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विपक्ष में कोई है... जो पीएम मोदी की बराबरी या मुकाबला कर सके

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आ गए हैं। इन नतीजों के बाद अब राजनीतिक विश्लेषक इस सवाल पर चिंतन करने लगे हैं कि क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हराना नामुमकिन है? कुछ इसे दूसरे तरीके से पूछते हैं कि क्या मोदी मैजिक बरकरार रहेगा? कुछ कहते हैं कि किसी को भी हराना नामुमकिन तो नहीं, लेकिन मोदी से जीतना बहुत मुश्किल हो गया है। ये सवाल विधानसभा चुनावों के नतीजों पर नहीं है, इनको साल 2024 में होने वाले आम चुनावों से जोड़़ कर देखा जाने लगा है। कुछ लोग इसे आगे बढ़ाते हुए मोदी से लड़ाई के लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री नहीं बन पाए समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के चेहरों को भी देखने लगे हैं। ममता ने बंगाल के चुनावों  बीजेपी को करारी शिकस्त दी। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी अकेली क्षेत्रीय पार्टी है जिसने दो राज्यों में सरकार बना ली है जबकि अखिलेश के वोटों में 11 फीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है। कांग्रेस का नामलेवा फिलहाल कोई नहीं दिख रहा। उसे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में सिर्फ 21 लाख वोट मिले हैं। 
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क्या हर विधानसभा चुनाव के नतीजों को केन्द्र में जीत से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। कई बार ऐसा हुआ है कि आम चुनावों से पहले होने वाले राज्यों के विधानसभा चुनावों में एक पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन किया,लेकिन बाद में आम चुनावों में वो उस प्रदर्शन को नहीं दोहरा पाई। उत्तर प्रदेश में भी साल 2007 में बीएसपी की सरकार बनी लेकिन 2009 केन्द्र में कांग्रेस की, फिर साल 2012 में यूपी में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने, मगर केन्द्र में स्पष्ट बहुमत के साथ बीजेपी ने सरकार बनाई, फिर इतना हंगामा क्यों। इसकी एक बड़ी वजह तो इस बार चार राज्यों में बीजेपी ने दोबारा सरकार बनाई है, इसमें यूपी में 37 साल बाद यह मौका आया है जब किसी पार्टी ने दूसरी बार बहुमत के साथ सरकार बनाई हो, वह भी कोरोना, महंगाई और बेरोज़गारी संकट के साथ बीजेपी के अंदरुनी विवादों के बावजूद। 
इसी तरह उत्तराखंड में बीजेपी ने पांच साल में मुख्यमंत्री के तीन चेहरे बदल दिए और जीत हासिल कर ली। यह प्रदेश के 22 साल के इतिहास में पहला मौका होगा जब किसी पार्टी ने लगातार दूसरी बार सरकार बनाई हो।
उत्तर प्रदेश में बीजेपी को तीन करोड़ 80 लाख 51 हज़ार से ज़्यादा वोट, समाजवादी पार्टी को दो करोड़ 95 लाख 43 हज़ार से ज़्यादा वोट और बहुजन समाज पार्टी को एक करोड़ 18 लाख 73 हज़ार वोट मिले हैं । कांग्रेस को सिर्फ 21 लाख 51 हज़ार वोट हासिल हुए। असद्दुदीन ओवैसी की पार्टी को केवल 4 लाख पचास हज़ार और जनता दल यूनाइटेड को एक लाख से भी कम वोट मिले। ओवैसी की पार्टी और जनता दल समेत 11 पार्टियों को नोटा से भी कम वोट मिले हैं । यूपी में 6 लाख 37 हज़ार लोगों ने नोटा का बटन दबाया है। दस विधानसभा सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों को नोटा से कम वोट मिले हैं और उसके 97 प्रतिशत उम्मीदवारों की ज़मानत जब्त हो गई है। यूपी में बीजेपी के 11 विधायकों की जीत का अंतर एक लाख वोटों से ज़्यादा है और उऩके कुल 15 विधायकों  को 27 लाख से ज़्यादा वोट मिले हैं । कांग्रेस, ओवैसी की पार्टी और जनता दल को कुल मिला कर 26 लाख 99 हज़ार 901 वोट मिले। 
