्ल से था और इस जीव से भी। मैंने कॉकर स्पैनिएल का नाम भर सुना था, मगर उसमें भी अमेरिकन और इंग्लिश का अंतर नहीं मालूम था। पढ़कर, वीडियो देखकर, बेटी की बातें सुनकर मैंने अपने आपको उसके साथ रहने के लिए तैयार किया। वरना दिमाग़ में घिन से भी अधिक यह बैठा था कि ये सब अमीरों के चोंचले हैं। और आज का दिन यह है कि उसे कोई उसके नाम से न पुकार कर जातिवाचक शब्द का प्रयोग करे तो मन को ठेस लग जाती है।

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तो प्रिंगल रानी के प्यार का कोटा है। सबको उस कोटे का प्यार देना है। घर में घुसते समय। हालाँकि कोटा टैक्स और चुंगी से अलग होता है, लेकिन प्रिंगल वसूली वैसे ही करती है। कोटा में महत्त्वपूर्ण है परिमाण, निर्धारित करना, सीमित करना और पात्र को उसका देय प्राप्त हो सके, यह सुनिश्चित करना। चुकता कर दिए जाने के बाद कोटा पूरा हो जाता है। लेकिन जैसे खाने का कोटा उसका कभी ख़त्म नहीं होता वैसे ही प्यार का भी। अनवरत माँग जारी रहती है और सामनेवाले/वाली की झुंझलाहट को अनदेखा करके वह खड़ी रहती है।

हर जगह कोटे का परिमाण तय किया जाता है। प्रिंगल भी प्यार का कोटा किससे कितना और कैसे वसूलेगी, यह उसने निर्धारित कर रखा है। हर किसी के लिए अलग तरह का प्यार निर्धारित है। दीदी से लाड़ लगाना है, मगर अदब से। उसके कमरे में जाने के पहले देह भंगिमा ऐसी बनाती है मानो इजाज़त लेकर घुसी है। मूड होता है तो धड़ाक से दरवाज़ा खोलकर (दो पट्टा खोलकर नहीं कहा जा सकता क्योंकि हमारे घर में हर दरवाज़े का एक ही पल्ला है) भी चली जाती है। बोल-बोल कर प्यार माँगने की उसकी अदा पर तो मर जावाँ। बाबा बाहर से आया है तो दरवाज़े के बाहर से ही कोटा पूरा करने की माँग होने लगती है। सहूलियत के लिए वह छत पर जानेवाली सीढ़ी के पहले पायदान पर चढ़ जाती है ताकि बाबा का हाथ आसानी से उसके सिर और गर्दन तक चला जाए। 

मच्छर के डर से सदर दरवाज़ा जल्दी से बंद कर दिया जाए तो प्रिंगल आकर मोढ़े पर बैठकर प्यार का कोटा पूरा करने का दबाव बनाती है। आपने जल्दबाज़ी मचाई तो रूठ भी जाती है और यों दिखाएगी मानो उसने कभी प्यार के लेन-देन के व्यापार में हिस्सा ही नहीं लिया है।

मुझसे प्रिंगल का नाता बहुत चीज़ों को लेकर है। सबको प्यार के कोटे के तहत ही पूरा किया जाना चाहिए, ऐसा उसका मानना है। टहलने जाने के लिए भोर में मेरा अलार्म बजा नहीं कि वह पूँछ हिलाती हुई सामने तैनात हो जाती है। ब्रश करने के समय तक आज्ञाकारी बच्ची की तरह धैर्य के साथ बैठ जाती है। जूता पहनने के बाद सिर्फ़ पूँछ ही नहीं, उसका पूरा शरीर दोलायमान होता है। उस वक़्त पट्टा पहनाने की मशक्कत मुझसे होने से रही। मर्दाना हाथ के बिना वह हाथ नहीं आती है। पिछले साल प्रदूषण, फिर कड़ाके की ठंड, फिर मेरी यात्राओं और कार्यशालाओं का सिलसिला (उसी में मेरे आलस्य-टल्लेनवीसी को जोड़ दीजिए) और अब लॉकडाउन – सारे बहानों की आड़ में मेरा टहलना छूटे तकरीबन छह महीने हो गए। वैसे में प्रिंगल सबसे ज़्यादा वंचित हुई है। उसका भोरवाले प्यार का कोटा मैंने पूरा नहीं किया है।

