क्या 2014 के बाद कांग्रेस नेताओं ने बीजेपी के प्रभाव में आकर सावरकर की आलोचना शुरू की? जानिए सावरकर पर बढ़ती राजनीतिक बयानबाज़ी, कांग्रेस और बीजेपी के रुख, और विचारधारात्मक टकराव का विश्लेषण।
2014 से पहले सावरकर का भी हर वर्ग में ठीक ठाक सम्मान था। कांग्रेस के नेता भी कभी सावरकर की बुराई नहीं करते थे जबकि सावरकर महात्मा गांधी की हत्या के आरोपी रहे थे, जिसमें वह conclusive evidence के अभाव में बचे थे, circumstantial evidence उनके विरुद्ध होने के बावजूद।
लेकिन एक भी एविडेंस नहीं मिलेगा कि किसी कांग्रेस के नेता ने चुनावी सभा में भी कभी सावरकर की बुराई की हो 2014 से पहले।
इसका कारण ये था कि सावरकर शुरुआती जीवन में क्रांतिकारी रहे थे, जवानी में अभिनव भारत की स्थापना की थी और नेहरू की स्वतंत्र भारत में सबको साथ लेकर चलने की नीति के तहत सावरकर के पेंशन और टू नेशन थ्योरी पर विश्वास करने वाले शेष जीवन के इतिहास को उभारा नहीं गया था सरकारी किताबों में।
नेहरू की सावरकर पर राय
स्कूल में बच्चे सावरकर जी को वीर सावरकर, गांधी जी को महात्मा गांधी और नेहरू जी को चाचा नेहरू ही जानते थे। नेहरू ने सबको साथ लेकर चलने वाली इसी सोच के कारण श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था जो मुस्लिम लीग के साथ मिलकर प्रांतीय सरकार चला चुके थे।
पर वो तो नेहरू थे, आदर्शवादी थे, सिर्फ वैश्विक मामलों में ही नहीं घरेलू मामलों में भी। सिर्फ चीन वालों को ही भाई समझने की आदर्शवादिता नहीं थी उनमें, उनको शत्रु मानने वाले संघ और हिन्दू महासभा के लोग भी उनकी दृष्टि में अलग सोच वाले उनके भाई ही थे। देश के लिए जीवन समर्पित करने और दशक से ज्यादा जेल में बिताने के बाद उनके बारे में पेरिस से कपड़ा धुलवाने जैसे झूठ फैलाए गए लेकिन वो सह गए।
नेहरू का मक़सद- मतभेद मिटाना
सो नेहरू के कारण सावरकर वीर ही रहे आजादी के बाद, श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में सुभाष चंद्र बोस के विचार आम जनता को नहीं पता चले, मुस्लिम लीग के साथ प्रांतीय सरकार चलाने की कारस्तानी भी चर्चा में न रही। उनकी पहचान जहां बलिदान हुए मुखर्जी वो कश्मीर हमारा है नारे तक रही भले कश्मीर के भारत विलय में उनका कोई रोल कभी नहीं था।
नेहरू चाहते थे पुरानी कटुता और मतभेद मिटा कर नए भारत के निर्माण में सबका साथ हो।
नेहरू की सद्भावना नीति दशकों तक बाद की कांग्रेस सरकारों में भी जारी रही, वैसे भी वो पुरखों के लगाए पेड़ का फल चखने में व्यस्त रहे जब तक पेड़ नहीं कट गया। कभी किसी दुष्प्रचार का उत्तर देने की जहमत कांग्रेस के नेताओं ने नहीं उठाई क्योंकि वो आज के सत्ताधारियों की तरह अपनी सत्ता को अमर मान कर बैठे थे। कहा इससे ज्यादा जा सकता है उनके बारे में लेकिन मूल विषय डाइल्यूट हो जाएगा तो उनके खिलाए गुलों पर चर्चा फिर कभी।
फिर आया अमृतकाल जब नेहरू को ही हर बात के लिए दोषी ठहराया जाने लगा वो भी शीर्ष नेतृत्व द्वारा। जवाब में इस सोच के विरोधियों ने सावरकर के जीवन के वो पन्ने खोलने शुरू किए जो नेहरू की भलमनसाहत में दबे पड़े थे। नतीजा आम आदमी को अंग्रेजों से माफी, पेंशन की बातें पता चलीं वरना पहले सिर्फ इतिहासकार जानते थे ये सब। श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी भी चर्चा में आए, उसके पहले उनकी ज्यादा चर्चा सिर्फ बलराज मधोक ने अपनी किताब में ही की थी या गुपचुप ढंग से संघी मित्र ही सुनाते थे ट्रेन वाली कहानी बिना किसी प्रमाण के।
आज गांधी, सुभाष, भगत सिंह के ऊपर सावरकर की फोटो लगा कर सावरकर के साथ और बुरा कर दिया गया है राष्ट्रहित में, इसके बदले में सावरकर को जो जवाबी अपयश झेलना पड़ रहा है उसके जिम्मेदार इस युग में स्वाभाविक रूप से नेहरू माने जाएं।
(उमंग मिश्रा के एक्स अकाउंट से साभार)