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स्त्री को देवी बनाकर स्त्री से अलग कर दिया!

यदि देवी माता स्त्री जैसी स्त्री है तो उसका नौ दिन ही पूजा पाठ क्यों हो, ताजिन्दगी सम्मान क्यों नहीं? मालूम हो कि आप किसी देवी देवता के वरदान से पैदा नहीं हुये और न हो सकते थे, यह तो प्राकृतिक चक्र के वैज्ञानिक संयोग का परिणाम है जिसके आधार माता पिता हैं। स्त्री को देवी बनाकर स्त्री से अलग कर दिया! आख़िर ऐसा क्यों करना पड़ा? 
मैत्रेयी पुष्पा

इन दिनों को नवरात्रि कहा जाता है। इन दिनों लोग व्रत रख कर देवी की मूर्ति के सामने मन्दिर में या पंडाल में हाथ जोड़कर खड़े दिखाई देते हैं। ये सब देवी के भक्तों में शुमार हैं, उसी देवी के जो स्त्री के रूप में मूर्तिमान है। स्त्री रूप की आराधना करने वालों तुम ही तो हो जो अपने घर की स्त्री सताने में कोर कसर नहीं छोड़ते। तुम ही हो जो स्त्री के यौनांगों से जोड़कर साथी पुरुष को गालियाँ देते हो। तुम्हारी मान्यता के अनुसार मनुष्य जीवन में स्त्री दोयम दर्जे पर है। परिवार और समाज की मान्यताएँ तुमने बनाई हैं जिन पर स्त्री को आँखें बन्द कर के चलने का नियम जारी है। ग़ौर से देखा जाये तो चारों ओर से स्त्री की गतिशीलता पर कसावट है। आश्चर्य नहीं कि स्त्री से बलात्कार तुम्हारी मर्दानगी की खुराक है।

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तब ठीक है आप उस स्त्री को ही स्वीकार करोगे जो तुम्हारे नियंत्रण में रहे। इसलिये ही शक्तिशालिनी, दुर्जन संहारिणी और अष्टभुजा वाली स्त्री की ताक़त को पहचान कर उससे दूर दूर ही रहे। पहचान नहीं दी, पूजा उपासना के बहाने उसको मिट्टी की मूर्ति बना दिया। जब न तब पंडाल सजाते रहे। हाथ जोड़कर मौन व्रती तुम उस मूर्ति से कौन से वरदान माँगते हो?

वरदान? कभी देखो उस स्त्री की आँखों में जो मिट्टी की नहीं सजीव हैं। ग़ौर से देखो, घबराकर निगाहें मत फेरो कि उस सजीव स्त्री के साथ बलात्कार हुआ है! देखो उसको भी जिसके साथ भयानक घरेलू हिंसा हुयी है और वहाँ तक भी जाओ जहां कोई मंडप या पंडाल नहीं सरे राह स्त्री का अपमान हो रहा है, उसके अधिकारों पर डाका डाला जा रहा है।

वह माँ बनी, यह सम्मान का विषय नहीं, यह तो निखालिस प्राकृतिक विधान है। हाँ अगर माँ न बन पायी तो इस बात को सामाजिक कलंक से जोड़ दिया, यह कोई भी स्त्री बर्दाश्त क्यों करे?

मगर यह समाज इसी मुद्दे पर स्त्री को कलंकित करता रहता है। यदि उसका पति मर जाता है तो समाज में स्त्री की स्थिति ही बदल जाती है। उसे फिर देवी की तरह सजने नहीं दिया जाता, लोग उस पर अपने रूप को उजाड़ने की अनिवार्यता लागू कर देते हैं।

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अब सवाल यह है कि आप किस स्त्री रूपा देवी की पूजा अर्चना में उपवास किये खड़े रहते हैं? यदि देवी माता स्त्री जैसी स्त्री है तो उसका नौ दिन ही पूजा पाठ क्यों हो, ताजिन्दगी सम्मान क्यों नहीं? मालूम हो कि आप किसी देवी देवता के वरदान से पैदा नहीं हुये और न हो सकते थे, यह तो प्राकृतिक चक्र के वैज्ञानिक संयोग का परिणाम है जिसके आधार माता पिता हैं। स्त्री को देवी बनाकर स्त्री से अलग कर दिया! आख़िर ऐसा क्यों करना पड़ा? इसलिये कि स्त्री के लिये अपमान, हिंसा और उत्पीड़न के रास्ते खुले रखने थे जो उसे दासता की ओर ले जा सकें। पूछने का मन करता है कि ये क़ायदे इसलिये तो नहीं कि ऐसी नृशंसताएँ ही आपको शासक बनाती हैं। इसमें सन्देह नहीं कि यह विभाजन पितृसत्ता का सुनहरा जाल है।
(मैत्रेयी पुष्पा की फ़ेसबुक वाल से साभार)
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