मुझपर क़र्ज़ चढ़ता चला जा रहा है। उसका बस चले तो वसूल ले, लेकिन इस लॉकडाउन ने उसे रोक रखा है। नियम का पालन वह कर रही है। बाद में उसका कोटा पूरा करने के लिए शायद मुझे डबल-डबल सैर करनी पड़े।

प्रिंगल की ज़बरदस्ती

ज़बरदस्ती करना कोई प्रिंगल से सीखे। घर में आते समय आप उसकी निगाह से बच नहीं सकते। यदि गाड़ी से आइए तो तीन मंज़िल ऊपर से उसे हॉर्न सुनाई पड़ जाता है। सवारी कोई भी हो, ऊपर आते समय सीढ़ियों पर पदचाप किसकी है उसके हिसाब से उसकी मुद्रा में तनाव आने लगता है। आतुरता से वह आगंतुक की प्रतीक्षा करती है और प्रत्यक्ष होते ही देह पर कूद जाती है। आपको भला लगे या बुरा, आपको डर लगे या मज़ा आए, प्रिंगल को कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके लिए प्यार प्यार है और सबके लिए है। उसके द्वारा प्यार का प्रदर्शन अलग-अलग तरीक़े से होता है, अन्यथा वह समदर्शी है। हमारी दोस्त और पड़ोसी परवीन जब शुरू-शुरू में आती थीं तो प्रिंगल के प्यार बरसाने से त्रस्त हो जाती थीं। हालाँकि जब परवीन के घर लियोन आ गया तो हम सबने उनके स्वर में आ रहे क्रमिक बदलाव और घुलते प्यार को महसूस किया है। बाद में प्रिंगल उनकी कुर्सी की बगल में इत्मीनान से बैठने लगी थी। सौ बात की एक बात यह है कि उसे आप नज़रअंदाज़ करके नहीं बैठ सकते हैं। 

जब तक आप उसकी मौजूदगी का संज्ञान न लें, वह आपकी परिक्रमा करती रहेगी। इसलिए उससे जान छुड़ाने का भी एक ही उपाय है। उसे प्यार दीजिए और प्यार करने दीजिए। आपको प्रेम है तो वह आपकी जाँघ को दोनों हाथों से पकड़कर लटक जाएगी, क़दमों में बिछ जाएगी, चित्त लेटकर कनखी से देखती हुई इंतज़ार करेगी कि आप उसे सहलाएँ। बॉबी जब इस्त्री के कपड़े लेने आता है तो सबसे पहले अपने दोनों कान उसे सौंप देता है। यह कहते हुए कि लो, चबा लो, चाट लो और अपना पावना लेकर जाओ। 

जब खीझ होती थी

मुझे याद है कि शुरू-शुरू में मैं कितना खीझ जाती थी प्रिंगल की ज़बरदस्ती से। खासकर यदि कुछ दिन बाद बाहर से आओ तो वह लटक ही जाती थी। दरवाज़े से ही पीछा शुरू हो जाता था। भीतर आकर सोफ़ा सामने है। मैंने अपना पर्स रखा और सोफ़े से पीठ टिकाई नहीं कि वह कूदकर मेरी बगल में आ जाती थी। उसकी ओर नज़र गई तो वह पीछे पीठ पर आ जाती थी। आते ही मेरे बालों में लगे रबर बैंड को पंजे से खोल देती थी। ठीक उसी तरह जैसे बचपन में मेरी बेटी नींद में अँगूठा लेते समय मेरी चोटी का रबर बैंड खींचकर खोल देती थी क्योंकि उसे अँगूठा चूसने के साथ मेरे बालों के एक गुच्छे का छोर चाहिए होता था। प्रिंगल को वह नहीं चाहिए था। उसे केवल मेरा बाल खोलना होता था और कंधे पर आना होता था। धीरे-धीरे मुझे भी उसके साथ इसमें आनंद आने लगा। अभी का हमारा खेल है कि दरवाज़े से मैं भीतर आती हूँ और बिना उससे मुखातिब हुए बाक़ी लोगों से बात करने लगती हूँ। यह अवहेलना उसे असह्य है। वह ज़ोर-ज़ोर से बोलकर मेरा ध्यान आकृष्ट करती है। कभी इधर दौड़ेगी कभी उधर। डाइनिंग टेबल के चारों ओर मैं भागूँगी तो वो मेरे पीछे-पीछे भागेगी। कभी-कभी चकमा देकर नीचे से घुसकर, तिरछे आकर मुझ तक पहुँच जाएगी। मैं यदि पीठ करके खड़ी हो जाऊँ तो पुकारेगी। पाँच मिनट तक तड़पने और तड़पाने के बाद जब हमदोनों एक-दूसरे को छूते हैं तो कहा नहीं जा सकता कि किसे अधिक तृप्ति होती है! हमदोनों का कोटा बराबर-बराबर है!