साहिबाबाद से बीजेपी विधायक बने सुनील शर्मा सबसे ज़्यादा दो लाख वोटों के अंतर से जीते हैं । मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जीत का अंतर भी एक लाख वोटों से ज़्यादा है, लेकिन उनके उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य समेत दस मंत्री चुनाव हार गए।
बीजेपी ने 25 जिलों की सभी विधानसभा सीटों पर कब्जा कर लिया है। इनमें एटा, कन्नौज और फर्रुखाबाद जैसे जिले भी शामिल हैं, जिन्हें समाजवादी पार्टी का गढ़ माना जाता है। दूसरी तरफ बीजेपी आज़मगढ़ में सभी दस सीटें, रामपुर में सभी पांच सीटें और शामली की तीनों सीटें हार गई। राजनीति के जानकार पांच में से चार राज्यों में बीजेपी की दूसरी बार सरकार बनने का मतलब यह मानते हैं कि फिलहाल बीजेपी के दिग्गज नेता और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बराबरी  या उनसे मुकाबला करने के लिए विपक्ष में  कोई  नहीं है। बीजेपी में भी कोई नेता आसपास नहीं है। पार्टी में एक से दस नंबर तक सिर्फ मोदी दिखते हैं। इस चुनाव की जीत को मोदी के चेहरे से जोड़़कर देखा जा सकता है, कोई दूसरा बीजेपी नेता तो प्रचार अभियान के दौरान याद नहीं आता। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपना गढ़ बचाकर खुद को बीजेपी में दूसरी कतार के नेताओं में दिखाई देने लगे हैं। देश में सबसे ज़्यादा विधानसभा  सीटों वाले राज्य में  किसी दल की  दोबारा बहुमत वाली सरकार अपने आप में इतिहास रचने जैसा है। 
योगी आदित्यनाथ बीजेपी के अकेले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने उत्तर प्रदेश में पूरे पांच साल सरकार चलाई और फिर दोबारा भी जीत कर आ गए। इस जीत ने उन लोगों का भी शायद मुंह बंद किया होगा,जो अब तक इस बात की दुहाई दे रहे थे कि साल 2017 का विधानसभा चुनाव योगी के नेतृत्व में नहीं लड़ा गया था, इसलिए उन्हें नेता मानना गलत है। वैसे गुजरात में नरेन्द्र मोदी, मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह लगातार तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहे हैं, लेकिन यूपी में जीतने को बड़ी जीत के तौर पर देखा जा रहा है।
 योगी सरकार के पांच साल के कामकाज के बाद  यह चुनाव हुआ है। इन चुनावों में मोदी योगी का फैक्टर तो प्रभावी रहा ही है और उन्होंने 41 प्रतिशत वोट हासिल किए है,लेकिन अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी को मिली ताकत को नज़रअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। उनकी ताकत में सबसे ज़्यादा इज़ाफ़ा हुआ है। समाजवादी पार्टी को साल 2017 में 47 सीटें और करीब 22 प्रतिशत वोट मिला था जबकि इस बार उनकी सीटों में बड़ा इज़ाफा हुआ,उन्हें 111 सीटें मिलीं और वोट प्रतिशत बढ़कर 35 फीसदी हो गया । करीब 60 सीटें ऐसी बताई जा रही हैं जिन पर जीत का अंतर पांच हज़ार से कम है।  पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा था, तब समाजवादी पार्टी  को पांच और बीएसपी को दस सीटें मिली थी। इस बार मायावती और अखिलेश का गठबंधन नहीं हो पाया, जिसकी वजह से उन्हें कई सीटों पर नुकसान उठाना पड़ा। इन चुनावों में एनडीए का कुल वोट 44 प्रतिशत है जबकि समाजवादी पार्टी और बीएसपी का साझा वोट 49 प्रतिशत हुआ है, यानी नतीजों को बदलना इतना मुश्किल काम भी नहीं था। 
