भारत में तमाम मुद्दों पर आपकी राय कुछ भी हो लेकिन नेताओं के कुतर्क कुछ और ही होते हैं। वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह ने कुछ नेताओं के कुतर्क तलाशे हैं। आप भी उनके इस लेख से कुछ नेताओं के कुतर्कों को जान सकते हैं।
समय के साथ वैश्विक समाज ने अपनी खोजपरक चेतना विकसित की, तर्क-शक्ति को अदृश्य के खौफ से निकाल कर वैज्ञानिक धार दी और व्यक्ति और व्यक्ति के बीच हीं नहीं, व्यक्ति और अन्य प्राणियों के बीच स्थूल विभेद और शोषण को कम करना न्यायोचित बनाया। विश्व बंधुत्व से लेकर मार्क्सवाद के स्टेट सोशलिज्म (और अंततः राज्यविहीन समाज की परिकल्पना) समतामूलक अवधारणा और वर्तमान में कल्याणकारी राज्य और न्याय पद्धति को बदल दिया।
लेकिन हाल के कुछ वर्षों में दुनिया के कुछ शीर्ष पर बैठे नेताओं ने अतीत की, याने सैकड़ों साल पहले हुई घटनाओं को उभार कर किसी लक्षित वर्ग का उन्माद बढ़ाया। उस उन्माद से उपजे समर्थन से सत्ता हासिल की और उन्मादजनित तर्कहीनता को कुतर्क में बदलते हुए "तूने नहीं तो तेरे बाप ने पी होगी" सिंह-न्याय के जरिए मेमने को खाना शुरू किया। भारत में भारतीय जनता पार्टी का सत्ता में आना अगर उसका स्थूल और भद्दा स्वरूप है तो ट्रंप का मेक अमेरिका ग्रेट अगेन उसका परिष्कृत रूप।
नेताओं का कुतर्क भी समाज सहजता से स्वीकार करने लगे तो इस जड़ता को दशकों तक नेता बनाए रखना चाहेंगे। भारत में सन 2014 के बाद कुछ ऐसा हीं होने लगा है। कुछ कुतर्क के नमूने देखें।
पहला: नए वक्फ कानून पर बहस के दौरान जब कांग्रेस के सांसद व जाने-माने वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने इसे गलत ठहराते हुए कहा कि कानून कोर्ट में एक मिनट भी नहीं ठहरेगा तो उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के पदेन सभापति जगदीप धनखड़ ने कहा “यह संसद का अपमान है क्योंकि यह संस्था सर्वोपरि है लिहाज़ा सांसद को ऐसा नहीं कहना चाहिए”. सभापति एससी के कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ बोलने के लिए जाने-जाते हैं. उनके तर्क का मतलब यह हुआ कि अगर किसी दल के पास यथेष्ट बहुमत हो तो वह संसद में कुछ भी करा सकती है और उनके अनुसार अगर बहुमत से वह बिल पारित हो तो कोई सांसद उसे न्याय की मूलभूत अवधारणा के खिलाफ नहीं बता सकता।
इस तर्क के विस्तार का मतलब यह भी हुआ कि न्यायपालिका मूक दर्शक बनी रहेगी क्योंकि संसद जनप्रतिनिधियों से बनता है और प्रजातंत्र में संसद का बहुमत अंतिम सत्य तय करता है. स्वयं एक वकील रहे सभापति से इतने भौंडे कुतर्क की आशा नहीं की जा सकती। बहुमत केवल गवर्नेंस कौन करे यह तय करता है। बहुमत बाधित होता है एक सिद्धांत से जिसे अल्पसंख्यक के अधिकार सुनिश्चित करना कहते हैं। कोई सांसद शत प्रतिशत सांसदों के पूर्ण मत से भी किसी अल्पसंख्यक वर्ग के मौलिक अधिकारों या जीने के मूल सिद्धांतों को नहीं बदल सकती। शायद वह भूल रहे हैं कि किसी भी संस्था की असीमित शक्ति पर अंकुश हीं प्रजातन्त्र की खासियत है और इसीलिये “मूलभूत तत्व के सिद्धांत” को वैश्विक न्यायविदों से मान्यता मिली है।
दूसरा : उधर पश्चिम बंगाल की सीएम ने कहा कि टीचर्स की बहाली में अनियमितता के एससी फैसले से वह सहमत नहीं हैं. उनका अगला तर्क देखिये. “एक जज के यहाँ करोड़ों रुपये मिलते हैं तो एससी केवल ट्रान्सफर करता है तो फिर इन 25000 टीचर्स टीचर की भी बहाली रद करने की जगह ट्रान्सफर कर दे”, सीएम का (कु) तर्क था. सीएम भूल गयीं कि जज पर आरोप हीं हैं जबकि भर्ती में घोटाले पर जांच एजेंसी ने रिपोर्ट दी और कोर्ट ने उसे सही पाया.