जाना हिन्दी की सबसे ख़तरनाक क्रिया है, यह बात प्रिंगल को सहज रूप से ज्ञात है। उसने हम हिन्दी-संस्कृत वाले घरवैयों से नहीं सीखा है। घर से जाते समय प्रिंगल सबको यह जतला देती है। वह निस्पृह की तरह बैठ जाती है मानो किसी के आने-जाने से उसे तनिक भी फर्क नहीं पड़ता। वास्तव में उसके शब्दकोश में केवल आना दर्ज है, जाना नहीं। आना सक्रिय करता है उसे, जाना उस सक्रियता से रिक्त करता है। 

आना प्यार उड़ेलने का अवसर है, जाना प्यार रीतने का। घरवालों को जाने की तैयारी में लगे देखकर वह कहीं मुँह फेरकर बैठ जाती है। उसे एक पैसा भी यह लगता है कि शायद उसे साथ ले जाया जाएगा, तब उसकी उत्तेजना देखने लायक होती है। यह जाना दूसरों के जाने से भिन्न है।

प्यार के कोटे का मतलब प्रिंगल के लिए यह भी है कि 100% उसका एकछत्र राज हो घर में। किसी और को मुंडेर पर, छत पर, रेलिंग पर, एंटीना पर क्षण भर भी बैठने नहीं देना है। कोई कबूतर, कोई मैना, कोई कौवा आया नहीं कि वह ज़ोर से हड़काती है। चील भी नज़र आ जाए तो आसमान सर पर उठा लेती है। लॉकडाउन में इन सबकी आवाजाही बढ़ी है तो उसे बड़ी आपत्ति है। आख़िर फ़रमान का पालन ठीक से होना चाहिए। नाफ़रमानी प्रिंगल को सख़्त नापसंद है। लेकिन उसको कठकरेज मत मानिएगा। फूल-पत्तों को तो मन से निहारती है। तितली या छोटे कीड़े-मकोड़ों की मौजूदगी से उसे बुरा नहीं लगता है। चींटा-चींटी को वह ग़ौर से देखती है, पंजे चलाकर उनसे खेलती है। इसे क्या मानें? खेल का कोटा या प्यार का कोटा?

मोहब्बत

प्रिंगल को सबसे मोहब्बत है। नियमित संपर्क वालों को वो अपनी माँगों से निहाल कर देती है। इंसान यदि बेदिल है तो उसे लगेगा कि प्रिंगल बिस्किट के लिए या रोटी के लिए या किसी भी खाद्य पदार्थ के लालच में उनसे चिपकती है, मगर ऐसा नहीं है। वह खाने के लिए हमेशा तत्पर रहती है, लेकिन उसमें नैकट्य की लालसा गुँथी रहती है। वह ख़ासी स्वाभिमानी है।

जब कभी मैं ब्रेड या रोटी का टुकड़ा यों ही उसके सामने रख देती हूँ तो अपूर्व हमेशा टोकते हैं कि प्यार से दो और क़ायदे से दो। एक बार लापरवाही से मैंने उसके पानी के बर्तन को पैर से खिसका दिया तो बेटी ने प्यार से पेश आने का पूरा व्याकरण मुझे पढ़ा दिया।

सुबह-सुबह मैडम को काफ़ी काम रहता है। सबसे अहम है अख़बार लाना। घ्राण शक्ति के साथ श्रवण शक्ति तो जातीय गुण है, इसलिए तीसरी मंज़िल की सीढ़ी पर अख़बार गिरे या दूसरी मंज़िल की तरफ़ रखे गमले की ओट में हो या एकदम ऊपरवाली छत के पायदान पर, प्रिंगल फुर्ती से अख़बार ले आती है। ‘पेपर’ शब्द भी जानती है। लेकिन अख़बार लाने का मतलब यह न समझिए कि वह आपको यों ही हाथ लग जाएगा। वो कोई ‘कैरियर’ नहीं है। मेहनतकश है। काम की गरिमा समझिए। उससे मनुहार कीजिए, शिष्टता से माँगिए तो आपको मिलेगा। घर में वह केवल बाबा को पढ़ा-लिखा मानती है और 5 मिनट के श्रम के बाद उनको अख़बार मिलता है। मैं माँगूँ या बेटी तो हमें टरका देती है। ज़ोर आज़माइश करके भले हम उससे ले लें, मगर उसकी नज़र में हम अख़बार पाने के पात्र नहीं हैं। गनीमत है कि काम की पात्रता और प्यार की पात्रता को वह अलग-अलग खाने में रखती है।

