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मायावती की खामोशी ही मायावती का चुनावी हथियार है!

मायावती की खामोशी के असल मायने क्या हैं? क्या यह खामोशी रणनीतिक है? यूपी चुनाव के मतदान की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, मायावती के पत्ते धीरे-धीरे खुल रहे हैं। पिछले 15 दिन में बसपा अचानक चुनावी मुकाबले में मजबूत प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरी है। इसका सबसे बड़ा कारण खामोशी के साथ बनाई गई मायावती की रणनीति है।

रविकान्त

बसपा सुप्रीमो मायावती की खामोशी पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। ज्यादातर लोगों का मानना है कि ईडी और सीबीआई के डर से मायावती भाजपा सरकार की नाकामियों पर चुप्पी साधे रही हैं। खामोशी के कारण कुछ लोगों ने मायावती को भाजपा की B टीम तक करार दिया है। ऐसा मानने वाले कहते हैं कि मायावती अंदरखाने मोदी-शाह से मिली हुई हैं। इसीलिए उनका मानना है कि बसपा को वोट देने का मतलब है, भाजपा का समर्थन करना। 

अव्वल तो B टीम वाली थ्योरी ही बकवास है। मुख्य धारा का कोई राजनीतिक दल छिपकर किसी दूसरे दल की मदद नहीं कर सकता। सभी राजनीतिक दल अपने राजनीतिक उत्थान के लिए दांव पेंच खेलते हैं।

माना जाता है कि राजनीति में कोई किसी का ना तो स्थाई शत्रु होता है और ना ही स्थाई मित्र। लेकिन किसी दल को किसी दूसरे राजनीतिक दल का छुपा हुआ पिछलग्गू मानना सही नहीं है। 

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दूसरी बात, मायावती का राजनैतिक अतीत और उनका व्यक्तित्व इस बात की ताईद करता है कि वह कभी किसी राजनीतिक दल की पिछलग्गू नहीं हो सकतीं। यूपी की राजनीति में उन्होंने अब तक समर्थन लिया है, किसी पार्टी को समर्थन दिया नहीं है। भाजपा के समर्थन से वे तीन बार मुख्यमंत्री बनी हैं, लेकिन अपनी शर्तों पर। जब भाजपा ने उनका इस्तेमाल करना चाहा तो वे गठबंधन से बाहर आ गईं। इसलिए यह कहना कि मायावती भाजपा की मदद करने के लिए चुनाव में मुखर नहीं है या सीबीआई-ईडी के डर से वे भाजपा का समर्थन करेंगी, किसी भी लिहाज से तार्किक नहीं लगता।
अब सवाल उठता है कि दलित राजनीति की नायिका मायावती क्या सचमुच केंद्र सरकार से डरती हैं? क्या मायावती खामोश होने के लिए मजबूर हैं?
अव्वल तो मायावती अपनी अपील और दलित समाज की ताकत को जानती हैं। मायावती यह भी जानती हैं कि मोदी सरकार में उन्हें जेल भेजने की हिम्मत नहीं है। मायावती आज सड़क पर आकर अगर यह कह दे कि केंद्र सरकार उन्हें जेल भेजना चाहती है तो उनके समर्थकों को संभालना मुश्किल हो जाएगा। 

गौरतलब है कि किसान आंदोलन को खत्म करने पर आमादा सरकार और उसकी समर्थित मीडिया ने जब 28 जनवरी 2021 को राकेश टिकैत को अपमानित होकर लौटते हुए लाइव दिखाना चाहा तो राकेश टिकैत के छलके आंसुओं ने किसान आंदोलन को फिर से पूरी ताकत के साथ खड़ा कर दिया और उसका अंजाम पूरी दुनिया ने देखा। 'अपराजेय' नरेंद्र मोदी को तीन कृषि कानून वापस लेने पड़े। 

हम यह भी जानते हैं कि मायावती की अपील सिर्फ यूपी तक महदूद नहीं है। अगर मायावती पर आंच आती है तो पूरे हिंदुस्तान का दलित एक साथ खड़ा हो जाएगा। नरेंद्र मोदी इस बात को बखूबी जानते हैं। इसलिए मायावती के साथ ऐसा करने की गलती केंद्र सरकार कभी नहीं कर सकती।