कुछ लोग इस बात का तर्क भी दे रहे हैं कि बीएसपी ने 122 सीटों पर ऐसे उम्मीदवार खड़े किए जिनमें उसने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार की जाति के ही लोग खड़े किए। इनमें 91 मुस्लिम बहुल और 15 यादव बहुल सीटें थीं। इन 122 में से 68 सीटें बीजेपी गठबंधन ने जीती हैं। इस बहस को इस मायने से खारिज किया जा सकता है कि कोई भी पार्टी अपनी जीत के लिए उम्मीदवार तय करती है किसी दूसरी पार्टी को जिताने के लिए नहीं।
यह जीत बीजेपी और योगी की जीत तो है लेकिन बीजेपी  57 सीटें हार गई है और अखिलेश सरकार नहीं बना पाने के बावजूद 75 सीटें ज़्यादा जीते हैं। अखिलेश की इस लड़ाई ने पश्चिम बंगाल की तरह उत्तर प्रदेश में भी चुनाव को बहुकोणीय से दो ध्रुवीय कर दिया, मुकाबला केवल बीजेपी और एसपी में रहा, कांग्रेस और बीएसपी खत्म सी हो गई। बीएसपी के उभार की फिलहाल कोई संभावना नहीं दिखती और कांग्रेस को पार्टी के पुनर्गठन और रणनीति, नेतृत्व हर चीज पर खुले दिमाग से ना केवल सोचना होगा बल्कि उस बदलाव की हिम्मत भी दिखानी होगी। कांग्रेस में जी-23 ग्रुप फिर से सक्रिय हो गया है और उसने कांग्रेस का आपात अधिवेशन बुलाने की मांग की है। अब दूसरी बार प्रियंका गांधी भी चुनाव जिताने में नाकाम रही है, लेकिन हर कोई मानता है कि उन्होंनें लड़ाई खूब लड़ी।   इन चुनावों में उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और यूपी में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और गोवा में दो उपमुख्यमंत्रियों  की हार ने बीजेपी का मज़ा थोड़ा फीका कर दिया । बीजेपी ने पिछला चुनाव मौर्य के प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए लड़ा था और तब बीजेपी गठबंधन को 325 सीटें मिली थी, लेकिन तब पार्टी ने उनकी जगह योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया था और कहा जाता रहा कि इससे ओबीसी में बीजेपी को लेकर नाराजगी बढ़ी है, वह तो नहीं दिखाई दी, लेकिन मौर्य खुद चुनाव हार गए।  
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राजनीति के जानकारों का मानना है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दोबारा तो शपथ लेंगे लेकिन हो सकता है कि कुछ वक्त बाद उन्हें पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी दे दी जाए क्योंकि संघ उनका राष्ट्रीय स्तर पर इस्तेमाल करना चाहता है। बेहतर नतीजों के बाद भी बीजेपी नेतृत्व को अभी गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर में मुख्यमंत्री का चेहरा तय करने में मुश्किल होगी। यूपी में मंत्रिमंडल में फेरबदल का काम भी आसान नहीं होगा। बीजेपी को इन दिनों चुनाव मशीन कहा जाता है। प्रधानमंत्री 10 मार्च को चुनावी जीत  के बाद 11 मार्च को अपने गृह प्रदेश गुजरात में निकल गए, वहां नवम्बर में चुनाव होने हैं। अब कुछ दिनों के लिए गंगा के बहाव को स्थिर रहने दीजिए, अब साबरमती की बारी है। जय श्रीराम के बाद, गांधी के राम।
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विजय त्रिवेदी
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