विचार से ख़ास

कई साल पहले की बात है। तब तक मेरे ज़ेहन में वह गहरे नहीं बसी थी। हम तीनों डाइनिंग टेबल के पास गपशप कर रहे थे। अचानक मन किया कि इस साथ को दर्ज कर लिया जाए। संयोग से कुहु मौजूद थी। अपने स्मार्ट फ़ोन के साथ। हमने उससे अपनी फ़ोटो खींचने का आग्रह किया। उसके क्लिक करते करते किधर से प्रिंगू आ गई हमें पता ही नहीं चला। उसने बाबा की कुहनी के नीचे से अपना सिर घुसा लिया और ‘फैमिली फोटो’ के फ्रेम में आ गई। 2020 के शुरुआती महीने में जब कुहु ने उन तस्वीरों को फिर से भेजा और रंगीन से श्वेत-श्याम होते जा रहे उन तस्वीरों को फ़्रेम दर फ़्रेम क्रमवार देखने को कहा तो साफ़ नज़र आया कि कैसे प्रिंगल ने अपनी जगह बनाई। लेकिन यह कहना नाशुक्रापन होगा। कहना चाहिए कि कैसे उसने हमें जगह दी!

बच्चे पालते हैं बड़ों को!

दो साल पहले प्रिंगल जब बीमार पड़ी थी तो हम सब व्याकुल हो गए थे। उस वक़्त मुझे लगा कि वह हमारे प्यार की मोहताज नहीं है, बल्कि हम उसके प्यार के मोहताज हैं। यही लगा अपनी दोस्त अंजु से बात करके भी। चार दिन पहले उसने 12 साल के अपने स्पाइडो को खोया है। लॉकडाउन के साथ आँधी-पानी का कहर भी था। वह अंतिम संस्कार के लिए दफ़नाने और जलाने की प्रक्रिया और कलकत्ता-मुंबई के हालात के बारे में बता रही थी। फ़ोन पर हमने ऐसे प्यार की क़ीमत पर बात की। उसने बताया कि हर किसी को बिना ‘जजमेंटल’ हुए स्वीकार करना उसे स्पाइडू ने ही सिखाया है। 

मैंने कहा कि मुझे साफ़ महसूस होता है कि प्रिंगल ने मुझे थोड़ा बेहतर इंसान बनाया है, हम वयस्कों का ख़याल रखा है। शायद वैसे ही जैसे मेरे पापा कहते हैं कि यह कहना ग़लत है कि बड़े बच्चों को पालते हैं, बल्कि बच्चे बड़ों को पालते हैं।

अहंकार 

हम इंसान अहंकार में रहते हैं। जाति, धर्म, वर्ग, जेंडर वगैरह सबकी हमने सीढ़ी बना रखी है। अक्सर इन सीढ़ियों पर चढ़ते जाने के साथ हमारा अहंकार बढ़ता जाता है। इंसानियत छोड़ने का हम मौक़ा तलाशते रहते हैं। उसमें प्यार कहाँ शेष रह जाता है? तो प्यार के कोटा की क्या बात की जाए? कोटा में किसी को ऊपर या नीचे नहीं होना चाहिए। वह बराबरी और साझेदारी का मामला है। जैसे प्रिंगल को बिना शर्त, बिना हिसाब-किताब के प्यार चाहिए, वैसे ही सबको चाहिए। यदि इतना हम समझ पाएँ तो जीवन को सुंदर बनाने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। प्रिंगल को लॉकडाउन में किसी को प्यार करने देने से हम रोकते हैं तो उसकी नाराज़गी बहुत मुखर होती है। राशन और पका खाना बाँटकर कभी-कभी जब अविनाश आता है और हम प्रिंगल को दरवाज़े की जाली के पीछे रोक लेते हैं तो वह अपनी पूरी देह से इसका विरोध करती है। क्वॉरंटीन करना, अलग रखना क्यों शक की निगाह में घुल-मिल गया है, यह वह कमलनयनी पूछती है। उसे क्या बताएँ कि इंसानी नियम-क़ायदे कितने मारक हैं!

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पूर्वा भारद्वाज
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