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तब फिर दलित उत्पीड़न जैसी घटनाओं पर मायावती की निष्क्रियता के मायने क्या हैं? दरअसल, मायावती मानती हैं कि  सत्ता आने पर ही दलितों के स्वाभिमान की रक्षा हो सकती है। इसलिए वह उत्पीड़न की घटनाओं पर अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं को सड़क पर आने के लिए नहीं कहती हैं। वे जानती हैं कि सरकार कितनी निर्मम और निरंकुश हो सकती है। योगी सरकार के बारे में तो सभी लोग जानते हैं कि उसने किसी भी आंदोलनकारी को बख्शा नहीं है। उल्टे सीएए-एनआरसी के खिलाफ होने वाले आंदोलन में शामिल तमाम बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों पर संगीन धाराओं में मुकदमे लगाकर जेल भेजा गया और शहर भर में पोस्टर लगाकर उन्हें अपमानित किया गया।

इसलिए मायावती का कहना है कि उनके कार्यकर्ता और समर्थक सड़क पर लड़ाई लड़ने के बजाय बसपा को सत्ता में लाने के लिए प्रयत्न करें। वे अपने कार्यकर्ताओं पर मुकदमे नहीं चाहती हैं। वे जानती हैं कि सत्ता में आने पर दलितों के स्वाभिमान की रक्षा ही नहीं होगी बल्कि उनका सशक्तीकरण भी होगा। दलितों का सशक्तीकरण ही अन्याय और अत्याचार से मुक्ति का सबसे कारगर उपाय है।

मायावती की खामोशी के असल मायने क्या हैं? क्या यह खामोशी रणनीतिक है? यूपी चुनाव के मतदान की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, मायावती के पत्ते धीरे-धीरे खुल रहे हैं। पिछले 15 दिन में बसपा अचानक चुनावी मुकाबले में मजबूत प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरी है। इसका सबसे बड़ा कारण खामोशी के साथ बनाई गई मायावती की रणनीति है।

आज यूपी की सक्रिय राजनीति में सिर्फ मायावती ही हैं जिन्हें 403 विधानसभा के जातिगत समीकरण बखूबी मालूम हैं। वे प्रत्येक विधानसभा के जातिगत गणित और रसायन को भली-भांति जानती हैं। इसीलिए उन्होंने पिछले 4 माह के भीतर प्रत्येक विधानसभा पर सामाजिक समीकरणों के अनुसार मजबूत प्रत्याशी उतारे और अपने कैडर को सक्रिय किया। इसका ही नतीजा है कि आज बसपा लड़ाई में दिखने लगी है।

दरअसल,मायावती द्वारा राजनीतिक चौसर पर बिछाई गई बिसात की परतें अब खुलने लगी हैं। पहली बात, खामोश रहकर उन्होंने बसपा के प्रति किसी भी किस्म की नाराजगी या नकारात्मक भावना को पनपने नहीं दिया। भाजपा से पुराने समर्थन के इतिहास के अलावा आज उनके ऊपर कोई आरोप नहीं है। कोई भी सामाजिक समूह आज बसपा से ना तो नाराज है और ना ही कोई विरोध है।  

दूसरा, खामोशी अख्तियार करके उन्होंने सपा और भाजपा दोनों को अपने जाल में फंसाया। अखिलेश यादव और भाजपा के कथित चाणक्य को यह लगा कि मायावती की राजनीति अब ढलान पर है। इसलिए बसपा के जनाधार को अपने पाले में लाया जा सकता है। परिणामस्वरूप दोनों पार्टियों ने 11 फ़ीसदी तादात वाले जाटव समुदाय को अपने साथ लाने की पुरजोर कोशिश की। अखिलेश यादव ने पार्टी कार्यालय में बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर की तस्वीर लगाकर तमाम बसपा से आए जाटव नेताओं को पार्टी में शामिल किया। इन नेताओं ने अखिलेश को जाटव वोटों का लालच देकर पार्टी के संगठनों में बड़े ओहदे प्राप्त किए। साथ ही सुरक्षित सीटों पर सबसे ज्यादा भागीदारी प्राप्त की। 