तीसरा : इन सब से बढ़ कर एक और तर्क सुनिए. यूपी के योगी सीएम ने प्रयागराज में एक समारोह में वक्फ बोर्ड के कुम्भ-स्थल पर दावे पर चेतावनी दी “ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों पर दावा करना बंद करें”. बहरहाल इस राज्य में वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद में शिव मंदिर और संभल के जामा मस्जिद में भी मंदिर सहित तमाम अन्य मस्जिदों के नीचे मंदिर तलाशने का सिलसिला अभी बंद नहीं हुआ है. संघ प्रमुख ने हाल हीं में कहा था “हर मस्जिद के नीचे मंदिर तलाशना गलत है”. दरअसल राजनीति तर्क से नहीं चलती हालांकि वोट का याचक “नेता” आंशिक तथ्यों के आधार पर बुने अपने तर्क को सही बताता है.
चौथा : इन्हीं गेरुआधारी राजनेता का एक और हास्यास्पद कुतर्क देखें जो यह बताता है कि आत्ममुग्धता में यह जनता की औसत समझ को कितना कमजोर मानते हैं। और उनका सोचना शायद गलत भी नहीं है। आईएमआर (बाल मृत्यु दर) अन्य राज्यों के मुकाबले फिसड्डी रहे यूपी को योगी जी एक ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनाने का दावा करते हैं लेकिन कुपोषण खत्म करने में अस। यह तरीका तो देश के प्रधानमंत्री से हीं उन्होंने सीखा है। असफलता की चर्चा से नाराज हो जाते हैं। तभी तो मिड डे मील में नमक से बच्चों को भात खिलने वाली खबर पर उनकी पुलिस रिपोर्टर पर संगीन धाराएं लगा कर जेल भेज देती है।
पांचवां: उनका दावा हैं कि अब यूपी में दंगे नहीं होते। उनको कोई समाजशास्त्री जा कर समझाता कि दंगे करने की स्थिति तब बनती हैं जब दो या दो से ज्यादा धार्मिक या अन्य पहचान समूह एसर्टिव होते हैं। तब नहीं जब दूसरा समूह अपनी जिंदगी भर की कमाई से बने मकान के बुलडोजर से गिराये जाने से डरता रहे। और योगी मुख्यमंत्री को जानना चाहिए कि अगर राज्य शक्तियों की ब्रूट भूमिका एक समूह के पक्ष में निरंतर खड़ी रहे तो दंगा स्वतः खत्म हो जाएगा। पर इसकी कीमत होती है राज्य की निष्पक्षता से भरोसे का उठना। और तब दंगे का स्थान तो केवल दाढ़ी वालें से "जय श्री राम" बुलवाने तक के विजयी भाव तक हीं महसूद हो जाता है। और इसे हीं राज्य सत्ता के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति दंगा - मुक्त प्रशासन करार देता है।
उनका दावा हैं कि अब यूपी में दंगे नहीं होते। उनको कोई समाजशास्त्री जा कर समझाता कि दंगे करने की स्थिति तब बनती हैं जब दो या दो से ज्यादा धार्मिक या अन्य पहचान समूह एसर्टिव होते हैं। तब नहीं जब दूसरा समूह अपनी जिंदगी भर की कमाई से बने मकान के बुलडोजर से गिराये जाने से डरता रहे। और योगी मुख्यमंत्री को जानना चाहिए कि अगर राज्य शक्तियों की ब्रूट भूमिका एक समूह के पक्ष में निरंतर खड़ी रहे तो दंगा स्वतः खत्म हो जाएगा। पर इसकी कीमत होती है राज्य की निष्पक्षता से भरोसे का उठना। और तब दंगे का स्थान तो केवल दाढ़ी वालें से "जय श्री राम" बुलवाने तक के विजयी भाव तक हीं महसूद हो जाता है। और इसे हीं राज्य सत्ता के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति दंगा - मुक्त प्रशासन करार देता है।
(लेखक ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन यानी बीईए के पूर्व महासचिव रह चुके हैं)