बेबीरानी मौर्य को उतारा 

अखिलेश यादव ने दूसरी गैर जाटव जातियों मसलन, कोरी, धोबी, वाल्मीकि, सोनकर और धानुक नेताओं को कोई तवज्जो नहीं दी। इसी तरह भाजपा ने जाटव वोटर को आकर्षित करने के लिए उत्तराखंड की पूर्व राज्यपाल और आगरा की पूर्व मेयर बेबीरानी मौर्य जाटव को चुनाव में पार्टी का बड़ा चेहरा बनाया। उनके अतिरिक्त कई और बसपा से आए नेताओं और पूर्व प्रशासनिक जाटव अधिकारियों को पार्टी में शामिल करके टिकट दिए। भाजपा ने अपने पुराने सोशल इंजीनियरिंग को भुला दिया। यही भूल अखिलेश यादव कर बैठे।

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मायावती की एक अपील पर जाटव समाज उनके साथ खड़ा हो जाता है। दलितों की राजधानी कहे जाने वाले आगरा में मायावती ने अपनी पहली चुनावी सभा में सपा, कांग्रेस और भाजपा पर तीखे प्रहार करके जाटव समाज को फिर से गोलबंद कर लिया। 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में भाजपा ने गैर जाटव समाज को प्राथमिकता दी थी।

जाटव के खिलाफ भाजपा के नफरती प्रचार के कारण इन जातियों ने भाजपा का समर्थन किया। लेकिन दलितों के उत्पीड़न, आरक्षण पर प्रहार, महंगाई और बेकारी की मार के कारण आज ये जातियां भाजपा से खफा हैं। ऐसे में ज्यादातर लोग सपा के साथ जाना चाहते थे। लेकिन अखिलेश यादव द्वारा की गई अनदेखी के कारण गैर जाटव जातियां, आज मायावती पर भरोसा करके बसपा के साथ जाती हुई दिख रही हैं। 

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मायावती ने इस बार जाटवों के साथ-साथ कोरी, वाल्मीकि, पासी, धोबी, सोनकर, धानुक आदि जातियों के प्रतिनिधियों को बड़ी तादात में प्रत्याशी बनाया है। उन्होंने कई सामान्य सीटों पर दलित प्रत्याशी उतारकर बड़ा दांव खेला है। उनके इस संदेश का गैर जाटव दलितों पर बड़ा प्रभाव हो रहा है।
गैर जाटव दलितों का मायावती पर फिर से भरोसा जागने का कारण भी है। बैकलॉग की भर्तियों से लेकर प्रमोशन में आरक्षण, निजी क्षेत्र और ठेकेदारी में आरक्षण से दलितों को मुख्यधारा में आने का मौका मिला था। मायावती के पिछले कार्यकाल में सरकारी नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के सबको मौका मिला।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके शासन में दलितों को कोई दरोगा या सिपाही थाने के दरवाजे से दुत्कारकर भगाने की हिम्मत नहीं कर सकता था। गांव-कस्बों की सबसे बड़ी जरूरत होती है कि अन्याय और अत्याचार होने की स्थिति में दलितों की शिकायत दर्ज हो सके। दरोगा, पटवारी, डीएम, एसपी, तहसीलदार उनकी बात सुन सकें। उनकी बहू बेटियों की इज्जत पर आंच ना आए। कोई दबंग सताए नहीं। सरकारी अफसर दुत्कारे नहीं। उनके बच्चों को स्कूलों में दाखिला और वजीफा मिले। बेरोजगारों को काम मिले। उनकी आवाज बुलंद हो। 

दलित आज इस बात को महसूस कर रहे हैं कि भाजपा में छलावा और कुछ मुखौटों के अलावा उनके समाज को कुछ नहीं मिला। भाजपा के शासन में उनका जो छीना गया है, उसे मायावती ही वापस दिला सकती हैं। इसलिए समूचा दलित समाज आज फिर से उनके साथ खड़ा हो रहा है। यही समाज मायावती की ताकत बन रहा है। इसलिए कहा जा सकता है कि मायावती की खामोशी चुनावी लड़ाई का एक हथियार है, मजबूरी या डर नहीं।

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